Thursday, August 31, 2023

पुंश्चली .. (८) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

पुंश्चली .. (१)पुंश्चली .. (२), पुंश्चली .. (३)पुंश्चली .. (४ ) , पुंश्चली .. (५ )पुंश्चली .. (६) और पुंश्चली .. (७) के बाद अपने कथनानुसार आज एक सप्ताह बाद पुनः वृहष्पतिवार को प्रस्तुत है आपके समक्ष पुंश्चली .. (८) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) .. भले ही थोड़े विलम्ब के साथ .. बस यूँ ही ... :-

गतांक से आगे बढ़ने के पहले स्वयं के साथ-साथ आप सभी से वही पिछले अंक वाला सवाल पुनः .. " क्या एक जिम्मेवार बुद्धिजीवी नागरिक होने के कारण हमने कोई सकारात्मक क़दम उठाए हैं ? " मसलन .. राह चलते या चौक-चौराहे जैसे सार्वजनिक स्थानों पर खड़े होकर धूम्रपान करने वालों में से कितनों को स्वदेश के "धूम्रपान निषेध अधिनियम" की याद दिला कर .. उनकी बीड़ी या सिगरेट बुझवाने की हिम्मत कर पाए हैं अब तक हम .. चाहे वह अपने सगे-संबंधी हों, जान पहचान वाले हों या अंजान कोई भी एक साधारण-सा दिहाड़ी वाला मज़दूर हो या कोई ख़ाकीधारी, काला कोटधारी या फिर कोई खादीधारी हों ? .. शायद ...

हो सकता है .. हमको इस तरह से पहल करने वाला क़दम जोख़िम भरा महसूस हो रहा हो, तो आसपास के या रास्ते में दिखने वाले कम से कम आठ-दस गाजर घास के पौधे ही जड़ से उखाड़ के कभी-कभार निरस्त कर दिया हो हमने .. शायद ... या फिर दहेज़ के लेन-देन वाली किसी शादी के मौके पर शादी में जाने से या भोज खाने से दहेज़ वाली वज़ह बतलाते हुए निमंत्रक को सामने से इंकार कर दिया हो हमने .. शायद ...

अगर एक के लिए भी हमारा "हाँ" है तो .. ठीक, वर्ना उत्तर "ना" होने पर इस वक्त आपका ये साप्ताहिक धारावाहिक - पुंश्चली का आठवाँ अंक पढ़ना और हमारा लिखना भी बेमानी है। बेमानी हैं हम सभी के वो सारे के सारे कृत्य जो हम प्रायः 'सोशल मीडिया' या मंचों पर चमकाते रहते हैं, स्वयं को चमकाने के लिए .. शायद ...

हमने आरम्भ में इस साप्ताहिक धारावाहिक - पुंश्चली के प्रथम अंक में ही कहा था कि "आभासी मनोरंजन का दावा तो नहीं, पर तथ्यों का वादा है हमारा".. बस यूँ ही ...

ख़ैर ! .. पुंश्चली - (७) के बाद पुंश्चली - (८) के लिए आगे बढ़ते हैं ... 

रसिक चाय दुकान के सामने लगे बेंच पर बैठे सिपाही जी की चाय के घूँट और उनके सिगरेट के धुएँ का अब तक संगम हो चुका है। 

सिपाही जी की चाय की हर चुस्की .. लगभग तेज आवाज़ के साथ सुड़कने वाले अंदाज़ में .. कुल्हड़ की कोर को उनके होठों की गिरफ़्त में ले आती है और सिगरेट का हर कश भी सिगरेट के 'फिल्टर' को होठों की गिरफ़्त तक ही लाता है, पर दोनों में सूक्ष्म अन्तर दिख रहा है। चुस्की और कश के दौरान होठों की हरक़तों और बनावटों में क्रमशः वही अन्तर दिख रहा है जो एक बच्ची के गाल चूमने और एक प्रेमिका के होंठों को चूसने में अक़्सर होता है .. शायद ...

रसिक की कड़क, मीठी और मलाईदार चाय से सिक्त कुल्हड़ हो या फिर उच्च ताप में सुलगते महँगे सिगरेट वाले तम्बाकू का संगी 'फ़िल्टर' हो .. दोनों को ही मालूम है कि दोनों के साथ क्रमशः जब तक चाय और तम्बाकू है .. तभी तक सिपाही जी के होंठों का संसर्ग मिल रहा है .. फिर उसके बाद तो .. कुल्हड़ और 'फ़िल्टर' .. दोनों की ही इहलीला का पटाक्षेप हो जाना है .. शायद ...

ऐसे में तुलसी दास जी की रचना- रामचरितमानस में राम की सत्यता का तो पता नहीं; परन्तु उनका यह सांसारिक ज्ञान तो चरितार्थ होता प्रतीत होता ही है, कि ...

"सुर, नर, मुनि, सब कै यह रीति, 

  स्वारथ लागि करहिं सब प्रीति।"

"रसिक भईया ! .. जरा गर्म-गर्म चाय जल्दी से हमको पिला दीजिए .. और दो पाव भी .." - ये है चंदर कबाड़ी जो अक़्सर मुहल्ले में आकर अपने ठेले में भर-भर कर मुहल्ले भर से अंगड़-खंगड़ सामान खरीद कर ले जाता है, जिसको झूलन सेठ कबाड़ी के यहाँ मुनाफ़े के साथ बेचकर अपना घर-परिवार चलाता है - "और .. तनिक मलाई अपनी तरफ से पाव पर रख के .. ऊपर से एक चुटकी चीनी भी बुरक दीजिएगा सुबह-सुबह 'मूड' (मनोदशा) बन जाएगी हमारी .."

"ठीक है चंदर भईया .. बस पाँच मिनट .." - ये कलुआ है - "आज बड़ा ख़ुश लग रहे हो भईया ! .. कोई मोटा माल हाथ लगा है क्या आज ?"

चंदर कबाड़ी - "हाँ रे ! .. उ सतरुधन (शत्रुघ्न) चच्चा (चाचा) हैं ना ! .. कल 'इंडिया' हार गया ना 'फाइनल मैच' .. तअ (तो) अपना 'टिविआ' (टी वी) उठा के जोर से पटक दिए थे कल रात में .. चकनाचूर हो गया था .. भुच्ची-भुच्ची हो गया है .. वही मिल गया अभी भोरे-भोरे किलो के भाव में .. चच्ची रो-रो के तौलवा रहीं थीं .. अब एकर (इसका) एक-एक काम के लायक वाला 'पार्ट' (भाग) का ज्यादा दाम देगा 'इलेक्ट्रॉनिक रिपेयरिंग' वाला दुकान में .. 'एही' (इसी) से खुश हैं .."

"ओ ~~~ ... वही कल रात में बड़ा जोर से आवाज़ किया था .. लगता है .." - चंदर कबाड़ी की बात सुनकर और उसके ठेले में प्रत्यक्ष 'टी वी' के अवशेष को निहारते हुए सिपाही जी बोल रहे हैं।

तभी उधर से शत्रुघ्न चाचा के पड़ोसी 'प्रोफेसर' साहब और सरकारी अस्पताल के 'स्टोरकीपर' साहब आपस में देश-विदेश की ख़बरों के साथ-साथ कल रात वाली 'इंडिया टीम' की हार .. वो भी 'पाकिस्तान टीम' से .. और पड़ोसी शत्रुघ्न के घर तोड़े गये 'टी वी' की परिचर्चा करते हुए सुबह की चाय पीने "रसिक चाय दुकान" के पास अभी-अभी रोज की तरह आ गये हैं। 

उनको तो पड़ोसी होने के नाते "'टी वी' भंजन प्रकरण" की सारी जानकारी है ही। सामने चंदर कबाड़ी के ठेले में प्रत्यक्ष प्रमाण भी आराम फ़रमा रहा ही है .. तो फिर क्या है ? .. 'न्यूज़ चैनल' वालों की तरह ही इंसानी फ़ितरत है कि घटना घटने भर की देर है .. फिर तो उसकी बख़िया उधेड़ कर उसका 'पोस्टमार्टम' करने में देर भी भला कहाँ लगती है .. शायद ...

'प्रोफेसर' साहब - " हमारी मूर्खता की पराकाष्ठा का उदाहरण इस से बेहतर और क्या मिल सकता है, कि अगर हमारी अपनी पसंदीदा क्रिकेट टीम मैच जीत जाती है, तो कुछ पल के लिए मान भी लिया जाए कि ये जायज़ हो भी सकता है .. हमारा खुश हो कर थिरकना .. ज़श्न मनाने के नाम पर अपनी हैसियत के मुताबिक घर पर ही या किसी महँगे 'रेस्टोरेंट' या 'बार' में जाकर ऊटपटाँग हरक़तें करना और .. इसे अपनी देश-प्रेम से जुड़ी भावनाओं की प्रतिक्रिया का नाम दे देना। 

'स्टोरकीपर' साहब - " हाँ .. सही कह रहे हैं आप .. "

'प्रोफेसर' साहब - " पर .. हद तो तब होती है, जब पसंदीदा क्रिकेट टीम के मैच हारने के बाद हम अपने लिए छदम् तनावग्रस्त परिस्थिति बनाकर गुस्से के वशीभूत होकर कई दफ़ा तो जिन 'टी वी' पर हम मैच देख रहे होते हैं, अपने उसी 'टी वी' को पटक कर फोड़ तक देते हैं। जबकि हारने वाली उस पसंदीदा क्रिकेट टीम को भी मैच हारने के बावज़ूद भी खेलने की स्टोरकीपर अच्छी-खासी क़ीमत मिलती है ... भले ही वह जीतने वाली टीम से तुलनात्मक कम रक़म होती हो .. "

'स्टोरकीपर' साहब - " और तो और .. हमलोग इसे क्रिकेट-प्रेम और देश-प्रेम का नाम दे कर शेख़ी भी बघारते रहते हैं। "

'प्रोफेसर' साहब - " अब ये प्रेम है या पागलपन ? बोलो ! .. याद है वो .. 'फ़िल्म'- "पी के" का वो एक 'डॉयलॉग' .. जिसमें दूसरे ग्रह से आया प्राणी बना हुआ 'हीरो' जो कुछ भी बोलता है .. वह बहुत ही गहरा और अर्थपूर्ण कथन है। ठीक-ठीक तो याद नहीं पर .. जिसका आशय है, कि - यहाँ के लोग, मतलब धरती के लोग जब बोलते हैं कि 'आई लव फ़िश',तो इसका मतलब ये नहीं होता है कि वे लोग मछली से प्यार करते हैं। बल्कि इनके 'आई लव फ़िश' का मतलब होता है कि वो मछली को मार कर, पका के खाते हैं। उसी को कहते हैं .. 'आई लव फ़िश' .. "

'स्टोरकीपर' साहब - " और यहाँ क्रिकेट-प्रेम का भी कुछ ऐसा ही .. मतलब है .. वो लोग इस प्रेम में क्रिकेट को तो नहीं .. पर ख़ुद को बर्बाद कर लेते हैं। "

'प्रोफेसर' साहब - " और इन सभी बेसिर-पैर की भावनाओं को देश-प्रेम का नाम देकर सामने वाले का मुँह चुप कराने का प्रयास करना भी इन्हें बख़ूबी आता है। और तो और .. ऐसी बातों पर तर्क देंगे कि इन सब से तो कई लोगों के परिवार वालों का पेट चलता है। ये सब ना हो तो कई लोग बेरोजगार हो जायेंगे बेचारे ... च्-च्-च् ... "

'स्टोरकीपर' साहब - " ये लोग इस खेल के पीछे चल रहे सट्टा बाज़ार वालों के लिए भी या क़ानूनी-ग़ैरक़ानूनी नशा के सामानों को बेचकर समाज की हर पीढ़ियों को कमज़ोर या बर्बाद करने वालों के लिए भी ऐसी ही तर्क देकर उनके प्रति अपनी हमदर्दी जताने का भरसक प्रयास करते हैं .. पर दूसरी ओर यही भीड़ 'सेक्स वर्कर्स' के धंधे के विरुद्ध में कई सारे 'एजेंडे' बनायेंगे .. तब इन्हें उनकी बेरोजगारी, उनकी पेट की भूख नज़र नहीं आती है .. "

'प्रोफेसर' साहब - " तब तो समाज और राष्ट्र की छदम् चिन्ता में .. "

'स्टोरकीपर' साहब - " सुनते हैं कि कुछ साल पहले सभी के पास मोबाइल नहीं हुआ करता था। इक्के-दुक्के लोग ही इसका उपभोग कर पाते थे। तब तो शायद 'इन कमिंग कॉल' के भी 'चार्ज' लगते थे। तब लोग लम्बी-लम्बी 'लाइन' लगा कर 'पब्लिक टेलीफोन बूथ' में अपनी बारी की प्रतीक्षा किया करते थे। वहाँ रात में ज्यादा भीड़ होती थी, क्योंकि दिन की तुलना में रात की एक निर्धारित समय-सीमा में आधा या चौथाई शुल्क देना होता था। अगर एक ग्राहक द्वारा पहले या दूसरे प्रयास में उसका 'कॉल' नहीं लगता था, तो दुकानदार ख़ुद बोल कर या पीछे वाले ग्राहक ही हल्ला कर के उस ग्राहक को परे हटा देते थे और ख़ुद अपना 'नम्बर' मिलाने लगते थे। "

'प्रोफेसर' साहब - " अभी इन सब अतीत की बातों की चर्चा का भला क्या मतलब ? .."

'स्टोरकीपर' साहब - " मतलब ये है कि .. आज आसपास कहीं भी 'पब्लिक टेलीफोन बूथ' दिखता नहीं है, तो क्या सारे 'टेलीफोन बूथ' वाले भूखे मर रहे हैं या फिर .. दूसरे धंधे में लग गये हैं ? .. बोलिए ! .."

'प्रोफेसर' साहब - " ये सब के सब मुखौटेधारी दोहरी ज़िन्दगी जीने के आदी हैं। याद है .. बिहार राज्य में सरकार द्वारा जब शराबबंदी की घोषणा की गयी थी, तब तो सभी बेवड़े यही वाला तर्क दे रहे थे कि ऐसे में तो कितनों के पेट पर लात मारी जाएगी। सत्तारूढ़ सरकार कोई भी हो, वह काम कुछ भी करे .. कुछ लोगों की आदत होती है, सही तथ्यों से अंजान .. बस उसके विरुद्ध कुछ भी अंट-संट 'सोशल मीडिया' पर बेवड़ों की तरह चिपकाते रहने की। इन्हीं के जैसी मानसिकता वाले प्राणियों की भीड़ पीछे से इन पर 'लाइक' और 'कमेंट' की सतत बरसात भी करते रहते हैं .. "

'स्टोरकीपर' साहब - " बनावटी राष्ट्र प्रेम के सबूत जो देने हैं इन्हें 'सोशल मीडिया' पर .."

'प्रोफेसर' साहब - " देश-प्रेम की भावना वाली गंगा ही बहानी है तो क्रिकेट की जगह कुछ वास्तविक समाज सेवा की भी सोच लेनी चाहिए कभी-कभी इनको। बहुत सारे क्षेत्र हैं खुले पड़े .. सेवा के लिए प्रतिक्षारत .. बिखरे पड़े हैं हमारे आसपास .. पर नहीं .. किसी तथ्य को गंभीरता से जाने-समझे बिना बस ..  सत्तारूढ़ राजनीतिक दल के विरुद्ध कुछ भी वक्तव्य 'सोशल मीडिया' पर चिपका कर अपने समाज-प्रेम, राष्ट्र-प्रेम प्रदर्शित करने की कोशिश करनी ही इनकी देशभक्ति है भाई ..."

'स्टोरकीपर' साहब - " यही लोग पन्द्रह अगस्त और छ्ब्बीस जनवरी जैसे मौकों पर ताबड़तोड़ 'सोशल मीडिया' पर 'हैप्पी इंडिपेंडेंस डे' .. 'हैप्पी रिपब्लिक डे' जैसे 'मेसेज' को 'कॉपी-पेस्ट' करते नहीं थकते हैं। ऐसे-ऐसे कई अवसरों पर इसी तरह के 'कॉपी-पेस्ट' वाले आसान अवसरों से ये लोग कभी नहीं चूकते और ना ही अपनी ऐसी आधारहीन और प्रतिफल विहीन देशभक्ति के प्रमाण देने में कोई कोताही बरतते नज़र आते हैं ... "

'प्रोफेसर' साहब - " समाज की किसी भी भेड़-चाल में शामिल या शरीक़ नहीं होने वाला इंसान .. आडम्बरों से भरे तथाकथित समाज के बहुसंख्यकों को प्रायः सिरफिरा ही प्रतीत होता है। सामाजिक मान्यताओं के अनुसार किसी परम्परा या किसी आयोजन का चाहे कोई औचित्य नहीं भी हों, फिर भी बिना तर्क किए किसी सम्मोहित प्राणी की तरह पीछे-पीछे चले चलो तो ये तथाकथित समाज सराहती है और जब तार्किक होकर सुगम रास्ते अपनाओ या सुझाओ तो वही समाज सिरफिरा समझती है और कहती भी है .. है कि नहीं ? ..."

वहाँ अन्य बैठे रसिकवा के ग्राहक लोग चाय के साथ-साथ मुहल्ले के दोनों प्रतिष्ठित व्यक्तियों - 'प्रोफेसर' साहब और 'स्टोरकीपर' साहब की वार्तालाप का भी आनन्द मुफ़्त में ले रहे हैं। पर आधी उनकी खोपड़ी में समा रही है और .. आधी ऊपर से निकल जा रही है। वैसे भी दुनिया की सभी बातें .. सभी के खोपड़ी में समा भी कहाँ पाती है भला ? .. बस यूँ ही ...

【 अब शेष बतकहियाँ ... आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (९) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】



Wednesday, August 30, 2023

गुमनाम गाँगुली बनाम वादन की गायकी


 【भूमिका

संगीत :- 

सर्वविदित है कि असीम साहित्य-संगीत की संगति और बेशक़ विज्ञान के नए-नए शोध-अनुसंधान ही मानव जाति को धरती के अन्य प्राणियों से तुलनात्मक रूप से सर्वोत्कृष्ट बनाती है .. शायद ...

हम कह सकते हैं कि जैसे "साहित्य" शब्द अपने आप में कविता, कहानी, लघुकथा, उपन्यास, दोहे, चौपाई, संस्मरण, आलोचना, हास्य-व्यंग्य इत्यादि जैसी तमाम विधाओं वाली रचनाओं को अपने में समेटे हुए है, ठीक वैसे ही हम "संगीत" के व्यापक अर्थ में गायन और नृत्य इत्यादि जैसे कलात्मक कृत्यों से जनी एकल या सामूहिक कृति को उपेक्षित नहीं कर सकते हैं .. शायद ...

प्रसंगवश

गिटार :-

अपनी उपरोक्त बतकही को एक भूमिका की शक्ल देने की कोशिश के बाद मूल विषय "गुमनाम गाँगुली बनाम वादन की गायकी" तक पहुँचने के पूर्व प्रसंगवश संगीत से जुड़ी कुछ बतकही .... दरअसल संगीत के लिए प्रयुक्त विभिन्न प्रकार के अनगिनत देशी और विदेशी वाद्य यंत्रों में से एक यंत्र का नाम हम सभी सुने हैं .. जानते हैं और देखे भी हैं। वह है .. "गिटार".. जो विदेशी होते हुए भी आज हमारी युवा पीढ़ी के लिए देशी ही प्रतीत होता है। ठीक वैसे ही जैसे आज हमारे तथाकथित समाज में .. हमारी तथाकथित सभ्यता-संस्कृति वाली दिनचर्या में रचे-बसे चाऊमीन, पिज्जा-बर्गर् और बिरयानी जैसे व्यंजन, अंग्रेजी और उर्दू जैसी भाषा और कोट-पैंट-टाई जैसे परिधान विदेशी होकर भी देशी ही जान पड़ते हैं।

पश्चिमी देशों, ख़ासकर अमेरिका, में किसी कालखण्ड के दरम्यान "जींस और गिटार" युवा विद्रोह, स्वयं की आध्यात्मिक तलाश, व्यक्तिगत जीवन शैली, रोमांच और जीवन को पूर्णता से जीने का प्रतीक बना हुआ था और आज भी कमोबेश है ही .. वो भी .. अपने वैश्विक प्रसार-विस्तार के साथ .. शायद ...

गिटार के प्रकार :- 

यूँ तो मूलतः बनावट के आधार पर दो तरह के गिटार होते हैं। पहला होता है - "ध्वनिक गिटार" .. जिसमें उसके एक छेदयुक्त हल्के लकड़ी के बने खोखले ढाँचे और ताँत या स्टील के तारों की मदद से 'स्ट्रोक' द्वारा लयबद्ध ध्वनि उत्पन्न की जाती है। 

जबकि दूसरा होता है ..  "'इलेक्ट्रिक' गिटार" .. जो ठोस और भारी होते हैं, जिसमें स्टील के तारों को सधी उंगलियों द्वारा झंकृत करके बिजली की मदद से एक या एक से अधिक 'एम्पलीफायरों' द्वारा ध्वनि उत्पन्न की जाती है। 'एम्पलीफायरों' के कारण 'इलेक्ट्रिक' गिटारों की आवाज़ ध्वनिक गिटारों की तुलना में ज्यादा प्रभावी होती है। 

यूँ तो इनमें प्रयोग होने वाले ताँत या स्टील के तारों की संख्या के आधार पर भी इनके कई सारे प्रकार होते हैं। कुछ असाधारण गिटार दो खोखले ढाँचे वाले भी होते हैं, परन्तु दुष्प्राप्य .. शायद ...

(अ) स्पेनिश गिटार :-

ध्वनिक गिटार में जब ताँत के तार होते हैं और इसे 'स्ट्रोक' की मदद से बजाते हैं, तो इसे यूरोपीय देशों में से एक देश- "स्पेन", जहाँ इस वाद्य यंत्र को जीवन-विस्तार मिला है, के नाम के आधार पर इसे "स्पेनिश गिटार" कहते हैं। वैसे भी स्पेन देश की कला, संगीत, साहित्य और .. कहते हैं कि व्यंजन का भी इतिहास और लगभग वर्तमान भी काफ़ी स्वर्णिम हैं। 

(ब) हवाइयन गिटार :-

दूसरी तरफ "हवाइयन गिटार" में ताँत की जगह स्टील के तारों का प्रयोग होता है। इसको बजाने के लिए दाएँ हाथ की उँगलियों में पहने 'स्ट्राइकर' की मदद से इसके स्टील के तारों पर 'स्ट्रोक' देने के साथ-साथ बाएँ हाथ की तर्जनी, अनामिका और अँगूठे की मदद से एक ठोस 'स्टील बार' को तारों पर 'म्यूजिकल नोट्स' के अनुसार फिराया जाता है। यह स्पेनिस गिटार से आकार में बड़ा होता है और इसकी घुड़च (Bridge) भी अधिक ऊँची होती है। कहते हैं कि संयुक्त राज्य अमेरिका के पचास राज्यों में से एक राज्य "हवाई" की राजधानी होनोलूलू में इसके विशेष रूप से शुरूआती व्यवहार और प्रचार होने के कारण इसका नाम हवाइयन गिटार पड़ा है।

गिटार : मिलान और वर्तमान :-

यूँ तो किसी भी वाद्य यंत्र की तुलना किसी दूसरे वाद्य यंत्र से नहीं की जा सकती है। जैसे किसी भी जीवित मानव शरीर में उपस्थित विभिन्न तंत्रो की उपयोगिता को नकारा नहीं जा सकता, वैसे ही किसी भी वाद्य यंत्र को कम नहीं आँका जा सकता। सब का अपना-अपना महत्व है। प्रत्येक वाद्ययंत्र की अपनी वैयक्तिकता और मौलिकता होती है और कोई भी उपकरण दूसरे से श्रेष्ठ नहीं हो सकता। 

फिर भी किसी स्पेनिश गिटार की तुलना में हवाइयन गिटार की आवाज़, विशेषतौर से 'स्लर' (Slur) या 'टाई' (Tie) वाले 'म्यूजिकल नोट्स' के लिए उत्पन्न आवाज़, उसके तारों पर सरकते ठोस 'स्टील बार' के कारण ज्यादा ही प्रभावी होती है।

स्पेनिश गिटार मुख्य रूप से किसी गायक या स्वयं के गायन के साथ या फिर संगीत 'आर्केस्ट्रा' में प्रयोग किया जाता है, जबकि हवाइयन गिटार एक आत्मनिर्भर वाद्ययंत्र है क्योंकि इसे एकल रूप से बजाया जा सकता है।

दुर्भाग्यवश हवाइयन गिटार वर्तमान में स्पेनिश गिटार की तुलना में प्रचलन या प्रयोग में कम ही दिख पाता है। हवाइयन गिटार लगभग लुप्तप्राय वाली परिस्थिति का सामना कर रहा प्रतीत होता है। वास्तव में आज तो आलम ये है कि कई बड़े-बड़े शहरों में भी "स्पेनिश गिटार" सिखाने वाले दर्जनों प्रशिक्षण केन्द्र और प्रशिक्षक मिल जाते हैं, परन्तु अथक प्रयास के बाद भी "हवाइयन गिटार" सिखाने वाले एक भी प्रशिक्षण केन्द्र या प्रशिक्षक अमूमन नहीं ही मिल पाते हैं। 

और तो और .. जैसा कि हम सभी जानते हैं कि बच्चों, युवाओं को ही नहीं बल्कि वयस्क स्त्री-पुरुषों को भी फ़िल्में और तमाम विज्ञापनें उनकी अभिरुचि के अनुरूप प्रभावित करते हैं .. आंशिक या पूर्णरूपेण। कई दफ़ा तो दर्शकों की अभिरुचि में ही परिवर्तन ला देने वाली इन फ़िल्मों और चंद मिनटों वाले विज्ञापनों का भी प्रभाव कम असरकारक नहीं होता है .. शायद ...

आए दिन फिल्मों या विज्ञापनों में भी जब 'मल्टीप्लेक्स' या 'टी वी' के 'स्क्रीन' पर बहुत ही अदा के साथ स्पेनिश गिटार बजाते हुए गीत गाकर नायक द्वारा नायिका यानि अपनी प्रेमिका को रिझाने वाली प्रक्रिया की आज की युवा पीढ़ी तन्मयता के साथ अवलोकन करती है, तो प्रेरित होकर उनका रुझान क्षणिक या कभी-कभी तो स्थायी रूप में भी स्पेनिश गिटार की ओर हो जाता है। स्वाभाविक तौर पर ऐसा हवाइयन गिटार के साथ नहीं हो पाता है .. बस यूँ ही ...

मूल विषय

गुमनाम गाँगुली बनाम वादन की गायकी :-

अब ऐसी परिस्तिथि में हम में से अधिकांशतः, ख़ासकर जिनको संगीत में ख़ास रूचि नहीं है या फिर नयी पीढ़ी को भी तो निश्चित ही वर्तमान में उन गुमनाम हो चुके गाँगुली जी की जानकारी कैसे हो सकती है भला ? .. जो  "हवाइयन 'इलेक्ट्रिक' गिटार" के एक प्रसिद्ध व लोकप्रिय वादक रहे हैं और धरती से विदा होने के पूर्व कई सारी अभूतपूर्व उपलब्धियाँ अपने नाम कर गए हैं। 

सही मायने में अगर उनके लिए यह कहा जाए कि वह "एको अहं, द्वितीयो नास्ति, न भूतो न भविष्यति।" को चरितार्थ करने के एक प्रतिमान रहे हैं, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी .. शायद ...

दुर्भाग्यवश आज 'गूगल' पर औरों की तरह बहुत ज्यादा उनकी जानकारी भी उपलब्ध नहीं है और ना ही 'यूट्यूब' पर उनका कोई 'लाइव वीडियो' उपलब्ध है। परन्तु हमलोगों ने बचपन से लेकर इक्कीसवीं सदी के प्रारम्भ होने तक वो दौर भी देखा है, जब किसी भी "संभ्रांत समाज" के किसी भी शुभ-सांस्कृतिक आयोजन के अवसर पर इनके द्वारा उस हवाइयन 'इलेक्ट्रिक' गिटार विशेष से किए गए "वादन की गायकी" से सराबोर हुए काले रंग वाले तत्कालीन तवानुमा 'रिकॉर्ड' किसी 'रिकॉर्ड प्लेयर' पर या उत्तरोत्तर काल में फीतानुमा 'कैसेटस्' किसी 'टेप रिकॉर्डर' में बजे बिना, बिना चीनी की चाय जैसा फीका लगता था वह आयोजन। ठीक वैसे ही जैसे किसी भी शादी या धार्मिक अनुष्ठान के मौके पर "उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ" साहब की "शहनाई" वाले 'रिकॉर्ड' या 'कैसेटस्' बजे बिना वो बेनूर लगते थे तब .. शायद ...

ध्वनि प्रदूषण नियमावली और डेसीबल :-

यहाँ यह स्पष्ट करना लाज़िमी है कि उपरोक्त कहे/लिखे गये "संभ्रांत समाज" से मेरा तात्पर्य किसी अमीर समाज से कतई नहीं है, बल्कि वैसे समाज से है, जो तब किसी निजी आयोजन या अनुष्ठान में सार्वजनिक तौर पर बड़े-बड़े चोंगों वाले "लाउडस्पीकरों" की जगह छोटे-छोटे "साउंड बॉक्स" का इस्तेमाल करते थे, जिसकी आवाज़ तुलनात्मक रूप से कर्कश ना हो कर अपनी मधुर ध्वनि-तरंगों से आसपास के भी मानव तन-मन को क्षुब्ध करने के बजाय आनन्दित कर जाता था .. शायद ...

आज वर्षों से स्वदेश में बने क़ानून- "पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम" के तहत "ध्वनि प्रदूषण (विनियमन एवं नियंत्रण) नियमावली" की धज्जियाँ उड़ाते हुए उस कर्कश लाउडस्पीकरों के चोंगों की जगह बड़े-बड़े कानफोड़ू 'डी जे एम्पलीफायरों' ने ले लिया है। जिनसे ध्वनि प्रदूषण की तयशुदा क़ानूनी सीमा- "पैंतालीस डेसीबल" से भी अत्यधिक "डेसीबल" वाली आवाज़ निकलती है। 

सर्वविदित है कि जैसे वजन और तापमान मापने की इकाई क्रमशः ग्राम और डिग्री है, वैसे ही ध्वनि के स्तर या प्रबलता को मापने की इकाई को "डेसिबल" कहा जाता है। 

आज बड़े-बड़े कानफोड़ू 'डी जे एम्पलीफायरों' का प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा है, चाहे वो मौका किसी भी धर्म-सम्प्रदाय के लोगों के धार्मिक अनुष्ठान का हो, शादी-विवाह जैसे पारिवारिक-सामाजिक आयोजन का हो या फिर कोई राजनीतिक रैली या धार्मिक यात्रा का हो। 

फिर भी यह एक विडम्बना ही है कि हम सभी तथाकथित बुद्धिजीवी समाज के गणमान्य और प्रतिष्ठित नागरिक मूक-बधिर और सूर भी बने .. बापू के तीनों गणमान्य बन्दरों की तरह मूर्ति बने .. खड़े-खड़े "ध्वनि प्रदूषण (विनियमन एवं नियंत्रण) नियमावली" की धज्जियाँ उड़ते हुए भी अंजान तो बने ही रहते हैं। साथ ही यदाकदा इनमें शामिल भी रहते हैं।

और तो और .. 'सोशल मीडिया' या मंचों पर भी तो यही लोग अपनी शालीनता के साथ-साथ एक जिम्मेवार भारतीय नागरिक होने का छदम् प्रदर्शन करने में तनिक भी कोताही नहीं बरतते हैं .. शायद ...

परन्तु आज भी तब बेहतर महसूस होता है, जब वैसे "संभ्रांत समाज" में आयोजनों के मौके पर मधुर आवाज़ वाले 'साउंड बॉक्स' ही प्रायः बजते हुए हमें सुनने के लिए मिल जाते हैं .. शायद ...

वादन की गायकी :-

हालांकि बाँसुरी, माउथ ऑर्गन, सेक्सोफोन, हारमोनियम जैसे और भी कई सारे वाद्य यंत्रों से गाने की धुन तो बजायी जा सकती है या ये सारे किसी वाद्य वृंद के एक अंग हो सकते हैं, परन्तु केवल एक ही वाद्य यंत्र से एकल रूप में किसी गीत को बिना गाए ही स्पष्टता से प्रस्तुत करना ही "वादन की गायकी" कहलाती है। जिस "वादन की गायकी" वाली शैली का प्रचलन सबसे पहले अपने हवाइयन 'इलेक्ट्रिक' गिटार द्वारा आरम्भ करने वाले कलाकार थे - "सुनील गाँगुली" जी।

विस्तार में सुनील गाँगुली और उनकी उपलब्धियाँ :-

मूलतः त्रिपुरा में जन्में, पर बचपन से अभिभावक के साथ कलकत्ता (अब कोलकाता) में रहने और फिर कार्यक्षेत्र  होने के कारण ये बंगाल के वाद्यवादक कलाकार माने जाते रहे हैं। अपनी धन्य माँ की कोख़ के बाहर 1 जनवरी 1938 को परतंत्र भारत की धरती पर खुली हवा में साँस लेने से लेकर 12 जून 1999 को हवा में अंतिम साँस लेकर हवा में विलीन होने तक, स्वतन्त्र भारत में साठ के दशक से लेकर बीसवीं सदी के अंत तक गीत-संगीत जीने वाले जनमानस को अपनी "वादन की गायकी" से निरन्तर मुग्ध करते रहे थे .. शायद ...

रास्तों में आते-जाते, घर में काम करते हुए, चौक-चौराहों पर बजते हुए गीत-संगीतों को सुनना, उनमें से अपनी पसंद वाले पसंदीदा गीतों के मुखड़े भर को गुनगुना लेना, शादी-बारात के मौकों पर तथाकथित नागिन 'डांस' कर लेना एक अलग बात है और तन्मयता के साथ भाव-विभोर मन से गीत के मुखड़े के साथ-साथ हर अंतराओं को और संगीत में प्रयुक्त हरेक वाद्य यंत्रों के एक-एक धड़कन ('बीट') को महसूस करते हुए तरंगित होना, सिर से पाँव तक का थिरकाना, दोनों हाथों की हरेक उँगलियों को लयबद्ध हवा में लहराना या किसी आधार पर थपकाना एक अलग बात। 

उपरोक्त पहली अवस्था को ही "गाना सुनना" और दूसरी अवस्था को "गाना को जीना" कहना चाहिए .. शायद ... संगीत में प्रयुक्त हरेक वाद्य यंत्रों के एक-एक धड़कन ('बीट') को संगीत को जीने वाले ठीक-ठीक वैसे ही महसूस करते हैं, जैसे आलिंगनबद्ध प्रेमी-प्रेमिका की जोड़ी एक-दूसरे के हृदय-स्पन्दन की आवाज़ को और गीत-संगीत को केवल सुनने वाले मानो सामान्य हृदय-स्पन्दन की तरह महसूस कर पाते हैं, जो हर वक्त हमारे हृदय में होता तो है, पर हर पल महसूस नहीं होता .. शायद ...

फिर वही मेरी बतकही करते-करते विषय से भटक जाने वाली गंदी आदत .. क्षमा सहित .. फिर से सुनील गाँगुली जी .. वह अपनी "वादन की गायकी" वाली शैली के तहत तमाम "हिंदी फिल्मी गाने", चाहे लता मंगेशकर जी के दुर्लभ गाने हों या किशोर जी, मुकेश जी या फिर रफ़ी साहब के हों, तमाम "ग़ज़लें" - जगजीत सिंह , मेहदी हसन , गुलाम अली सभी की और श्यामल मित्रा, हेमन्त मुखर्जी के गाए "बंगाली फिल्मी गानों" के अलावा "रविन्द्र संगीत" (रवीन्द्रनाथ टैगोर की रचना), "नज़रुल गीति या नज़रुल संगीत" (कवि काज़ी नज़रुल इस्लाम की रचना) और "असमिया भाषा में बिहु गीतों" को "बजा / गा" कर लगभग चार-पाँच दशकों तक सभी संगीत-प्रेमियों को आह्लादित करते रहे। 

अपनी गत बतकही "इस अँधेरे से मैं डरता हूँ .. शायद ...  " की तरह हम पुनः अपनी बतकही का आशय दुहरा रहे हैं कि मानसिक रूप से विस्तृत सोचने वाले "बड़े और संभ्रांत" लोगों की किसी मौलिक आदिवासी समाज की तरह सोचें संकुचित नहीं होती, जो केवल अपने समाज में ही अपनी सभ्यता-संस्कृति, रहन-सहन और भाषा तक ही सीमित रह कर जीवन गुजार देते हैं। बल्कि वो तो इन संकुचित सोचों वाले जैसों से परे हर सभ्यता-संस्कृति, रहन-सहन और भाषाओं की क़द्र करना जानते हैं। उनकी अच्छी बातों को सहर्ष स्वीकार भी करते हैं। इस से उनकी अपनी संस्कृति और भी समृद्ध होती है, ना कि समाप्त .. शायद ...

सुनील गाँगुली जी ने एचएमवी इंडिया (अब सारेगामा इंडिया), कॉनकॉर्ड रिकॉर्ड्स और सागरिका कंपनी के 'बैनर' तले कई 'एल्बम' बनाए थे। शुरूआती दौर में "अखिल भारतीय युवा गिटार प्रतियोगिता" में भाग लेकर विजयी प्रतियोगी बने थे। तत्कालीन महानतम गायक व संगीतज्ञ उस्ताद बड़े गुलाम अली खान के सहयोग से आकाशवाणी ('ऑल इंडिया रेडियो') में प्रवेश पाकर इन्हें अपनी "वादन की गायकी" को देश भर में विस्तार देने का मौका मिला था। उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत के भी ज्ञाता होने के नाते उन्होंने 'इलेक्ट्रिक' हवाइयन गिटार पर शास्त्रीय राग पर आधारित धुनों और गतों को बजाने की भी एक अनूठी शैली विकसित की थी।

आकाशवाणी ('ऑल इंडिया रेडियो')-कलकत्ता और बॉम्बे (अब क्रमशः कोलकाता और मुम्बई) में, रेडियो सीलोन और दूरदर्शन के कई कार्यक्रमों में भी वह नियमित कलाकार रहे थे। समस्त भारत में उनके कई सार्वजनिक प्रदर्शन हुए थे, विशेषकर कलकत्ता, बॉम्बे, दिल्ली, लखनऊ, पटना, गुवाहाटी, अगरतला में। एक बार मुंबई में पूरी रात "वन-मैन शो' किए थे। 'आई आई टी', 'एन आई टी', क्षेत्रीय इंजीनियरिंग कॉलेजों जैसे उच्च शैक्षणिक संस्थानों में प्रायः होने वाले 'कॉलेज फेस्ट' में भी सफ़ल प्रदर्शन किए थे। उनके प्रदर्शन में किसी भी गायक-गायिका की तरह उनके साथ संगीतकारों का एक बड़ा समूह रहता था। रहता भी भला क्यों नहीं .. वह अपनी "वादन की गायकी" शैली में एक सफ़ल गायक / वादक तो थे ही ना .. और आज भी अपने 'इलेक्ट्रिक' हवाइयन गिटार से निकली "वादन की गायकी" वाली मधुर और मनमोहक आवाज़ की तरंगों पर तैरते हुए सुनील गाँगुली जी अमर हैं और रहेंगे भी .. बस यूँ ही ...

चलते-चलते .. आइए .. अंत में 'यूट्यूब' पर उपलब्ध उनकी कुछेक "वादन की गायकी" को सुनते हैं और उनकी प्रतिभा को नमन करते हैं .. बस यूँ ही ...



(उपरोक्त दोनों 'यूट्यूब' क्रमशः - @Sunil Ganguly, Guitarist. / @Saregama Bengali. के सौजन्य से।)


Saturday, August 26, 2023

इस अँधेरे से डरता हूँ मैं .. शायद ...

"ठंडा मतलब कोका कोला" - एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के 'कार्बोनेटेड' शीतल पेय जैसे उत्पाद के इस विज्ञापन की 'पंच लाइन' से देश का बच्चा-बच्चा वाकिफ़ है। आप भी हैं और हम भी .. शायद ...

हालांकि अगस्त, 2003 में ही "विज्ञान और पर्यावरण केंद्र" की निदेशक और प्रसिद्ध पर्यावरणविद् "सुनीता नारायण" ने इसके निर्माण सामग्री में उपस्थित रसायनों .. ख़ासकर कीटनाशक की गलत प्रतिशत मात्रा के आधार पर स्वास्थ्य की दृष्टिकोण से इसे एक हानिकारक शीतल पेय होने के कई सारे प्रमाण प्रस्तुत किए थे। इसके बावज़ूद अपने देश क्या समस्त विश्व भर में यह मीठा ज़हर लोगों को लोकप्रिय है। ये विडंबना है कि हमारी एक-तिहाई से भी ज्यादा जनसंख्या "सपना चौधरी" से तो वाकिफ़ है, पर सुनीता नारायण से या उनकी लाभप्रद बातों से पूर्णतः या आंशिक रूप से अनभिज्ञ हैं या फिर जान कर भी अंजान हैं .. शायद ...

ख़ैर ! .. अभी का विषय इस शीतल पेय के गुण-अवगुणों के विश्लेषण करने का नहीं है, बल्कि इसके बहुचर्चित  'पंच लाइन' वाले विज्ञापन के रचनाकार को जानने का है। यूँ तो यह भी सर्वविदित है कि इसके रचनाकार हैं- प्रसून जोशी .. जोकि एक प्रसिद्ध हिन्दी कवि, लेखक, पटकथा लेखक होने के साथ-साथ भारतीय सिनेमा के गीतकार भी हैं। एक अजीबोग़रीब विडंबना है, कि हम फ़िल्मी गीतकारों की रचना को साहित्यिक मानने में प्रायः कोताही बरतते हैं। वैसे तो वह एक अन्तर्राष्ट्रीय विज्ञापन कंपनी "मैकऐन इरिक्सन" के कार्यकारी अध्यक्ष के साथ-साथ भारत के "फ़िल्म सेंसर बोर्ड" के भी अध्यक्ष हैं। फ़िल्म- "तारे ज़मीन पर" के गाने -

"मैं कभी, बतलाता नहीं पर अँधेरे से डरता हूँ मैं माँ 

यूँ तो मैं, दिखलाता नहीं तेरी परवाह करता हूँ मैं माँ 

तुझे सब है पता, है न माँ तुझे सब है पता.. मेरी माँ" ~~~~

के लिए उन्हें "राष्ट्रीय पुरस्कार" भी मिल चुका है।

अब थोड़ी-सी चर्चा कर ली जाए एक सर्वविदित व्यक्तित्व की। दूरदर्शन के 'सीरियल'- "हमराही" की "देवकी भौजाई", फ़िल्म - "दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे" की "बुआ जी", फ़िल्म - "हम आपके है कौन" की "डॉ रज़िया" के साथ-साथ "हप्पू की उलटन पलटन" जैसी वर्तमान में भी प्रसारित होने वाली 'टी वी सीरियल' के मुख्य क़िरदार हप्पू सिंह के "अम्मा जी" को भला कौन नहीं जानता-पहचानता भला यहाँ .. जो यूँ हैं तो एक 'स्कूल टीचर'- हरी दत्त भट्ट जी की 'आर्गेनिक केमेस्ट्री' में परास्नातक बेटी, परन्तु अपनी विधा के पारंगत और फ़िल्म- 'बैंडिट क्वीन' में "फूल सिंह" के क़िरदार के अलावा "अंतहीन", "तू चोर मैं सिपाही", "अब आएगा मजा" और "बाबुल" जैसी फिल्मों के अभिनेता रहे- ज्ञान शिवपुरी जी से प्रेम विवाह करके वह तथाकथित भारतीय (अंध)परम्परा के तहत हिमानी भट्ट से हिमानी शिवपुरी बन गयीं। उनके जिस नाम से ही आज हम सभी अवगत हैं। हालांकि आज वह विधवा हैं और आज भी वह बिंदास हास्य अभिनय कर रहीं हैं अनवरत, अथक।

अब संक्षेप में बात कर लेते हैं .. केरल कैडर से एक 'आईपीएस' की जो 'इंटेलिजेंस ब्यूरो' के 'चीफ' के पद से 'रिटायर' होने के बाद वर्तमान में अपने स्वदेश के सर्वविदित पाँचवे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हैं - अजित कुमार डोभाल जी की।

प्रसून जोशी, हिमानी शिवपुरी जी और अजित कुमार डोभाल जी ..तीनों के तीनों अपने अलग-अलग कार्यक्षेत्रों में माहिर हैं, प्रसिद्ध हैं .. पर तीनों में एक समानता है .. कि .. तीनों के तीनों ही उत्तराखण्ड (वे अपने-अपने जन्म के समय तत्कालीन उत्तरप्रदेश) राज्य के रहने वाले हैं। अजित कुमार डोभाल जी उत्तराखण्ड के गढ़वाल क्षेत्र के पौड़ी गढ़वाल से, हिमानी भट्ट उर्फ़ हिमानी  शिवपुरी जी वर्तमान राजधानी देहरादून से और प्रसून जोशी जी यहाँ के कुमाऊँ क्षेत्र के अलमोड़ा जिला से हैं।

अब आज तीनों की चर्चा एक साथ करने का मेरा उद्देश्य केवल यह बतलाना है, कि आज तीनों को पूरा देश जानता है। जानता है, ये तो आपको भी मालूम है। हमको भी मालूम है। पर यह बतकही उनलोगो के लिए है, जो क्षेत्रवादिता में मदान्ध अपनी नयी पीढ़ी को अपनी भाषा, अपनी संस्कृति बचाने की आड़ लेकर धीमी गति के विष दे रहे हैं। ऐसे में इनकी भाषा, संस्कृति जीवित रहेगी या नहीं पर नयी पीढ़ी की मानसिक बढ़त जरूर थम जायेगी .. मर-सी जायेगी .. शायद ...

जब कभी भी प्रसून जोशी लिखते हैं -

"मैं कभी, बतलाता नहीं पर अँधेरे से डरता हूँ मैं माँ 

यूँ तो मैं, दिखलाता नहीं तेरी परवाह करता हूँ मैं माँ 

तुझे सब है पता, है न माँ तुझे सब है पता.. मेरी माँ" ~~~~

तो वह पूरे भारत की माँ के लिए लिखते हैं .. भारत की हर माँ को सम्बोधित करते हैं। हिमानी शिवपुरी जी पूरे भारत की देवकी भौजाई प्रतीत होती हैं .. और अपने उत्कृष्ट  अभिनय से समस्त भारत का मनोरंजन करती हैं .. और जब अजित कुमार डोभाल जी स्वदेश की रक्षा के लिए कोई भी रणनीति तैयार करते हैं तो पूरे भारत के लिए, नाकि केवल उत्तराखण्ड के लिए। 

उपरोक्त सारी बतकही का लब्बोलुआब ये है कि प्रसून जोशी कुछ भी लिखते हैं तो पूरे भारत के लिए, हिमानी शिवपुरी जी कोई भी अभिनय करती हैं तो समस्त भारतवासी के मनोरंजन के लिए और अजित कुमार डोभाल जी रक्षा की बात सोचते हैं तो सम्पूर्ण भारत की सोचते हैं। तभी तो समस्त भारत ही क्या समस्त विश्व में भी लोग उनके नाम से वाकिफ़ हैं और इन क्षेत्रवादियों को सम्पूर्ण उत्तराखण्ड की वादियों में भी हर कोई नहीं जानता .. शायद ...

ये लोग कभी भी मदान्ध हो होकर केवल गढ़वाली, कुमाऊँनी, जौनसारी बोलने से ही अपनी संस्कृति बचने की बात नहीं करते या बाहरी राज्य वालों को 'एलियन' की तरह नहीं देखते या फिर नयी 'डोमिसाइल' योजना की बात नहीं करते .. "बड़ा" सोचते हैं .. विस्तृत सोचते हैं .. तभी "बड़े" (अमीर वाले बड़े नहीं) हैं .. क्षेत्रवादिता की संकुचित विचारधारा वालों को एक बार इस देव की नगरी- देवनगरी यानि चारों धाम को समाहित किये हुए शिव की नगरी वाले पावन राज्य में तथाकथित शिव की उपासना में पंडित नरेन्द्र शर्मा जी द्वारा रचित शिव भजन के मुखड़े "सत्यम् शिवम् सुन्दरम् ~~~" के साथ-साथ इसके अंतराओं -  

(१)

राम अवध में,काशी में शिव,

कान्हा वृन्दावन में,

दया करो प्रभु, देखूँ इनको,

हर घर के आँगन में,

राधा मोहन शरणम्,

सत्यम् शिवम् सुन्दरम् ~~~

                  और

(२)

एक सूर्य है, एक गगन है,

एक ही धरती माता,

दया करो प्रभु, एक बने सब,

सबका एक से नाता,

राधा मोहन शरणम्,

सत्यम् शिवम् सुन्दरम् ~~~

पर भी ध्यान केन्द्रित करके हमें पुनः अपने चिन्तन-मनन को विस्तार देना चाहिए .. शिव की जटा वाली उस गंगा की तरह जो बिना भेद किए विस्तार से सभी जाति-वर्ग और धर्म-सम्प्रदाय वालों के लिए कई राज्यों से होते हुए सदियों से अनवरत, अथक, निरन्तर, निःस्वार्थ बही जा रहीं हैं .. और शिव के जटा वाले उस चाँद की तरह जो बिना भेद किए ..  हम हरेक समस्त धरतीवासी को अपनी चाँदनी की शीतलता वर्षों से बिना भेद किए प्रदान किये जा रहा है .. शायद ...

हम सभी पूरी पृथ्वी के लिए धरती माता सम्बोधन व्यवहार में लाते हैं .. शायद केवल मौखिक रूप से .. वर्ना हम विदेशियों की तो बात छोड़ ही दें बंधु ! .. हम तो इतर राज्यों वालों के समक्ष स्वयं को "पहाड़ी" मान कर, सोच कर, बोल कर इतराते नहीं और सामने वाले से कतराते नहीं .. शायद ... वैसे तो यहाँ अन्य राज्यों की तरह आपस में भी भेद ही भेद हैं। उत्तरप्रदेश और हिमाचल प्रदेश के साथ-साथ सर्वाधिक तथाकथित ब्राह्मणों वाले राज्यों में अकेले उत्तराखण्ड में लगभग पचहत्तर किस्म के ब्राह्मण हैं। इनके अलावा अन्य जातियाँ-सम्प्रदाय के लोग जो हैं , सो तो हैं ही। 

उपरोक्त सारी बतकही उन सभी राज्यों या स्थानों के लिए भी अक्षरशः सत्य हैं, जहाँ-जहाँ इस तरह का भेदभाव किया जाता है .. शायद ...

ख़ैर ! .. जाने भी दिजिए लोगों को .. लोग तो अपनी डफली - अपना राग के आदी हैं। हम भला क्यों राग-संगीत का मौका जाने दें अपने हाथों से .. जीवन भला है ही कितने दिन की .. है ना ? .. तो आइए .. सुनते हैं पहले प्रसून जोशी की रचना को, जिसे फ़िल्म- "तारे ज़मीन पर" के लिए संगीत से सजाया है शंकर-एहसान-लॉय की तिकड़ी ने और आवाज़ दी है इसी तिकड़ी में से एक स्वयं- शंकर महादेवन ने। साथ ही सुनते हैं ... पंडित नरेन्द्र शर्मा जी की रचना को जिसे फ़िल्म - "सत्यम् शिवम् सुन्दरम्" के लिए संगीतबद्ध किया था- लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल जी की जोड़ी ने और आवाज़ से सजाया था- लता जी ने .. बस यूँ ही ...



( Both Videos Courtesy - @T-Series & @Music World respectively. )


Friday, August 25, 2023

बाप की तारीफ़ में कंजूसी काहे ...

चंद्रयान के 'लैंडिंग' के वक्त चाँद पर

'रोवर' की रफ़्तार कम करने जैसी, 

आरम्भ हुई थी जो मुहीम कम करने की

आपातकाल के साल में, जनसंख्या अपनी,

ज़बरन कुँवारों तक की तब करवायी गयी थी नसबंदी,

"बीरू " के मना करने पर भी नकियाती "बसंती"

नाच रही थी गब्बर के आगे तब ता-ता थैया-ता-ता थैया,

नज़रबन्द 'मीडिया', रहबर सारे, जब देश डूब रियो थो, 

तब "बर्मन दा" के सपूत "शोले" में गा रियो थो भाया-

"दिल डूबा ~~ ओ महबूबा ~~ ऐ महबूबा ~~~"।

पर आज वर्षों बाद भी छिद्रान्वेषण में लीन, 

"लगे रहो मुन्ना भाई" की तरह तल्लीन,

कर ही डाले मिलकर सारे अब तक बढ़ोतरी तिगुनी,  

चौगुनी तक करने की भी है कोशिश जारी,

पड़ोसी से है होड़ लगी जो, उससे भी है ऊपर जानी भाया।


मची है अब अफ़रा-तफ़री ,

अब सूझ रही इनको बेरोजगारी,

ठहरा कर दोषी सरकार को 

बेरोजगारी की चिल्ल-पों मचाने वालों,

हल तो हो इसको भी एक तगड़ो-सो भाया।

है जब घर में एक-दो ही दाई-नौकर की आवश्यकता,

फिर भी अपने घर दस-बीस क्यों नहीं रख रियो हो भाया,

बेरोजगारी की समस्या भी हल हो जावेगी

और काम भी वो तेरे सारे, वे सारे मिल के निपटावेंगे

और खाली समय में तुम सब मिलकर 

चौगुनी-पाँचगुनी वृद्धि में .. क्या कर रियो हो भाया ? 

चंद्रयान के 'लैंडिंग' के वक्त चाँद पर 'रोवर' की 

रफ़्तार जैसी, रफ़्तार धीमी क्यों नहीं कर रियो हो भाया ?


शहर चाहिए 'सिटी-मेट्रो' जैसी, सड़कें भी चिकनी-चौड़ी,

पर पेड़ काटे जाने पर क्यों तेरो दम घुट रियो हो भाया ?

'गैजेटस्' चाहिए तुमको तो विज्ञान की तरक्की से पनपी

सारी की सारी, फिर चिन्ता भला तुम क्यों पर्यावरण की 

'सोशल मीडिया' में झूठ-मूठ चिपका रियो हो भाया ?

शराबों-सिगरेटों से कैंसर होने के भय वाले सारे

विज्ञापनों के ही क्या भाया, देश के भी तो ख़र्चे सारे

'एक्साइज ड्यूटी' से इनके ही निकल रियो है भाया।

इन्हीं हानिकारक बतलाने वाले सरकारी विज्ञापनों जैसी

अरे .. हाल तुम्हारो तो हो रियो है भाया।


मौसम की मार से जो हुआ टमाटर महँगा,

हे छिद्रान्वेषण में स्नातकधारियों !!! ...

सरकार इसके लिए भी कोई 'कोल्डस्टोरेज' या फिर

'फैक्ट्री' देवे कोई खोल, ऐसा क्या सोच रियो हो भाया ?

अपने-अपने छत पर 'किचेन गार्डेन' में भला 

टमाटर क्यों नहीं उगा रियो हो भाया ?

गैस की तरह इसकी भी 'सब्सिडी' ख़ोज रियो हो भाया ?


घरवाली ने जो बनायी हो स्वादिष्ट तसमई या बिरयानी,

ऐसे में प्रशंसा तो उसकी करनी ही है बनती, पर ...

अगर पति जो सोच रियो हो हाड़तोड़ मेहनत को अपनी,

जिससे तेल, मसाले, बासमती चावल, दूध, शक्कर,

पकने और खाने के सारे बर्त्तन और 'गैस सिलेंडर',

रसोईघर तक तसमई या बिरयानी पकने को सब थो आयो,

इस योगदान की ख़ातिर भी जो पति को मिल रही प्रशंसा,

तो हे छिद्रान्वेषण में स्नातकधारियों !!! ...

ये अब नागवार तुम्हें क्यों गुजर रियो है भाया ?

किसान जो उपजाओ तसमई या बिरयानी के चावल 

उसे भी हक़ है अपनों छप्पन इंच सीनो फुलानो को भाया

नहीं क्या ? क्या बोल रियो हो, क्या सोच रियो हो भाया ?


अब अगर जो बेटा 'आईआईटीयन' या ...

'आईएएस-आईपीएस' बन गयो हो भाया,

उसकी तारीफ़ तो होनो ही चाहो हो भाया,

पर बाप की बेटे को पढ़ाने वाली वर्षों की योजना,

बेटे की पढ़ाई में ख़र्च कियो गयो बाप को रुपया,

ये सब भी तो हक़दार हैं बाप की तारीफ़ को भाया।

तो हे छिद्रान्वेषण में स्नातकधारियों !!! ... बेटे के साथ 

बाप की तारीफ़ में कंजूसी काहे कर रियो हो भाया ?


सब "अंधभक्त" दिख रहे तुमको, पर तुम तो अपनी

आँखों से टीन को चश्मो क्यों नहीं उतार रहो हो भाया ?

पता है, गा तो सकते नहीं, गुनगुना भर ही तो लो अब,

अपने " गोपालदास (सक्सेना) 'नीरज' " जी को भाया,

" चश्मा उतारो, फिर देखो यारों,

   दुनिया नयी है, चेहरा पुराना, कहता है जोकर   ..."

सोच रियो है भाया इस लेखन के क्षेत्र में भी जो होतो,

जाति के नाम पर मुस्टंडों को भी आरक्षण जैसी भिक्षा, 

तो लेखन की क्या दुर्गति हो गयो होतो भाया ?

तो हे छिद्रान्वेषण में स्नातकधारियों !!! ... 

मैं सोच रिया हूँ, कुछ तुम भी क्यों ना सोच रियो हो भाया ? .. बस यूँ ही ...

【चलते-चलते आइए अपने मन के कसैलेपन को दूर करने की ख़ातिर सुनते हैं " गोपालदास (सक्सेना) 'नीरज' " जी की अमर रचना को शंकर-जयकिशन जी के संगीत की चाशनी में डूबी मुकेश जी की सुरीली आवाज़ में .. बस यूँ ही ... 】



(Video Courtesy - @musictotheinfinity)


Thursday, August 24, 2023

पुंश्चली .. (७) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

पुंश्चली .. (१)पुंश्चली .. (२), पुंश्चली .. (३)पुंश्चली .. (४ ) , पुंश्चली .. (५ ) और पुंश्चली .. (६) के बाद अपने कथनानुसार आज एक सप्ताह बाद पुनः वृहष्पतिवार को प्रस्तुत है आपके समक्ष  पुंश्चली .. (७) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) .. बस यूँ ही ... :-

गतांक से आगे तो आज मन्टू की शादी ना करने की अटल ज़िद्द की वज़ह और एक पन्तुआ के कारण रंजन व अंजलि की हुई पहचान वाली बतकही करने की बात हुई थी अपनी। 

पर अभी-अभी इसी मुहल्ले में रहने वाले वक़ील साहब रोज की तरह सुबह-सुबह की चाय पीने अपने नियत समय पर रसिकवा की चाय की दुकान के सामने रखे बेंच पर .. बस विराजमान होने ही आ रहे हैं। मन्टू और रंजन-अंजलि की तो बीती बातें फिर बाद में भी होती रहेंगी। फ़िलहाल वक़ील साहब और उनकी 'टीम' की गतिविधियों पर नज़र रखना ज्यादा जरूरी है .. शायद ...

यहाँ पहले से ही उनका पेशकार उनकी प्रतीक्षा में उनके दो मुवक्किलों के साथ आधे घन्टे पहले से बैठा हुआ है। दरअसल आज ही इन दोनों मुवक्किलों के 'केस' की तारीख़ है। इन वक़ील साहब की पुरानी आदत है, 'कोर्ट' में पड़ी तारीख़ के दिन न्यायालय परिसर तक जाने के पहले सुबह कम से कम आधे से एक घन्टे तक के लिए अपने मुवक्किलों को इसी मुहल्ले वाली रसिक चाय दुकान पर बुला कर उनसे मिलना। मिलने के समय की अवधि आधे से लेकर एक घन्टे तक के बीच प्रायः मुवक्किलों के 'केस' के वजन पर निर्भर करता है। मिल कर उनके 'केस' से सम्बन्धित जरूरी दाँव-पेंच उनको बतलाने के साथ-साथ उनसे मिले आवश्यक कागज़ातों की गहनता से उनके सामने ही जाँच-पड़ताल भी कर लेते हैं। 

कई दफ़ा तो रसिकवा के कोयले वाले चूल्हे से राख़ लेकर उनके पेशकार को कुछ कागज़ातों पर मलते-रगड़ते भी देखा जाता है। उस कागज़ को तोड़-मरोड़ कर बदशक्ल करते भी देखा गया है। वक़ील साहब की अनुपस्थिति में उनके उसी पेशकार से कभी-कभी इसकी जानकारी लेने पर वह बतलाता है कि 'कोर्ट' में बहस के दौरान 'केस' जीतने के पक्ष में दलील देते हुए सबूत के तौर पर कुछ पुराने इकरारनामे या कोई प्रमाण पत्र जज साहब के सामने पेश करने पड़ते हैं, जो कि पहले से होता ही नहीं है। इसे तो वक़ील साहब के तिकड़मी दिमाग़ के बदौलत आनन-फ़ानन में तैयार करवा के पुराने होने के दावे भर किये जाने के लिए इतने पापड़ बेलने पड़ते हैं। .. शायद ...

हम इंसानों के समाज में भी तो मूल मन और सोच को परिष्कृत करने की बजाए ठीक इसी तरह ही तन को 'ब्रांडेड' परिधानों से लिपटाए, कृत्रिम रासायनिक सौंदर्य प्रसाधनों को चुपड़े और ऊपरी सज्जनता वाली भाव-भंगिमाओं के वैशाखी के सहारे .. इसी तरह हम सभी अपनी-अपनी तिकड़मी चाल के मुताबिक अपने-अपने बनावटी शरीफ़ चेहरों का सार्वजनिक प्रदर्शन करते नज़र आते हैं अक़्सर .. शायद ...

वक़ील साहब के विशाल पुश्तैनी मकान में पिता जी के देहांत के बाद हुए बँटवारे के बाद भी उनके बरामदे और बैठकखाने में तो इतनी जगह है, कि वह अपने पेशकार और मुवक्किलों को वहीं घर पर बुलाने के बाद सुबह बैठा कर चाय भी पिला सकते हैं और 'केस' से सम्बन्धित बातचीत भी कर सकते हैं। पर ऐसा नहीं करने का एक वजह तो उनकी अंदरुनी समस्या है और दूसरी लाभ-हानि के जोड़-घटाव की है .. शायद ...

उनकी अंदरुनी समस्या .. मतलब .. दरअसल वक़ील साहब की धर्मपत्नी बहुत ही ज्यादा जाति-धर्म के नाम पर छुआछूत की भावना मन में किसी लोहे के तवे की पेंदी में जमे कालेपन की तरह जमा कर रखने वाली हैं। जबकि उनके घर की दाल-रोटी में हर जाति-धर्म के मुवक्किलों के पैसों का योगदान तो होता ही है। फिर भी उनकी नज़र में किसी का धर्म बहुत ही बुरा है, तो किसी की जाति घर में बिठाने लायक नहीं है। घर के बर्तनों में ऐसे लोगों को चाय-पानी कराना तो उनके यहाँ कोई सोच ही नहीं सकता है कभी भी।

दूसरी तरफ रसिक की दुकान में चाय पीने से घर पर बनने वाली चाय में घर की चाय पत्ती, दूध, चीनी के अलावा जूठे बर्तनों को साफ़ करने में लगने वाले 'डिटर्जेंट' साबुन में होने वाले ख़र्चे की बचत हो जाती है और .. उल्टा एक-दो बार या उससे भी ज्यादा बार सभी द्वारा पी गयी रसिकवा की चाय की क़ीमत बेचारे मुवक्किलों को ही भरनी पड़ती है। प्रायः खैनी खाने वाले मुवक्किल से पेशकार का काम चल जाता है और जो कोई सिगरेट ना भी पीने वाला हो, तो भी वक़ील साहब को तो अपने जेब से खरीद कर पिलाना ही पड़ता है हर रोज तारीख़ पड़ने पर।

अभी-अभी वक़ील साहब के आते ही रसिकवा का लगभग बारह वर्षीय एकलौता 'स्टाफ'- कलुआ कुल्हड़ में सभी के लिए चाय लेकर हाज़िर हो गया है। एक मुवक्किल पहले से उनके लिए लाए 'विल्स फ़िल्टर' सिगरेट का एक डब्बा और एक माचिस उनको पकड़ा रहा है। पर वक़ील साहब माचिस अपने जेब के हवाले करते हुए अपने दूसरे जेब से किसी मुवक्किल द्वारा भेंट में दी गयी एक विदेशी 'लाइटर' निकाल कर सिगरेट सुलगा रहे हैं। चाय की चुस्की और सिगरेट के कश के दम पर ही वक़ील साहब के दिमाग़ का घोड़ा 'केस' के टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर सरपट दौड़ पाता है .. शायद ...

आज के आए हुए दो मुवक्किलों में से एक- माखन पासवान है, जिस के बाइस वर्षीय गूँगे बेटे- मंगड़ा पर लगे गाँव के ही धनेसर कुम्हार की सोलह साल की बेटी सुगिया के साथ बलात्कार करने के आरोप में पिछले छः महीने से चल रहे 'केस' की सुनवाई है। दूसरा- असग़र अंसारी है जो अपने अब्बू की पहली पत्नी यानि अपनी सौतेली अम्मी से जने अपने दबंग बड़े सौतेले भाई से अब्बू के घर में अपने हिस्से के लिए एक साल से 'केस' लड़ रहा है।

वक़ील साहब के सिगरेट की लम्बाई जैसे-जैसे धुएँ में उड़ कर और राख़ की शक़्ल में झड़ कर घट रही है, माखन पासवान के अपने बेटे की 'केस' जीतने की उम्मीद उसी अनुपात में बढ़ती जा रही है। पर उस बेचारे को क्या मालूम कि वकील लोग कई बार जानबूझकर ऐसी गलती करते हैं, कि कमजोर और ग़रीब मुवक्किल केस हार जाए और इसके बदले में दबंग और अमीर विरोधी पक्ष से उन्हें मोटी रक़म डकारने का मौका मिल जाए। लगभग संवेदनशून्य ही होते हैं अक़्सर ये काले कोट और ख़ाकी वर्दी वाले .. शायद ...

माखन पासवान - " सरकार हम्मर (हमारा) मंगड़ा छुट जायी (जाएगा) ना ? उ (वह) निर्दोष है साहिब .. अब अपने के (आपको) का (क्या) बताऊ (बताएँ) ? "

वक़ील साहब - " बताना तो सब पड़ेगा ही ना माखन ! वैसे चिन्ता मत करो .. छुट जाएगा तुम्हारा बेटा "

माखन पासवान - " सब रुपइया (रुपया) तो खतम (ख़त्म) हो गया सरकार .. मंगड़ा के माए (माँ) के (की) नाक के (की) छुच्छी (लौंग) तक बेच दिए हैं सरकार .. झोपड़ी और झोपड़ी भर जमीन भी सरपंच साहेब के आदमी के पास गिरवी है सरकार .. गिरवी ना रहता तो उ (वो) भी बेच देते मालिक अप्पन (अपने) मंगड़ा के लिए "

वक़ील साहब - " घबराओ नहीं .. सब ठीक हो जाएगा .."

मंगड़ा .. एकलौता बेटा है माखन का .. उसके और उसकी मेहरारू के बुढ़ापे की लाठी समान .. गूँगा भले ही है, पर मालिक लोगों के खेतों में काम कर के कमायी तो कर लाता था। भला घबराएगा क्यों नहीं ! ...

सुगिया के बलात्कार के दिन तो मंगड़ा मलेरिया बुखार से घर में बेसुध पड़ा हुआ था पिछले एक सप्ताह से। अगले दिन उसी हालत में पुलिस उसको झोपड़ी से ज़बरन ले जाकर थाने के हाजत में बन्द कर दी थी। पीछे-पीछे माखन और उसकी मेहरारू रोते-चिल्लाते थाना के 'गेट' तक गये थे। अंदर जाने की ना तो उनकी हिम्मत थी और ना ही थाने के खाक़ीधारी साहिब लोगों की इजाज़त। हाँ .. उसी समय सरपंच और उनका बेटा वहाँ जरूर अपने 'बोलेरो' से अपने आठ-दस चेला-चटिया के साथ थाना के अंदर पधारे थे। लगभग आधा घन्टा तक अंदर रहे थे। 

क्या पता अंदर सिपाही-दारोग़ा मंगड़ा को पीट भी रहे होंगे तो वो बेचारा गूँगा चिल्ला भी तो ना सकेगा। ऐसा सोच-सोच कर माखन और उसकी मेहरारू का मन भीतर ही भीतर कटी हुई गड़ई-माँगुर मछली की तरह छटपटा के रह गया था। वो दिन याद करके माखन की धँसी आँखें छलछला आयी है, जिसे अपनी मटमैली धोती के कोर से सोखने का वह असफल प्रयास कर रहा है। 

अब तक दो बार रसिकवा की कुल्हड़ वाली चाय पी लेने के बाद माखन और असगर दोनों वक़ील साहब और पेशकार की ओर ताक रहे हैं .. मानो पूछ रहे हों कि अभी और भी चाय-सिगरेट लेंगे वक़ील साहब या अब तक के पैसे भुगतान कर दें दोनों मिलकर। 

दोनों को इस बात का जवाब वक़ील साहब के ये कहने से मिल गया कि - " ठीक हैं असगर .. अब निकलो तुम दोनों .. तुमलोग समय से अपने-अपने 'कोर्ट' पहुँच जाना .. पेशकार साहब समय से मिल जायेंगे वहाँ और हम भी। जैसा बतलाए हैं उतना ही बोलना है। ख़ासकर असगर तुमको कह रहे हैं। मंगड़ा के लिए तो कोई लफ़ड़ा ही नहीं है। गूँगा है तो जो कहना है हम कहेंगे और ना तो माखन .. चाहे उसका गवाह बोलेगा ..."

इतना कह कर वक़ील साहब और उनका पेशकार अपने-अपने घर की ओर बढ़ चले हैं। असगर और माखन आपस में मिलकर रसिकवा को पैसे की भुगतान आधा-आधा कर रहे हैं।

तभी कलुआ को सामने से इसी मुहल्ले में ही किराए के मकान में रहने वाले 'ड्यूटी' पर जा रहे सिपाही जी की फटफटिया आती सुनायी और दिखायी भी देती है। उनकी 'एज़डी मोटरसाइकिल' से भड-भड निकलने वाली तेज आवाज़ के कारण ही कलुआ और साथ में सारा मुहल्ला ही इसे फटफटिया कहता है। कलुआ अचानक सजग हो जाता है और मन ही मन मुहल्ला के "बुढ़वा हनुमान" जी से मनता मानता है कि अगर आज सिपाही जी के सामने उससे कोई भूल ना हुई तो बमबम हलवाई के दुकान से लेकर सवा रुपए का मकुदाना (इलायची दाना) चढ़ाएगा ; वर्ना उसको सिपाही जी से भोरे-भोरे माय-बहिन (माँ-बहन) वाली भद्दी-भद्दी गाली सुननी पड़ जाएगी और .. सारा दिन उदास मन लिए बेजान लाश की तरह बना काम करता रहना पड़ेगा। 

रसिकवा के दुकान की चाय .. वो भी मलाई के साथ और एक सिगरेट भी .. माचिस के साथ .. ये किसी मन्दिर के तथाकथित देवी-देवता को नियमित दोनों शाम चढ़ने वाले चढ़ावे की तरह ही सिपाही जी को सुबह-शाम चढ़ाना पड़ता है रसिकवा को .. 'ड्यूटी' जाते समय भी और 'ड्यूटी' से लौटने पर भी। जिसका रोज दोनों शाम चश्मदीद गवाह बनता है बेचारा बारह वर्षीय कलुआ। इसके अलावा आपको पहले भी बतला चुके हैं कि यहाँ फ़ुटपाथ पर दुकान लगाने के बदले में रसिकवा को हर सप्ताह इन्हीं सिपाही जी के जेब तक कुछ नीले-पीले रंगों में रंगे सदैव मुस्कुराते रहने वाले एक खादीधारी विशेष को सुलाना होता है। 

सिपाही जी को अपनी फटफटिया से उतर कर बेंच तक बैठने आने के पहले ही वक़ील साहब के जूठे कुल्हड़ और बेंच पर गिरे सिगरेट की राख़ को कलुआ तेजी से साफ़ कर रहा है। पास आते ही  सिपाही जी को अपने दोनों हाथों को जोड़ कर "जै (जय) राम जी की सिपाही जी" बोलते हुए अभी उनके लिए बनने वाली 'स्पेशल' चाय के पहले उनके वास्ते उनकी पसन्द के 'ब्रांड' का एक 'गोल्डफ्लैक फ़िल्टर' सिगरेट और माचिस लाने के लिए जा रहा है।

पास में ही कूड़ेदानों में से रोज-रोज अपने मतलब के चीजों को छाँटते हुए अपनी पीठ पर लदी बोरियों में भर कर कबाड़ी के पास बेचने से मिले कुछ रुपयों से अपना पेट पालने वाली- फुलवा .. थोड़ा सुस्ताने के ख्याल से अपने ब्लाऊज में रखे बीड़ी के बंडल से एक बीड़ी और माचिस निकाल कर बीड़ी सुलगाने जा रही है।  

अब तक कलुआ द्वारा मिले सिगरेट-माचिस का सदुपयोग सिपाही जी भी करना शुरू कर दिए हैं। ऐसे में आसपास की हवा में फुलवा की बीड़ी का धुआँ और सिपाही जी के सिगरेट का धुआँ आपस में बिंदास मिलकर उच्च-नीच के भेद को मिटाने का काम कर रहा है। वैसे भी अगर आरक्षण ना रहे समाज में तो उच्च और नीच वाली भावनाओं के पनपने की सम्भावनाएँ कुछ तो कम हो ही सकती है .. शायद ... जिसकी सम्भावना है ही नहीं अपने हाथों में तो फ़िलहाल .. बस यूँ ही ...

ख़ैर ! .. फिलहाल तो .. फ़िलहाल की बात करें कि .. उपरोक्त दृष्टान्तों में, जो कई चौक-चौराहों पर आम है, अपने देश के किन-किन कानूनों की धज्जियाँ उड़ने का भान हमें हो पाया है .. या नहीं हो पाया है ? अगर हो पाया है, तो क्या एक जिम्मेवार बुद्धिजीवी नागरिक होने के कारण हमने कोई सकारात्मक क़दम उठाए हैं ? .. फ़िलहाल हम स्वयं से ही हर सवाल करें भी और स्वयं को ही जवाब देने का भी काम करते हैं हम सभी .. बस यूँ ही ...

【 अब शेष बतकहियाँ ... आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (८) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】



Wednesday, August 23, 2023

वांछा की विसर्पी लताएँ ...

जीवन-डगर के 

एक अर्थहीन 

मोड़ पर किसी,

मिल जाना 

अंजाना 

किसी का कभी,

बस यूँ ही ...

चंद पल,

चंद बातें,

चंद मंद-मंद 

मुस्कुराहटें,

चंद स्पंदन की 

अनसुनी आहटें,

पनपा जाती हैं

क्षणांश में

हौले से

एक कोमल 

अर्थपूर्ण अंकुरण

अंजाना अपनापन का

मन में,

पनपने के लिए,

चंद सम्भावनाएँ लिए

भावनाओं की 

आरोही लताएँ,

वांछा की 

विसर्पी लताएँ,

भरसक .. 

बरबस .. 

तत्पर ...

लिपट जाने के लिए

अपने सुकुमार

लता-तंतु के सहारे

अथक ..

अनायास ..

अनवरत ...

सोचों के ठूँठ पर .. बस यूँ ही ...





Monday, August 21, 2023

हे भगवान !!! ...

" बेटे के साथ दोस्त बन कर रहो। बाप बनने की कोशिश मत करो। बाप तो तुम हो ही। " - ये संवाद अभी हाल ही में 'रिलीज़' हुई 'सेंसर बोर्ड' से मिली 'ए सर्टिफिकेट' वाली 'फ़िल्म' - "ओ एम् जी 2" (ओह माय गॉड 2) का है, जो कि पुरानी फ़िल्म "ओह माय गॉड" की 'सीक्वल' है। बेटे के संदर्भ में बोले गये यही संवाद बेटी के लिए भी उतना ही उचित है। बस .. दोस्त की जगह सहेली बनने की जरूरत है, पिता को भी .. माँ को भी। यह संवाद किसी भी अभिभावक के लिए एक मूलमंत्र है या यूँ कहें कि .. सफल अभिभावक होने की पहली शर्त्त है। साथ ही कट्टर अभिभावकों के सुधरने के लिए एक उचित सीख भी है .. शायद ...

"ओह माय गॉड" .. जिसका शाब्दिक अर्थ यूँ तो होता है - "हे भगवान !" या "हाय भगवान !" .. किन्तु गूगल द्वारा विशेषार्थ भी बतलाया गया है .. "अरे बाप रे !" .. स्वाभाविक भी लगता है कि हम सामान्य परिस्थितियों में कितनी भी विदेशी भाषा झाड़ लें .. पर विपदा में मुँह से अनायास "अरे बाप रे !" या "अरे मईया रे !" ही प्रायः निकलता है। यूँ तो 'आउच' बोलने वाली की भी जनसंख्या कम नहीं है जी ! .. शायद ...

अभी हाल ही में मेरे आईआईटीयन बेटे ( आईआईटीयन बोलने में गर्व महसूस होता है, है ना ? ) द्वारा देखे जाने के बाद इस 'फ़िल्म' की प्रसंसा करते हुए देख लेने की सलाह मिलने के बाद कल रविवार की छुट्टी के मौके पर इसे देख पाया .. बस यूँ ही ...

अभी एक या दो दिन पहले ही एक 'न्यूज़ चैनल' पर हालिया 'रिलीज़' तीन फिल्मों की 'बॉक्स ऑफिस' पर रुपया बटोरने के आधार पर समीक्षा की जा रही थी, जिसके अनुसार हालिया 'रिलीज़' फिल्मों - "ग़दर 2", "जेलर" और "ओ एम् जी 2" - तीनों में सबसे ज्यादा कमाई करने वाली 'फ़िल्म' - "ग़दर 2" है और सबसे कम कमाई वाली - "ओ एम् जी 2"। इसकी वज़ह तो 'फ़िल्म' देखने के बाद समझ में आयी।

दरअसल हमारा तथाकथित समाज अपने द्वारा तथाकथित सभ्य-सुसंस्कृत समाज की तयशुदा सही या गलत रुपरेखा में किसी भी तरह का उचित या अनुचित हस्तक्षेप सहज स्वीकार नहीं कर पाता है .. शायद ...

अब जिस समाज के पास मध्यप्रदेश के छतरपुर में पत्थर के बने सैकड़ों साल पहले के विश्वविख्यात "खजुराहो मंदिर" के अलावा, बिहार के हाजीपुर में लकड़ी के बने मिनी खजुराहो और उत्तरप्रदेश के वाराणसी अवस्थित नेपाली मंदिर के साथ-साथ नेपाल में भी खजुराहो सदृश मंदिर हैं, जिनकी दीवारें रतिक्रीड़ाओं की विभिन्न भावभंगिमाओं वाली मूर्त्तियों से श्रृंगारित की गयीं हैं। इनके अलावा सैकड़ों साल पहले ही रची गयी अनुपम रचना - "कोकशास्त्र" की थाती है, जिसके आधार पर विकसित कहे जाने वाले पश्चिमी देशों में भी 'रिसर्च' किये जाते रहे हैं। और तो और .. जिस यौन क्रिया द्वारा किसी भी प्राणी का सृजन होता है, उसे ही हमारा तथाकथित सभ्य-सुसंस्कृत बुद्धिजीवी समाज निषिद्ध साबित करने में आमादा दिखता है। ऐसे में हमारा ये समाज उस डॉक्टर की तरह प्रतीत होता है, जो अपने 'केबिन' में धूम्रपान करते हुए किसी कैंसर के मरीज़ को सिगरेट ना पीने की सलाह दे रहा होता है .. शायद ...

वैसे भी हमारा हमेशा ये यक्ष प्रश्न रहा है तथाकथित समाज से कि जिन क्रियाओं द्वारा किसी भी प्राणी का सृजन होता है, उन के विषय पर खुल कर बात करना निषिद्ध कैसे हो सकता है भला ? .. वो "गन्दी बातें" भी कैसे हो सकती हैं भला ? ख़ैर ! .. इन खुले विचारों वाला अभिभावकता तो हमें नसीब नहीं हो पाया था, पर हमें आत्मसंतोष है इस बात का कि हम स्वयं ऐसा .. हर विषय पर खुल कर बातें करने वाला अभिभावक बन सके .. बस यूँ ही ...

सहस्त्रों वर्ष पूर्व हमारे पुरखों द्वारा हमारी दिनचर्या की तय वैज्ञानिक और न्यायोचित सटीक पद्धतियाँ कई सारे प्रदूषित संस्कारों वाले बाहरी आक्रमणकारियों और दमनकारियों की कूटनीति के कारण उनका अपभ्रंश स्वरूप भर ही आज हमारे इस समाज का आदर्श बना हुआ है, जिसे हम अपनी गर्दन अकड़ाते हुए ढो रहे हैं .. शायद ...

इस 'फ़िल्म' में सभी बड़ों को ये नसीहत दी गयी है कि हमें बच्चों और युवाओं के साथ यौन शिक्षा पर खुल कर बात करनी चाहिए। ताकि वो सारे अपने बालपन से युवावस्था के बीच की पगडंडी सुगमता से नाप सकें। ना कि इस ज्ञान की कमी में उन्हें अपनी तमाम स्वाभाविक उत्सुकता को शान्त करने के लिए गलत और अनुचित लोगों के सम्पर्क में आकर स्वयं का और .. स्वाभाविक है उनसे जुड़ा हम अभिभावकों का भी सारा सुनहरा सपना चकनाचूर हो जाए .. सारा का सारा भविष्य मटियामेट हो जाए। वैसे भी एक समझदार अभिभावक अपने बच्चों के साथ उनकी बढ़ती उम्र के क्रमानुसार, वह उन सब घटनाओं की चर्चा करता है, जिससे वह अपनी आयु की उस अवस्था में दो-चार हुआ होता है और उसके फलस्वरूप होने वाले तमाम लाभों या होने वाली हानियों से रूबरू हुआ होता है .. शायद ...

उन्हीं घटनाओं में से एक है .. हस्तमैथुन .. जिसके संदर्भ में हमारे सभ्य समाज में समाज के तमाम हम जैसे सभ्य लोगों की स्थिति अपने 'केबिन' में धूम्रपान करने वाले उसी डॉक्टर की तरह है .. शायद ...

कई दिनों से ऋतुस्राव यानि मासिकधर्म पर समाज-परिवार में खुल कर बात करने और इस प्राकृतिक प्रक्रिया को कुंठा की श्रेणी से निकाल बाहर करने का समर्थन करते हुए, हस्तमैथुन जैसी प्राकृतिक प्रक्रिया के विषय पर भी चर्चा करने की इच्छा केवल सभ्य समाज के सभ्य जनों के मन खट्टा हो जाने के भय से सशंकित और दमित हुआ पड़ा था मन के किसी अँधेरे कोने में। परन्तु इस 'फ़िल्म' से उस दमित इच्छा को सहज़ मार्गदर्शन करती हुई रोशनी मिली और अभी हम इस विषय पर निःसंकोच लिखने की हिम्मत कर पा रहे हैं .. बस यूँ ही ...

अंत में प्रसंगवश .. "रोटी" 'फ़िल्म' के लिए लिखी गयी आनंद बक्षी जी की दर्शनशास्त्र से सराबोर एक रचना की चर्चा करने की हिमाक़त कर रहे हैं, जिसका मुखड़ा है -

"यार हमारी बात सुनो, ऐसा इक इंसान चुनो ~~~

जिसने पाप ना किया हो, जो पापी ना हो" ~~~

और उसी का एक अंतरा है जो अंतर्मन को उद्वेलित कर जाता है - 

"इस पापन को आज सजा देंगे, मिलकर हम सारे

लेकिन जो पापी न हो, वो पहला पत्थर मारे ~~~

हो ~~~ पहले अपने मन साफ़ करो रे ~~~

फिर औरों का इंसाफ करो" ~~~

इसका आशय यही है कि इस बतकही को अनर्गल कह कर सिरे से नकारने के पहले एक बार हम अपने अतीत के 'एल्बम' के पन्नों को .. भले ही अकेले में .. पर एक बार टटोलने का कष्ट जरूर करें कि हम भले ही आदी हों या ना हों .. पर .. उम्र के किसी ना किसी पड़ाव पर .. कभी ना कभी .. किया भी है या ... सच में नहीं किया है कभी भी .. हस्तमैथुन ? ...

फ़िलहाल .. आइए सुनते हैं आनंद बक्षी की रचना को ... लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के संगीत के साथ किशोर कुमार जी की आवाज़ में .. बस यूँ ही ...