Saturday, August 17, 2019

इंसान वाली तस्वीर

बेटा !  सुन लो ना जरा ! ...
मरणोपरांत तस्वीर मेरी टाँगना मत
कभी भी बैठक की किसी ऊँची दीवार पर
मालूम ही है ना तुमको कि.....
ऊँचाइयों से डरता रहा हूँ मैं ताउम्र
पाँव काँपने लगते है अब भी अक़्सर
बहुमंजिली इमारतों से नीचे झाँकने पर
डरा जाते हैं वीडियो भी तो जिनमें होते हैं
ऊँचाइयों पर किए गए करतब कई ...

मत जकड़वाना तस्वीर मेरी किसी भी
चौखटे में कभी चाहे हो वो चौखटा
कितना भी क़ीमती ... क्योंकि बंधन तो
नकारता ही रहा हूँ जन्म भर मैं ... है ना !?
चाहे हो समाज की कुरीतियों का या
फिर अंधपरम्पराओं का बेतुका-सा बंधन
ताबीज़ के बंधन हो या फिर हो चाहे
कोई मौली धागा के आस्था का बंधन
या फिर मुखौटों वाले रिश्तों के बंधन ...

एल्बम में भी मत क़ैद करना तस्वीर मेरी
पता ही है तुमको कि खुले क़ुदरती वातावरण
सदा लुभाते हैं हमको हर सुबह-शाम, हर पल
और हाँ ... पहनाने के लिए  तस्वीर पर मेरी
घायल फूलों की माला की तो
सोचना भी ना तुम और ना ही किसी क़ीमती
कृत्रिम फूलों की माला के लिए तुम ...

जीते जी तो बना सका ना कभी
हिन्दू या मुसलमां के भेदभाव से परे
अपनी केवन इंसान वाली तस्वीर
पर...मरणोपरांत पर बस बना देना
मेरा देहदान कर मृत शरीर का
समाज में बस एक इंसान वाली तस्वीर
हाँ ....एक इंसान वाली तस्वीर .....
बेटा !  सुन लो ना जरा !...


गन्दे पापा !


अनूप अभी सुबह के कुछ घरेलू रोजमर्रा के सामानों मसलन - हरी सब्ज़ियाँ, फल, पाँच वर्षीया बिटिया मिताली के लिए 'डेरी- मिल्क',  सात साल पहले सात फेरे लगा कर लायी गई धर्मपत्नी आम्रपाली के लिए पसंदीदा डाभ-पानी, उसी के लिए कुछ पूजन-सामग्री आदि - की खरीदारी कर बाज़ार से आकर अपनी सेकंड-हैंड खरीदी हुई स्कूटी घर के आगे स्टैंड पर खड़ी कर ही रहे थे कि मिताली अंदर से अपनी मम्मी का पकड़ा हुआ पल्लू छोड़कर आई और अपने पापा की दोनों टाँगों को अपनी दोनों छोटी-छोटी बाँहों के घेरे में घेरने की कोशिश करते हुए ठुनक कर बोली - "पापा! आप बले (बड़े) गन्दे हैं।"
अनूप यानि मिताली के पापा - "वो क्यों भला !? बोलो तो जरा !!"
मिताली - "आप ना तो मुजे (मुझे) प्याल (प्यार) कलते (करते) हैं ... ना ही मम्मी को।"
अनूप - "अले-अले (अरे-अरे) ऐसा क्यों  लगा आपको भला!?" फिर हँसते हुए आम्रपाली की ओर मुख़ातिब होते हुए -  "अम्मू! सुना अपनी बिट्टू रानी का इल्ज़ाम!?"
आम्रपाली सब कुछ सुन ही रही थी। वह बीच में मुस्कुराते हुए टपक अपनी बेटी से - "पापा हमदोनों को प्यार नहीं करते ये कैसे पता चला तुमको"
मिताली - "पलोच (पड़ोस) वाले चीन्हा (सिन्हा) अंकल .... मोनी दीदी के पापा हैं ना ... वो अपनी काल (कार) के पीछे नंबल (नंबर)-प्लेट पल (पर) मोनी दीदी का नाम लिखवाया हुआ है औल (और) जानती हो मम्मी !! ... मैंने देखा है कि अंकल अपने पल्छ (पर्स) में आंटी और मोनी दी' (दीदी) दोनों का एक 'पिक' (तस्वीर) भी रखते हैं।"
फिर पापा की ओर मुँह करके - "आप तो ये सब कुच (कुछ) भी नहीं कलते (करते).... गन्दे पापा.... गंदू !"
अब तक घर के अंदर आकर मोढ़े पर बैठ कर अनूप थैले से बाज़ार से लाये गए सारे सामान निकाल रहे थे सामने फर्श पर। मिताली चौके में अनूप के लिए 'ग्रीन टी' बनाते हुए पापा-बेटी की बातें सुन कर मुस्कुरा रही थी।
मिताली - "औल (और) पता है मम्मी .... अंकल के मोबाइल में भी आंटी के साथ सोनी दी' वाली 'पिक' का ही 'डीपी' है। कल आंटी के मोबाइल से सोनी दी' अपनी मम्मी के फेसबुक पर पोस्ट किए अपने जन्मदिन की ढेल (ढेर) साली  (सारी) फोटो दिखा रही थी और .... अंकल-आंटी के मैलेज (मैरिज) -एनिभछलि (एनिवर्सरी) के पोस्ट किए फोटो भी ... अब बोलो !! ... पापा गंदू हैं ना मम्मी!?"
अनूप और मिताली दोनों एक दूसरे की आँखों में आँखें डाले मुस्कुरा रहे थे।
"हाँ ... भई ... हम बले बाले (बड़े वाले) गन्दे पापा हैं।"...




Friday, August 16, 2019

यार ! ... गैस सिलेंडर यार !!

यार! गैस सिलेंडर यार !!
तू इंसान तो नहीं पर
देता है सबक़ इंसानों से
बेहतर और बेशुमार ....

सबक़ पहली -
आग भी जलाते हो तुम
घर-घर के चूल्हे की तो ...
कई पेटों की आग बुझाने के लिए
काश! लगा पाता मैं भी
तुम्हारी तरह आग हर मन में
चहुँओर फैली भ्रष्टाचार को
जड़ से मिटाने के लिए...

सबक़ दूसरी -
रंग कर रंग एक ही में
सब के घर चले जाते हो तुम
कभी देखा नहीं तुम्हें कि
सोची भी हो तुमने
कभी भगवे या कभी हरे रंग में
रंग जाने के लिए ...

सबक़ तीसरी -
दरअसल मानता नहीं मैं तो
पर  ... भला ये समाज ..!???
समाज हीं तय करती है ना ... कि
मंदिरों के गढ़े पत्थरों में
पंडालों में ... रात भर चलने वाले
जागरण के ध्वनिप्रदूषणों में
अपने भगवान हैं और ...
ये तथाकथित हमारा समाज
यानि गोरेपन की क्रीम वाला
हो विज्ञापन जैसे ... हाँ ... वही...
जिसने तय कर ही दिया ना कि
गोरापन हीं है मापदंड सफलता की
और काली-सांवली हैं सारी की सारी
बेचारी ... असफल ... बेकार ...
मानना पड़ता है ना ... यार !!!

इसी समाज के तय किये गए
तथाकथित अछूतों और
स्वर्णजनों का अंतर ...
और उसी अंतर को तुम
बारहा ठेंगा हो दिखाते
जाति, धर्म, सम्प्रदाय की
खोखली दीवार हो ढहाते
सभी भेदभाव के अंतर को मिटाते
जब एक के चौके से निकल कर
दूसरे के चौके में घुस जाते हो
बिंदास बिना भेद किये
जा-जा कर घर-घर ... बार-बार ...

यार! गैस सिलेंडर यार !!
तू इंसान तो नहीं पर
देता है सबक़ इंसानों से
बेहतर और बेशुमार ....
यार! गैस सिलेंडर यार !!...



Thursday, August 15, 2019

मैं घाटा से बच गई ! - ( एक लघुकथा - रक्षाबंधन के बहाने )....

किसी एक रक्षाबन्धन वाले दिन की एक रात फ़ोन ... स्वाभाविक है मोबाइल ... पर दो बहनों की ... शादीशुदा बहनों ... की वार्तालाप का एक अंश ...

वाणी - " शेफ़ाली ! पुट्टू भईया को राखी बाँध कर लौट कर घर आ गई क्या !? "
शेफ़ाली - " नहीं दी' (दीदी) अभी रास्ते में ही हैं। भाभी के ज़िद्द के कारण रात का भी खाना खा कर लौटना पड़ा। "
वाणी - " अकेली हो !? "
शेफ़ाली - " नहीं तो, इनके साथ ही हैं। छठा महीना चल रहा है ना ! ऐसे में ये अकेला नहीं छोड़ते हमको। पब्लिक ट्रांसपोर्ट नहीं लेने देते। इस चक्कर में आज इनके बिज़नेस का काफी नुक्सान भी हुआ , पर  ... फिर भी खुद से कार ड्राइव करके ले गए और अभी साथ ही लौट रहे। "
वाणी - " तुमको तो पता ही है कि मैं ... तुम्हारे जीजा जी के सीवियर वायरल फीवर के कारण नहीं आ सकी। बहुत अफ़सोस हो रहा । साल में एक बार तो आता है ना ये त्योहार। पता नहीं ... अगले साल कौन रहे, कौन ना रहे, है कि नहीं !? "
शेफ़ाली - " धत् दी' आप भी ना ... मरे आपके दुश्मन ... अच्छा हुआ आप नहीं गईं ..."
वाणी - " ऐसा क्यों बोल रही है रे ...क्या हुआ !? कुछ हुआ है क्या !?? "
शेफ़ाली - " और नहीं तो क्या .. होना क्या है दी !? अब इतनी मँहगाई में  ... जोड़ो ना ... एक सौ बीस रुपए की राखी, साढ़े चार सौ में आधा किलो काजू की बर्फ़ी ... वो भी शुगर फ्री वाली .. अक्षत्, रोली साथ में ... भाभी के लिए सावन के नाम पर चूड़ी- बिंदी अलग से ... इसका भी  डेढ़, पौने दो सौ पकड़ ही लो ... फिर 'इनकी' दिन भर की दुकानदारी का नुक़सान ... साठ किलोमीटर जाना और साठ किलोमीटर आना ... उसका 'तेल' जला सो अलग ..अब जोड़ लो 'टोटल' खर्चा ...
वाणी - " हाँ .. वो तो है ...  पर ये सब छोड़, ये सब तो होता ही है इतना-इतना खर्चा रे । पहले ये तो बतला कि  पुट्टू भईया ने दिया क्या राखी के बदले में ... आयँ ...!?"
शेफ़ाली - " वही तो रोना है दी' ... केवल पाँच सौ रूपये का नोट ... भाभी बोली ... कुछ भी अपने मन का ले लीजिएगा शेफ़ाली जी ... बड़का ना ... ले लीजिएगा (मुँह बिचकाते हुए)... !!!
एकदम मूड ऑफ हो गया दी' ... अच्छा हुआ आप नहीं गईं ..."
वाणी - " हाँ रे ! ठीक ही कह रही है तू ... अच्छा हुआ ये बीमार हो गए , इनके बहाने मैं घाटा से बच गई ...अच्छा काट फोन, अब 'ये' जाग गए हैं , बुला रहे... मैं जा रही ... सी यू ... टेक केअर "
शेफ़ाली - " सी यू .. दी ' ! कल सुबह और डिटेल में इनके मार्केट जाने के बाद बात करते हैं ... ठीक है ना !? ...टेक केअर दी' ... जाओ जीजू का ख्याल रखो ... हाँ ....".

Wednesday, August 14, 2019

क्या सच में पगला गया हूँ मैं !????????

स्वतंत्रता-दिवस पर हमने
ना बदली है अपनी डी. पी.
और ना ओजपूर्ण वीर रस की
कोई एक भी रचना है रची
ना ही कोई देशभक्ति भाषण
मंच पर चढ़ कर है चीख़ी
ना फहराया है झंडा और
ना ही गाया राष्ट्रगान ही
ना बाँटी हैं जलेबियां और
ना ख़ुद ही है खाई

यूँ तो कर के ये सब
जतला रहे है सभी
देखो ना जरा ! ये देशभक्ति
जैसे करा के सत्यनारायण की कथा
या लगा कर संगम में
कुम्भ वाली डुबकी
दिखलाते हैं अक़्सर भक्ति
और सुना है ...
पा लेते हैं शायद पाप से भी मुक्ति

पर पगला गया हूँ शायद मैं ...
कांके या आगरा या फिर है कहीं
उस से भी बड़ा है कोई पागलखाना
वहाँ ले जाया ना जाऊँ मैं अभी-अभी...
 लगता है पगला गया हूँ शायद मैं ...

क्यों नज़र आती है मुझको
जलेबी की गर्म टपकती चाशनी में
शहीदों के टपकते गर्म लहू ...
'उस रात' भटके शरणार्थियों के
भटकते लहूलुहान हुए छितराए वज़ूद
तुम ही जरा बतलाओ ना मुझको !...

क्यों राष्ट्रगान के 'जन गण मन' के आरोह से
'जय हे, जय हे' के अवरोह तक
सुनाई देती है मुझको बारम्बार
बस चीत्कार के आरोह-अवरोह
'उस रात' कटे स्तनों के ढेर से
आते तार से मध्य और मध्य से होते
मंद्र सप्तक चीखों के ही बारहा
साथ ही 'उस रात' रेंगती-खिंचती
सिसकती सूनसान रातों में
लोहे की पटरियों पर जेम्स वॉट की
भाप वाली इंजन की बेसुरी आवाज़
जो ढोती रही थी रात-रात भर
कराहती ज़िंदगियों और ...
स्तन कटे कई बेजान लाशों को भी
तुम ही जरा बतलाओ ना मुझको !...

कड़कदार कलफ़ वाली वर्दियों के परेडों में
ना जाने क्यों नज़र आती है वो 'उस रात' की
लम्बी सरकती कतारें डरी-सहमी-सी
सूखे लहू के कलफ़ वाले चिथड़ों में लिपटे
घायल बदन में बस सहमी साँसों को ढोते

झंडों को फहराने की ख़ातिर जब
मुख्य-अतिथि सरकाते हैं उस से बंधी रस्सी
तब मुझे  'उस रात' ज़बरन खोले गए
कई मजबूरों के सलवारों के नारे
क्यों भला याद आते हैं मुझको
और जब झंडे के फहरने के साथ-साथ
छितराती हैं नाज़ुक मरे फूलों की कोमल पंखुड़ियाँ
'उस रात'  बिखेरी गई कितनी मजबूरों की अस्मत
क्यों कर भला उन फूलों में झलक जाती हैं मुझको
तुम ही जरा बतलाओ ना मुझको !...

पर पगला गया हूँ शायद मैं ...
कांके या आगरा या फिर है कहीं
उस से भी बड़ा है कोई पागलखाना
वहाँ ले जाया ना जाऊँ मैं अभी-अभी...
लगता है पगला गया हूँ शायद मैं ...

तुम ही जरा बतलाओ ना मुझको !...
क्या सच में पगला गया हूँ मैं  !????????






Tuesday, August 13, 2019

चन्द पंक्तियाँ - (९ ) - बस यूँ ही ...

(1)**

शेख़ी बघारता दिनभर
किसी जेठ-सा सूरज
हो जाएगा जब ओट में
शाम के मटमैले चादर के

आएगी तब नववधू-सी रात
जुगनूओं के टाँके लगे
काले परिधानों में हौले-हौले
दिखेगी दूर सामने ओसारे में
चूती ओलती के झालर के पार
मदमाती , गुनगुनाती मदालसा-सी

झिंगूरों और मेढ़कों की
युगलबंदी के लय के साथ
और देने को साथ
उस रूमानी पल का
थिरकेंगे मचलते बच्चों-सी
हम-तुम सारी रात
सुबह जेठ सूरज के
कॉल-बेल बजाने तक ....

(2)**

सुनो ना !!!
एक शिकायत
आज सुबह-सुबह
शहद की शीशी की

कि ....
तुम्हारी एक जोड़ी
आँखों की पुतलियों ने
चुराए हैं उसके रंग
और शायद ... 
मिठास भी

तभी तो पलने वाले
आँखों में तुम्हारी
हर सपने भी होते हैं
शहद-से मीठे ...
अब बोलो ना जरा ...
उन से क्या कहें भला !!!?....


Sunday, August 11, 2019

चन्द पंक्तियाँ - (८) - बस यूँ ही ...

(1)*
अब तक "मन के डेटिंग" पर
मिली हो जब भी तुम तो ....
कृत्रिम रासायनिक
सौंदर्य- प्रसाधनों और सुगंधों की
परतों में लिपटी
किसी सौंदर्य-प्रसाधन की
विज्ञापन- बाला की तरह
चकपक करती परिधानों में

कभी एक बार तो मिलो
कृत्रिम रासायनिक
सौंदर्य- प्रसाधनों और सुगंधों की
परतों से परे
पसीने से लथपथ
किसी कला-फ़िल्म की
साधारण सांवली नायिका की तरह
धूल-धुसरित सफ़ेद साड़ी में

ताकि भर सकूँ
तुम्हारे स्व-स्वेद का सुगंध
अपनी साँसों की झोली में
और पा सकूँ
शत्-प्रतिशत स्पर्श तुम्हारा
ठीक सागर और नदी के
निश्चल स्पर्श की तरह ....

इस तरह ... कभी एक बार तो मिलो ....


(2)*
निःसंदेह रह जाते
शब्द "प्रातःकाल" अधूरे
'सुप्रभातम्' वाले
प्रातःकाल की तरह
मेरे हर दिन के


जो ना ये चुराते
अपने "बिसर्ग" की
दोनों बिन्दुओं को
तुम्हारे चेहरे के
दोनों तिल से

एक है जो तुम्हारी
ऊपरी होंठ पर
आती-जाती दोनों
साँसों के बीच
और दूसरा तुम्हारी
चंचल बायीं नयन और
नाक के बीच में ....




बस एक शर्त्त अपनी तुम हार जाओ ना !

बेटा !
शर्तें तो तुमने बचपन से ही अब तक है मुझसे सारी ही जीती ...
जिनमें कई शर्तें तो तुम सच में थे जीते और
कुछ शर्तों को जानबूझ कर था तुमसे मैं हारा
डगमगाते पैरों से जब तुम चलना सीख रहे थे तब
दौड़ने की शर्तें तुमसे मैं जानबूझ कर था हारता
केवल देखने की ख़ातिर चमक शर्त्त जीतने की 
मासूम चेहरे पर तुम्हारे
हर साल अपनी कक्षा में अव्वल आने की
तुम्हारी वो शर्तें सारी
साल-दर-साल अपने बलबूते तुमने ही जीता पर ...

बस ... आज एक शर्त मैं तुमसे जीतना हूँ चाहता
तुमने जो शर्त्त है लगाई कि 
"नाम के साथ जाति-धर्म सूचक उपनाम लगाना है ज़रूरी"
पर मेरा मानना है कि ये जरुरी है बिल्कुल नहीं
तुम कहते हो हमसे ये अक़्सर ...
"पापा ! जमाने में तो लगाते हैं सभी ना !? 
इतनी बड़ी दुनिया सारी तो मूर्ख नहीं ना !?"
क्योंकि कई परेशानियाँ तुमने है झेली
कई बार शिक्षकों ने तो कई-कई बार 
शिक्षण-संस्थानों के किरानियों ने 
चाहे वे प्रारम्भिक शिक्षा वाले थे
या फिर आई. आई. टी. का प्रांगण
कभी राह चलते अपरिचितों ने भी
केवल "शुभम्" नाम सुन कर मुँह है बिचकाया
ये बोल कर कि -" ये भी कोई पूरा नाम है क्या !?
ऐसा तो नाम नहीं है होता !!
कुछ तो उपनाम होगा धर्म-जाति सूचक !?"
पहली हवाई टिकट बनाते समय भी
नाम को लेकर आई थी परेशानी
पहली नौकरी वाली बहुराष्ट्रिय कम्पनी ने भी
था केवल "शुभम्" पर प्रश्न -चिन्ह लगाया
उपनाम को था अतिआवश्यक ठहराया
बारम्बार बात करके बात सुलझी थी
तुम्हारे इस समस्या को मंजिल मिली थी

बेटा !
हर बार जो दुनिया है कहती ..
जरुरी नहीं कि वह हो सही ही
सुकरात की जब तक साँस चली थी
तब तक तो ये पृथ्वी चिपटी ही रही थी
ज़हर पीने के वर्षों बाद पृथ्वी गोल हो गई
बचा नहीं पाये थे राजा राम अपनी भाभी को
जलती चिता के लौ पर जो जिन्दा जलती रहीं थी
पर आज कितनी भाभियाँ हैं महफ़ूज़ ये देख लो
फिर कैसा दुनिया से हार मानना
अपने लिए ना सही
अपनी अगली पीढ़ियों की ख़ातिर
कुछ सहना पड़े तो सह जाओ ना
बस एक शर्त्त तुम अपनी हार जाओ ना कि
"जाति-धर्म सूचक उपनाम जरूरी है हर नाम के साथ लगाना"

हाँ बेटा ! ...
अपनी भावी पीढ़ियों की ख़ातिर
तोड़ कर सारी अंधपरम्परायें
झेल कर कुछ परेशानियाँ
बस एक शर्त्त तुम अपनी हार जाओ ना ...
हाँ ... एक शर्त्त तुम अपनी हार जाओ ना ...