Saturday, September 14, 2019

"श्श्श्श् ....." अब ख़ामोश हो जाता हूँ ... वर्ना ...

ख़ामोश कर ही दिया जाता है बार-बार
चौक-चौराहों पर मिल समझदारों के साथ
"हल्ला बोल" का सूत्रधार
पर ख़ामोशी भी चुप कहाँ रहती है भला !?
अपने शब्दों में आज भी चीख़ती है यहाँ ... कि ...
"किताबें कुछ कहना चाहती हैं
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं"
पूछती है "सफ़दर हाशमी" की आत्मा कि
कब तक ख़ामोश मुर्दे बने जीते रहोगे भला !???
कब तक जीते रहोगे भला!? कब तक !??
बोलो ना ! ख़ामोश क्यों हो !?? बोलो ना जरा !!!

कोख़ हो ख़ामोश लाख मगर 
ख़ामोशी में एक सृष्टि किलकारी भरती है
अक़्सर चुप कराता है मसीहे को ज़माना मगर
उसकी ख़ामोशी तो बारहा चीख़ती है
अब हम ही हुए गूँगे और बहरे ... अपाहिज ...
उस गुम्बद के नीचे खड़े पत्थर की तरह जो
सदियों से भीड़ की आड़ में होने वाली
बलात्कार ... हत्याओं के बाद भी
कुछ बोलता नहीं है ... ख़ामोश खड़ा है ...
क्या ख़त्म हो गए कपड़े "द्रौपदी" के तन में ही सारे
या अगर था भी कभी वो सच में भी तो
आज हम मुर्दों-सा पड़ा है !??
बात यही छेड़ी थी ना तुमने ... ऐ मूढ़ प्राणी !
बस तुम्हारी सोचों को ज़हर के प्याली में डुबो कर
करा दिया गया था ना ख़ामोश तुम को ... पर ...
क्या फ़र्क पड़ता है एक "सुकरात" की ख़ामोशी से
आज भी आवाज़ उसकी "अफ़लातून" और "अरस्तू" में गूंजती है

पौ फटने से पहले बांग देने वाले मुर्गों को हम अक़्सर
हलाल कर देते हमारी नींद में ख़लल की वजह से
आसानी से कह देते हैं "निराला" और "उग्र" को
हम पागल और पृथ्वी की गोलाई को
गैलीलियो के कहने पर नकारते हैं
ख़ामोश पत्थर को पूजना ...
ख़ामोश मुर्दों-सा रहना ... ख़ामोशी का ओढ़े लबादा
सच कहाँ और कब हमें सुझता है !???
"श्श्श्श् ....." अब ख़ामोश हो जाता हूँ ... वर्ना ...
ओढ़ा दिया जाएगा ख़ामोशी का लबादा ...
हाँ .... मुझे भी ख़ामोशी का लबादा ....
ख़ामोशी का लबादा .....

Friday, September 13, 2019

'वेदर' हो 'क्लाउडी' और ...

'वेदर' हो 'क्लाउडी' और ...
सीताराम चच्चा का 'डाइनिंग टेबल' 'डिनर' के लिए
गर्मा-गर्म लिट्टी, चोखा और घी से ना हो सजी
भला हुआ है क्या ऐसा कभी !?
हाँ, ये बात अलग है कि ...
गाँव में होते तो ओसारे में उपलों पर सिंकते 
और यहाँ शहर में 'किचेन' में गैस वाले 'ओवन' पर हैं सिंझते
आज रात भी चच्चा का पहला कौर या निवाला
लिए लिट्टी, चोखा और घी का त्रिवेणी संगम
जब बचे-खुचे दाँतों से पीस, लार के साथ मुँह में घुला
तो मुँह से बरबस ही निकला - "वाह रामरती ! वाह !"

ख़त्म होते ही एक लिट्टी, दरवाज़े पर 'कॉलबेल' बजी ...
" ओ मेरी ज़ोहराजबीं, तुझे मालूम नहीं ... "
गैस का 'नॉब' उल्टा घुमा कर रामरती चच्ची दौड़ीं
उधर से रुखसाना भाभीजान का दिया हुआ
लिए हुए लौटीं एक तश्तरी में बादाम फिरनी
जो था क्रोशिए वाले रुमाल से ढका हुआ
अब भला कब थे मानने वाले ये 'डायबीटिक' चच्चा
अब एक लिट्टी भले ही कम खायेंगे
रात में 'इन्सुलिन' का थोड़ा 'डोज़' भले ही बढ़ाएंगे
पर मीठी बादाम फिरनी तो अपनी
धर्मपत्नी की मीठी झिड़की के बाद भी खायेंगे
अहा ! मीठी बादाम फिरनी और वो भी ...
हाथों से बना रुखसाना भाभीजान के
दूसरी लिट्टी भी गप के साथ गपागप खा गए चच्चा
दूसरी बार फिर से 'कॉल बेल' बजी ...
" ओ मेरी ज़ोहराजबीं, तुझे मालूम नहीं ... "
"रामरती ! अब देखो ना जरा ... अब कौन है रामरती !?"
अपने "ए. जी." की थाली में चोखा का परसन डाल
चच्ची दरवाजे तक फिर से दौड़ी
"लो अब ये गर्मागर्म केक आ गया
दे गया है पीटर अंकल का बेटा"
"अरे , अरे ये क्या हो रहा है रामरती , अहा, अहा !!!
अपने 'डिनर' का तो जायका बढ़ता ही जा रहा ..."

अब भला रामरती थीं कब चुप रहने वाली
बस ज्ञान बघारते हुए बोल पड़ीं - "ए. जी. ! देखिए ना !
डाइनिंग टेबल का ये गुलदस्ता
है ना कितना प्यारा
क्योंकि इनमें भी तो साथ है कई फूलों का
गुलाब, रजनीगंधा, कुछ सूरजमुखी और
साथ ही कुछ फ़र्न के पत्तों से सजा ... है ना !?"
"हाँ,सच में ! ठीक ही तो ...
कह रही हो मेरी प्यारी रामरती
आज हिन्दी-दिवस पर मेरी जगह तुम ही
भाषण देने गई क्यों नहीं !?"
"सचमुच ! माना कि हिन्दी वतन के माथे की बिंदी है ...
पर महावर और मेंहदी के बिना तो श्रृंगार अधूरी है,नहीं क्या !?
रामरती ! मेरी प्यारी रामरती !
सभी लोग ऐसा क्यों नहीं सोचते भला
बतलाओ ना जरा !!!"
"ओ मेरी ज़ोहराजबीं तुम्हें मालूम नहीं, तू अभी तक है हंसीं, और मैं जवां, तुझ पे क़ुर्बान, मेरी जान, मेरी जान... मेरी जान ..."



Thursday, September 12, 2019

"बेनिन" की तरह ...

"तंजानिया" के "ज़ांज़ीबार" में
मजबूर ग़ुलामों से कभी
सजने वाले बाज़ार
सजते हैं आज भी कई-कई बार
कई घरों के आँगनों में,
चौकाघरों में, बंद कमरों में,
बिस्तरों पर, दफ्तरों में ...

गुलामों को बांझ बनाने की तरह
बनाई जाती है बांझ बारहा
उनकी सोचों को, सपनों को,
चाहतों को, संवेदनाओं को,
शौकों को, उमंगों को ...

पर गाहे बगाहे इनमें से कई
अपने मन के झील में
बना कर अपनी भावनाओं का
एक प्यारा-सा घर अलग
बसा लेती हैं
यथार्थ के खरीदारों की
नज़रों से ओझल
एक सुरक्षित दुनिया
ठीक झील में बसे एक गाँव ...
उस अफ़्रीकी "बेनिन" की तरह ...
"वेनिस ऑफ़ अफ्रीका" की तरह ...