पसीने केवल मजदूरों के ही नहीं,
अय्याशों के भी यों बहा करते हैं।
हाथापाई ही तरबतर नहीं करती।
रूमानी पलों में भी हम भींगते हैं।
सताते तो हैं लकड़ी के चूल्हे मगर,
आधुनिक चौके भी कब छोड़ते हैं?
बहने का बस इन्हें बहाना चाहिए,
कसरतों से भी यों बह निकलते हैं।
सूख भी जाएं कड़ी धूप में सागर,
मजबूरों के पसीने नहीं सूखते हैं।
चाहे हो वातानुकूलित कमरा भी,
जुर्म धराए तो माथे से छलकते हैं।
भेदभाव ना जाति-धर्म में और ये
ना करते हैं अच्छे-बुरे में कभी भी।
पसीने पसीने होते हैं बलात्कारी,
बलात्कृत के भी पसीने छूटते हैं।
यूँ तो कई तरह के होते हैं पसीने,
आँसू-से खारे मजदूरों के पसीने,
प्रेमी-प्रेमिकाओं के गुलाब जल के
बोतलों-से यों ये शायद गमकते हैं।
अचानक सामना हो कभी मौत से,
या जो चोरी से प्रेमी बाँहों में भर ले;
झरोखों से झाँकती पटरानियों-से,
उत्सुक ये रोम छिद्रों से हुलकते हैं।
पसीना बहाता कभी कोई आदमी,
तो कोई ख़ून पसीना है एक करता,
पसीना पसीना हो जाता है आदमी,
एक अदद घर तभी चला करते हैं।
धर्मालयों में विराजमान विधाता से
माँग के सुखी जीवन की भीख भी;
यूँ तो ज़लज़लों, जिहादी धमाकों,
सुनामियों से हमारे पसीने छूटते हैं।
बच्चों की जननी माँ के भी तो ..
बहते हैं यूँ प्रसव पीड़ा में पसीने।
उधर किसी मय्यत की ख़ातिर,
क़ब्र खोदने वाले भी भींगते हैं।
अय्याशों के भी यों बहा करते हैं।
हाथापाई ही तरबतर नहीं करती,
रूमानी पलों में भी हम भींगते हैं।