प्रिया संग मानसिक संवाद ...
समय आया बुरा बिखराने के लिए शायद
संबंधों के सगे होने के सारे लगाए क़यास।
बिखरते हैं आँधियों में दुर्बल डालों के नीड़
मानो कर के बेकार पंछियों के सारे प्रयास।
कुछ संबंधों जैसे छूटे गंध औ स्वाद, तब भी
प्रिया संग जारी मानसिक संवाद, हो उदास।
बिस्तर भर सिमटा-फैला है जीवन-विस्तार,
डगमग-डगमग है सारा दिनचर्या विन्यास।
हर क्षण संविधान के अनुच्छेद चौदह वाले
समानता के अधिकार का टूट रहा विश्वास।
डाल से लटका आख़िरी पत्ता भी गिरा रहा,
वो झोंका बंजारा-आवारा हवा का बिंदास।
लाचार हैं हम, हुए असमर्थ संत्राण भी सारे
दूर करने में इन दिनों बींधते हुए ये संत्रास।
बन रहा आए दिन .. कभी कोई पड़ोसी या
कभी सगा भी महामारी कोरोना का ग्रास।