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Tuesday, April 30, 2024

मुताह के बहाने गुनाह ...

मुताह के बहाने गुनाह ... भाग-(१) :-

आज की बतकही की शुरुआत करने में ऊहापोह वाली स्थिति हो रही है .. ऐसे में इसका मूल सिरा किसे मानें .. ये तय कर पाना .. कुछ-कुछ ऊहापोह-सा हो रहा है, पर कहीं ना कहीं से तो शुरू करनी ही होगी .. तो फ़िलहाल अपनी बतकही शुरू करते हैं .. किसी भी एक सिरे से .. बस यूँ ही ...

प्रायः किसी के साथ बचपन में घटी घटनाओं या यूँ कहें कि दुर्घटनाओं से जुड़ी आपबीती उसे पूरी तरह से या तो तोड़ देती है या फिर फ़ौलादी इरादों वाला एक सफल इंसान बना देती है। तो फ़िलहाल हम .. कुछेक लोगों के बचपन की घटित दुर्घटनाओं से उनके सफल इंसान बनने की सकारात्मक बातें करने का प्रयास करते हैं, तो .. एक तरफ "तस्लीमा नसरीन" जैसी को उनकी कमसिन उम्र में दी गयी अपनों (?) की यौन शोषण वाली प्रताड़नाएँ "लज्जा" और "बेशरम" जैसी अनगिनत किताबें लिखवा देती हैं; तो दूसरी तरफ अफ़्रीकी मूल की अमरीकी महिला नागरिक "ओपरा विनफ़्रे" जैसी को पारिवारिक परिमिति में ही मिली जन्मजात पीड़ा की तपन विश्व की सबसे प्रभावकारी और बहुमुखी प्रतिभाशाली महिलाओं में से एक बना देती है तथा साथ ही उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार विश्व की पहली अश्वेत महिला अरबपति भी। तो कभी "सुज़ेना अरुंधति राय" जैसी से "द गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स" लिखवा डालती है और उस उपन्यास को बुकर पुरस्कार मिल जाता है।

यूँ तो प्रसिद्ध मनोविश्लेषक सिगमंड फ्रायड के अनुसार मनोलैंगिक विकास के सिद्धांत के अनुसार किसी भी इंसान के मनोलैंगिक विकास को पाँच अवस्थाओं में बाँटा गया है, जिसके तहत जन्म से पाँच वर्ष तक की उम्र को मानसिक या शारीरिक विकास के लिए सबसे महत्वपूर्ण चरण माना गया है। राष्ट्रीय सेवा योजना (एन एच ) के अनुसार भी बच्चों के मस्तिष्क का नब्बे प्रतिशत विकास उनके पाँचवें वर्ष से पहले तक होता है। यानी .. पाँच वर्षों तक किसी के बचपन के चित्रफलक पर जो भी घटित घटनाओं या दुर्घटनाओं के रेखाचित्र उकेरे जाते हैं, इंसान ताउम्र उन्हीं में अपने मनपसंद जीवन-रंगों को भर कर अपने भविष्य की रंगोली सजा पाता है .. शायद ...

मुताह के बहाने गुनाह ... भाग-(२) :-

आज जब बचपन से सम्बन्धित बातें चली ही है, तो इस बतकही के प्रसंगवश पचास और उसके बाद के दशकों के दौर में सामुदायिक स्तर पर बीते बचपन की बातें हमलोग आपस में बतिया ही लेते हैं। 

यूँ तो सर्वविदित है, कि बीसवीं सदी वाले पचास के दशक के उत्तरार्द्ध यानी सन् 1957 ईस्वी में .. जब शुरूआती दौर का "ऑल इंडिया रेडियो" बदल कर "आकाशवाणी" हो गया था; तब उससे प्रसारित होने वाले अधिकांशतः सामाजिक सरोकार वाले ज्ञानवर्द्धक कार्यक्रमों के साथ-साथ उसकी "विविध भारती" सेवा के माध्यम से अनेकों मनोरंजक कार्यक्रमों की भी शुरुआत हो गयी थी। मसलन - "इनसे मिलिए, संगीत सरिता, भूले बिसरे गीत, चित्रलोक, जयमाला, हवामहल, छायागीत" इत्यादि। लगभग पचास से सत्तर तक के दशक वाले प्रायः सभी बचपन व किशोरवय को लगभग इन सभी लोकप्रिय कार्यक्रमों के श्रोता बनने का अवसर प्राप्त हुआ था और आप भी शायद उनमें से एक हों .. है ना ? ..

अस्सी के दशक के पूर्वार्द्ध यानी सन् 1982 ईस्वी में दिल्ली में आयोजित अप्पू हाथी शुभंकर वाले "एशियाई खेल" के आरम्भ होने के पूर्व ही लगभग देश भर में श्वेत-श्याम दूरदर्शन की पैठ जमने के पहले तक .. देश के लगभग कोने-कोने के सभी वर्गों में रेडियो का या .. यूँ कहें कि आकाशवाणी का बोलबाला रहा है। आज की पीढ़ी के लिए प्रसून जोशी वाले "ठंडा मतलब कोका-कोला" की तर्ज़ पर हम कह सकते हैं, कि वो दौर था .. "रेडियो मतलब मर्फी" का .. शायद ...

आकाशवाणी की "विविध भारती" सेवा के उपरोक्त लोकप्रिय कार्यक्रमों में से एक- "भूले-बिसरे गीत" कार्यक्रम का आनन्द उस दौर के लोगों ने अवश्य ही लिया होगा। इस कार्यक्रम के समापन की सबसे ख़ास बात ये थी, कि प्रत्येक दिन सुबह के लगभग आठ बजे या यूँ कहें कि लगभग सात बज कर सत्तावन मिनट पर इसके समापन के समय "के. एल. सहगल" जी का गाया हुआ कोई भी एक गीत बजाया जाता था। इनके गीत बजने की घोषणा होते ही लोगबाग़ बिना घड़ी देखे सुबह के आठ बजने का अनुमान ही नहीं, वरन् पुष्टि कर लेते थे। रसोईघर में काम कर रहीं महिलाएँ काम में तेजी ले आती थीं। बच्चे अपना खेल या 'होमवर्क' छोड़ कर 'स्कूल' जाने की और वयस्क जन 'न्यूज़ पेपर' का चस्का एवं चाय की चुस्की त्याग कर तत्क्षण 'ऑफिस' जाने की तैयारी में स्फूर्ति के साथ लग जाया करते थे।लब्बोलुआब ये है, कि तत्कालीन "आकाशवाणी" के तहत "विविध भारती" से प्रसारित होने वाले कार्यक्रम "भूले-बिसरे गीत" के समापन में सहगल जी का बजने वाला गीत सुबह आठ बजने का द्योतक बना हुआ था .. शायद ...

अब ये अलग बात है, कि आज "बाबा सहगल" यानी भारतीय 'रैपर' "हरजीत सिंह सहगल" को जानने वाली वर्तमान नयी व युवा पीढ़ी "के. एल. सहगल" यानी "कुन्दन लाल सहगल" जी के नाम और काम से शायद ही अवगत होगी। परन्तु सन् 1938 ईस्वी में आए एक श्वेत-श्याम चलचित्र- "स्ट्रीट सिंगर" में भैरवी राग पर आधारित उन्हीं का गाया हुआ और उन्हीं पर फ़िल्माया हुआ एक गीत .. उस दौर के लोगों द्वारा काफ़ी बार सुना और गाया या गुनगुनाया गया है या यूँ कहें कि लगभग तीस से नब्बे तक के दशक में यह गीत काफ़ी लोकप्रिय रहा है। 

जिसका मुखड़ा है .. "बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाए" .. जो दरअसल एक पूर्वी ठुमरी है। जिसमें तबला, तानपुरा के अलावा सारंगी और हारमोनियम जैसे वाद्य यंत्रों की कर्णप्रिय ध्वनि सन्निहित हैं। इस गीत के संगीतकार थे .. उस समय के जाने माने संगीतकार - आर. सी. बोराल (रायचन्द बोराल) .. इस दार्शनिक भावपूर्ण गीत को कलमबद्ध करने वाले रचनाकार ही आज की बतकही के मुख्य केंद्र बिंदु हैं।

तो आइए ! .. बतकही के इस पड़ाव पर अल्पविराम लेते हुए तनिक विश्राम करते हैं और "बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाए" को  "कुन्दन लाल सहगल" जी की गुनगुनी आवाज़ में सुनते हैं .. बस यूँ ही ...


मुताह के बहाने गुनाह ... भाग-(३) :-

कहते हैं, कि हरेक इंसान के गुण व अवगुण दोनों ही होते हैं। हर इंसान में अच्छे पक्ष और बुरे पक्ष .. दोनों ही समाहित होते हैं। पर सारे गुण-अवगुण की बुनियादें इंसान के बचपन की परवरिश से बहुत हद तक प्रभावित होती हैं .. शायद ... 

एक परवरिश विशेष ही महज़ छ्ब्बीस साल की उम्र में ही किसी इंसान से एक तरफ तो "परीखाना" नामक आत्मकथा लिखवा डालती है और "परीख़ाना" नामक नृत्य और संगीत की मुफ़्त में शिक्षा दिए जाने वाले रंग महल भी बनवा देती है। जिसकी वजह से वह शहर तत्कालीन उत्तर भारत का सांस्कृतिक केन्द्र बन जाता है और दूसरी तरफ .. उसी इंसान से .. अगर उपलब्ध इतिहास को साक्ष्य मानें तो .. एक दिन में तीन-तीन और स्वयं के सम्पूर्ण जीवनकाल में तीन सौ से भी ज्यादा .. उपलब्ध आँकड़ों के मुताबिक लगभग पौने चार सौ निकाह करवा देती है। इस तरह उन इतिहास-पुरुष की एक तरफ तो सृजनशीलता की पराकाष्ठा थी, तो दूसरी तरफ अय्याशों वाली प्रवृत्ति भी थी .. शायद ...

उपलब्ध जानकारियों से पता चलता है, कि यूँ तो इस्लामी शरीया कानून एक व्यक्ति को अधिकतम चार निकाह करने की ही सशर्त अनुमति देता है; लेकिन इस्लाम के चार प्रमुख समुदायों- सुन्नी, शिया, सूफ़ी व अहमदिया में से एक- शिया समुदाय में एक अन्य प्रकार का निकाह- "मुताह निकाह" उन्हें अनगिनत निकाह की इजाज़त देता है और उसे जायज़ ठहराता है। सामान्य निकाह जिसे ताउम्र चलना चाहिए या यूँ कहें कि चलता है, इस के विपरीत "मुताह निकाह" एक तयशुदा समय पर आधारित करार भर होता है। जो करार एक दिन से साल भर तक या उससे भी ज्यादा दिनों तक का हो सकता है। लोग कहते हैं कि दरअसल ये धर्म-सम्प्रदाय की आड़ में अय्याशी करने का ही एक ज़रिया था या है। जैसे माँसाहारियों के लिए निरीह पशुओं-पक्षियों की निर्मम बलि को उचित ठहराया जाना और गँजेड़ियों-भँगेड़ियों के लिए गाँजा-भाँग तथाकथित शिव जी का प्रसाद माना जाना .. वो भी अपनी गर्दन को अकड़ाते हुए .. शायद ... .. नहीं क्या ? ...

इतिहास बतलाता है, कि वो इंसान एक भावपूर्ण ठुमरी "बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाए" .. को रचने वाले सृजनशील रचनाकार होने के साथ-साथ एक अय्याश इंसान भी थे; जो कुछ मान्यताओं के मुताबिक़ अवध के आख़िरी नवाब थे और .. कुछ इतिहासकारों की मानें तो .. दरअसल अवध के आख़िरी से ठीक पहले के नवाब- "अबुल मंसूर मिर्ज़ा मुहम्मद वाजिद अली शाह" थे, जिन्हें "वाजिद अली शाह" नाम से हम सभी जानते हैं। आख़िरी नवाब उन्हीं के बेटे बिरजिस क़द्र थे। 

एक तरफ तो संगीत की दुनिया में नवाब वाजिद अली शाह का नाम अविस्मरणीय है और इन्हें संगीत विधा- "ठुमरी" का जन्मदाता भी माना जाता है। कहते हैं, कि वह एक संवेदनशील, सृजनशील एवं रहमदिल इंसान थे। फ़ारसी व उर्दू भाषा की अच्छी जानकारी होने के नाते उनके द्वारा कई किताबें लिखी गयीं, जिनमें कई कविताओं और नाटकों को भी स्थान मिला था। दूसरी तरफ उन्होंने कपड़े बदलने की रफ़्तार से भी तीव्र गति के साथ कई-कई निकाहें भी रचाई।

उनकी इन दोहरे चरित्र की पृष्टभूमि में भी उनके बचपन की परवरिश का ही असर झलकता है .. शायद ... 

अपनी आत्मकथा “परीखाना” में उन्होंने लिखा है, कि - "जब मेरी उम्र आठ वर्ष की थी, रहीमन नाम की एक औरत मेरी ख़िदमत में लगाई गई थी। उसकी उम्र तकरीबन पैंतालिस साल थी। एक दिन जब मैं सो रहा था, तो उसने मुझ पर काबू पा लिया, दबोच लिया और मुझे छेड़ने लगी। मैं डरकर भागने लगा, लेकिन उसने मुझे रोक लिया और मुझे मेरे उस्ताद मौलवी साहब से शिकायत करने का डर भी दिखलाया।" .. आगे लिखते हैं, कि - "मैं परेशान था, कि किस मुसीबत में फंस गया। फिर भी अगले दो साल तक जब तक रहीमन रही, यह रोज का सिलसिला हो गया। आगे भी .. अम्मी की लगभग पैंतीस-चालीस वर्षीया मुलाज़िम अमीरन ने भी मेरे साथ यही सब दोहराया।"

उनके अनुसार उनके ग्यारह वर्ष की उम्र तक में ही उनको औरतों के साथ हमबिस्तरी भाने लगी और रहीमनअमीरन के अलावा उन उत्कंठा भरे क्रिया-कलापों में और भी कई उम्रदराज़ मोहतरमाओं के नाम जुड़ते चले गए थे .. शायद ...

आज भी .. वो सब .. सोच कर भी .. कोई भी संवेदनशील और समानुभूति वाला मन सिहर जाता है, कि पहली बार जब एक तरफ आठ साल का अबोध बालक और दूसरी ओर पैंतालिस साल की वे कामुक महिलाएँ रहीं होंगी; तब .. उस बाल नवाब वाजिद अली शाह की क्या मनःस्थिति रही होगी भला ...

आगे "परीखाना" के अनुसार- "हर इंसान को ऊपर वाले ने मोहब्बत करने का मिज़ाज दिया है। इसे बसंत का बग़ीचा होना चाहिए, लेकिन मेरे लिए यह एक खर्चीला जंगल बन चुका है।"

इसके लिए वे उन रहीमन-अमीरन जैसी अधेड़ मोहतरमाओं को दोषी मानते हैं, जिनके जिम्मे आठ साल के शहजादे की देखरेख थी, पर वो कई सालों तक उनका यौन शोषण करती रहीं थीं। बचपन की इन्हीं सोहबतों और लतों ने उन्हें ताउम्र शाही ख़ानदान, चकलेदार, जमींदारों, ताल्लुक़ेदारों के घरानों की बेटियों के साथ-साथ कई ब्याहताओं, कोई सब्जी बेचने वाली, कई कोठे वालियों और अफ्रीकन मूल की घुंघराले बालों वाली काली लड़कियों तक से मुताह निकाह के बहाने निकाह करवाया। उस पर तुर्रा ये था, कि उनके तत्कालीन समर्थकों के मुताबिक़ नवाब वाजिद अली शाह एक ऐसे पवित्र इंसान थे, जो किसी परायी स्त्री से निकाह किए बिना उसके साथ हमबिस्तर नहीं होते थे।

ख़ैर ! ... हम सभी को इन सब में क्या करना भला ? .. ये सब तो बड़े लोगों की बड़ी-बड़ी बातें हैं। ऐसे परिदृश्य हर कालखंड में अपने स्वरूप को परिवर्तित करके स्वयं को दोहराते हैं तथा हम आमजन केवल इनकी चर्चा भर करते आए हैं और शायद .. आगे भी करते भर रह जाएंगे; क्योंकि तथाकथित समाज में किसी भी तरह के सकारात्मक बदलाव लाने की मादा है ही नहीं हमारे भीतर .. शायद ... 

आइए ! .. बतकही के अंत से पहले वाजिद अली शाह द्वारा अवधी भाषा में रचित  "बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाए" को  "कुन्दन लाल सहगल" जी की जगह ताल दीपचंदी में "किशोरी अमोनकर" जी की मधुर आवाज़ में सुनते हैं .. बस यूँ ही ...

यूँ तो अवध की राजधानी पहले फ़ैज़ाबाद में थी, जो वर्तमान अयोध्या है, पर बाद में राजधानी लखनऊ बनायी गयी थी। इतिहासकारों की मानें, तो जब अंग्रेजों ने अवध पर कब्जा कर लिया और अवध के नवाब वाजिद अली शाह को अवध की तत्कालीन राजधानी लखनऊ से निर्वासित करते हुए कलकत्ता भेज दिया था, तभी उनके द्वारा एक शोक गीत के रूप में लिखा गया था ये- "बाबुल मोरा नैहर छूटो जाय" यानी अनुमानतः उन्होंने बाबुल और नैहर को अपने प्रिय शहर लखनऊ से स्वयं को ज़बरन निर्वासन के लिए बिम्ब की तरह प्रयुक्त किया होगा .. शायद ...

महज़ कुछ पँक्तियों की ये दार्शनिक कालजयी रचना अनगिनत सिद्धहस्त लोगों द्वारा समय-समय पर अपने-अपने अलग-अलग अंदाज़ में गाया गया है।

बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाय

बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाय

चार कहार मिल, मोरी डोलिया सजावें  

मोरा अपना बेगाना छुटो जाय

बाबुल मोरा ...

आँगना तो पर्बत भयो और देहरी भयी बिदेश

ले बाबुल घर आपनो मैं चली पीया के देश

बाबुल मोरा ...

बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाय

बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाय

यदि शास्त्रीय संगीत सुनते-सुनते मन अब ऊब या उचट गया हो, तो इसी गीत को फ़िल्म- "आविष्कार" के लिए फिल्माए गए जगजीत-चित्रा सिंह जी की आवाज़ में सुन लीजिए एक रूमानी अंदाज़ में .. बस्स ! .. मन बहल जाएगा .. शायद ...

https://youtu.be/FImnFvwuPfg?si=5yrS8bBwSOARuDlW

और हाँ .. चलते-चलते एक विषयान्तर बात .. कि जब कभी भी आपके पास फ़ुर्सत और मौका दोनों हो, तो .. दिवंगत किशोरी अमोनकर जी के इस लगभग पौन घंटे लम्बे साक्षात्कार का अवश्य अवलोकन कीजिएगा और .. साहित्य व संगीत के संगम में गोते लगाइएगा .. उम्मीद है आनन्द और ज्ञानवर्द्धन .. दोनों ही होगा .. बस यूँ ही ...

इस बतकही के बहाने .. बतकही के अंत में .. उपरोक्त सभी विभूतियों को हम सभी के मन से शत्-शत् बार नमन 🙏 .. बस यूँ ही ... 

Thursday, April 20, 2023

21.04.2023 को .. बस यूँ ही ...

( I ) :-

अगर किसी राज्य विशेष में "जुगाड़" और "पैरवी" शब्द आम चलन में हो, तो वहाँ के लोगबाग इन दोनों के मार्फ़त हासिल की गयी छीन-झपट को उपलब्धियों की श्रेणी में सहर्ष सहजता से रख देते हैं और ऐसी छीन-झपट करने वालों को समझदार, सफ़ल और व्यवहारिक का तमग़ा बाँटने में हमारे तथाकथित बुद्धिजीवी समाज के तथाकथित सुसंस्कारी लोग भी तनिक गुरेज़ नहीं करते, बल्कि लोग इस कृत के लिए शेख़ी बघारते नज़र आते हैं। वैसे तो अब तक वैसे राज्य विशेष के उपरोक्त माहौल को महसूस ही नहीं बल्कि प्रत्यक्ष रूप से जीते-जीते ऐसा लगता रहा, कि मानो सारी दुनिया ही ऐसी है या होती होगी।
परन्तु उत्तराखण्ड की अस्थायी राजधानी देहरादून आने के उपरान्त घर से लगभग महज़ दो-ढाई किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित प्रसार भारती के प्रांगण में जाने के बाद, जहाँ आकाशवाणी और दूरदर्शन एक ही प्रांगण में है, जान पाया कि सारी दुनिया "जुगाड़" और "पैरवी" की क़ायल नहीं है। अनायास हमें ऐसा क्यों लगा, इसकी चर्चा अभी आगे करते हैं।
कुछ अन्य और भी अन्यायपूर्ण घटनाएँ अक़्सर देखने/झेलने पड़ते हैं अपने आसपास कि कई स्थानीय पत्रिकाओं के सम्पादकों की निग़ाह में या कई साहित्यिक संस्थानों में भी अगर आपके-हमारे नाम के आगे-पीछे डॉक्टर (पीएचडी वाले), प्रोफ़ेसर, सरकारी अधिकारी या रिटायर्ड (पेंशनधारी भी) सरकारी अधिकारी लगा हो तो, आपकी-हमारी रचनाएँ भले ही तुकबंदी या पैरोडी हों, फिर भी अमूमन उनको विशेष तरजीह दी जाती है। प्रायः आपकी-हमारी पहचान आपके-हमारे पद से की जाती है, आपकी-हमारी प्रसिद्धि से की जाती है, ना कि आपकी रचनाओं के स्तर और उसकी गंभीरता से। और तो और स्वजाति विशेष या अपने क्षेत्र के होने पर भी विशेष कृपा दृष्टि रखी जाती है। वैसे तो पाया ये भी जाता है, कि सबसे बड़ा ब्रह्मास्त्र है .. किसी का लल्लो-चप्पो कर के अपना काम निकालना, किसी एक के लल्लो-चप्पो से सामने वाले को बस ख़ुश हो जाना चाहिए।




परन्तु इन सभी से परे प्रसार भारती, देहरादून के प्रांगण स्थित आकाशवाणी में अपनी रचनाओं के वाचन/प्रसारण हेतु जाकर कार्यक्रम अधिशासी- श्री दीपेन्द्र सिंह सिवाच जी से पहली बार दिसम्बर'2022 की शुरुआत में मिला तो उन्होंने 30.12.2022 को एक कवि गोष्ठी की रिकॉर्डिंग के दौरान अन्य दो कवयित्रियों और एक कवि के साथ मेरी भी तीन कविताओं के वाचन को मौका दिया था। जिसका प्रसारण 02.01.2023 को रात के 10 बजे से 10.30 बजे तक "कविता पाठ" कार्यक्रम के तहत किया गया था।




यहाँ पर ना तो मेरा पद पूछा गया, ना जाति, ना क्षेत्र और ना ही मुझे किसी भी तरह का लल्लो-चप्पो, जुगाड़ या पैरवी करनी पड़ी। बस .. फॉर्म भर कर रजिस्ट्रेशन की आवश्यक औपचारिकता भर और मेरी बतकही की एक प्रति भी। आकाशवाणी या दूरदर्शन के कुछ प्रतिबंध हैं, जिनके अन्तर्गत बस एक-दो शब्दों को अपनी बतकही से हटानी पड़ी यानि उन पर क़ायदे के मुताबिक सेंसर लगाए गए।

यूँ देखा जाए तो यहाँ जुगाड़, पैरवी, लल्लो-चप्पो जैसी कोई प्रतियोगिता नहीं दिखी; बस हम जैसे हिन्दी भाषी लोगों की प्रतियोगिता है तो यहाँ की स्थानीय भाषाओं से। जिनसे ही सम्बन्धित यहाँ ज्यादातर कार्यक्रम होते हैं। मसलन- गढ़वाली, कुमाऊँनी, जौनसारी भाषाओं में।

ख़ैर ! .. अब आज की बतकही का रुख़ अलग दिशा में मोड़ते हैं .. बस यूँ ही ...

( II ) :-

आगामी शुक्रवार यानि 21.04.2023 को रात आठ बजे आप सभी को मिलवाएंगे हम हमारी "मंझली दीदी" से .. बस यूँ ही ...
आप भी मिलना चाहेंगे क्या ? .. आयँ !! ... कहीं आप सभी शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय जी की "मंझली दीदी" या फिर उस पर आधारित ऋषिकेश मुख़र्जी जी के निर्देशन में बनी श्वेत-श्याम फ़िल्म की तो नहीं सोचने लग गये ?
ना, ना .. हम तो उपन्यास और लघुकथा की मंझली बहन जी यानि मंझली दीदी- "कहानी" की बात कर रहे हैं .. हाँ ! .. और नहीं तो क्या ... अब अगर आपको भी उस कहानी से रूबरू होनी है, तो 21.04.2023/शुक्रवार के पहले अपने जीवन की दिनचर्या वाली आपाधापी के बीच मौका मिले तो .. आप सर्वप्रथम ...

1) अपने Mobile में *Play Store* से *newsonair* App को Download कर लीजिए।
2) फिर उसको Open कर के उसकी दायीं ओर सबसे ऊपर कोने में उपलब्ध दर्जनों भाषाओं के विकल्पों में से *हिन्दी (Hindi)* भाषा वाले Option को Select कर लीजिए।
3) उस के बाद बायीं ओर सबसे ऊपर वाली तीन Horizontal Lines को Click करने पर उपलब्ध Options में से तीसरे Option - *Live Radio* को Select कर लीजिए।
4) इस प्रक्रिया से खुले Web Page को नीचे की तरफ Scroll करते हुए Alphabetically क्रमवार A से U सामने आने पर *U* से *Uttarakhand* आते ही उसके अंतर्गत तीन Options में से एक *Dehradun* को Click कर लीजिए।
5) अब आप फुरसत के पलों में तन्हा-तन्हा या मित्रों के साथ या फिर सगे-सम्बन्धियों के साथ *आकाशवाणी, देहरादून* से प्रसारित होने वाले अन्य मनपसंद कार्यक्रमों का भी लुत्फ़ ले सकते हैं।


( III ) :-

परन्तु अब ऐसा नहीं हो, कि आप प्रसार भारती के अन्य मनोरंजक कार्यक्रम सुनने के चक्कर में, इस आने वाले शुक्रवार यानि 21.04.2023 को हमारी मंझली दीदी यानि हमारी कहानी से मिलना आप भूल जाएँ .. आपको तो पूरी तन्मयता के साथ सुन कर जानना ही चाहिए .. ये जानने के लिए कि ...

१) वह कौन सी भाषा है, जो बहुत ही कंजूस है ?
२) किसी लड़की का मायका और ससुराल एक ही शहर में हो, तो क्या-क्या होता है ?
३) दीपू अपने जन्मदिन के केक कटने के पहले ही सो क्यों गया था ?
४) पाँच वर्षीय सोमू के किस सवाल से उसके पापा किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये थे ?
५) जातिवाचक संज्ञा भला कैसे और कब व्यक्तिवाचक संज्ञा बन जाता है ?
६) सोमू के पापा उसकी मम्मी यानि अपनी धर्मपत्नी को "तथाकथित" अर्धांगिनी क्यों कहते हैं भला ?
७) सोमू और उसके पापा के मन में पिछले बीस सालों से हो रहे उथल-पथल को शान्त करने में आप सभी मिलकर कैसे  सहयोग कर सकते हैं भला ?

अक़्सर जाने-अंजाने बुद्धिजीवी लोग भी किसी घटित "घटना" को भी "कहानी" कह देते हैं। मसलन- लोग कहते हुए सुने जाते हैं कि - "तुम मेरी दुःख भरी कहानी सुनोगे तो रो पड़ोगे शायद।" जबकि वह अपने जीवन की दुःखद घटनाओं को बतलाना चाहता या चाहती है। पर मेरी कहानी के सन्दर्भ में दरअसल ... "कहानी" में "घटनाओं" का समागम है .. सच्ची कहें तो .. सच्ची घटनाओं का समागम है। आत्मसंस्मरण ही समझ लीजिए .. बस यूँ ही ...

Wednesday, June 10, 2020

जलती-बुझती लाल बत्ती ...


एक दिन मन में ख़्याल आया कि .. क्यों ना .. कागजी पन्नों वाले डायरी, जो बंद और गुप्त नहीं, बल्कि हर आयुवर्ग के लिए खुले शब्दकोश के तरह हो, की जगह वैज्ञानिकों के बनाए हुए अंतरिक्ष यानों के भरोसे चलने वाले इस ब्लॉग के इन वेव-पन्नों को ही अपना हमदर्द बनाया जाए। अब आपको इतना तो मालूम होगा ही कि अंतरिक्ष यानों के बदौलत ही ये सारे सोशल मिडिया के आपके पन्ने हम तक और हमारे पन्ने आप तक पहुँच पाते हैं और हाँ ..  मोबाइल से होने वाले बातचीत भी तो।

अब विश्व के विभिन्न प्रकार के आस्थावानों में से विश्व की कुल आबादी का लगभग 31-32% लोगों के देवदूत को ही गॉड (God) के रूप में विश्वास करने, 20-21% लोगों के पैगम्बर में विश्वास करने, 14-15% लोगों ( जो वास्तव में धर्मनिरपेक्ष हैं शायद )  के क़ुदरत में विश्वास करने और 13-14% लोगों के द्वारा अवतारों और मिथक कथाओं पर या फिर शेषनाग नामक साँप के फन पर पृथ्वी के टिकी होने और विश्वकर्मा नामक भगवान विशेष द्वारा ब्रह्माण्ड के रचने जैसे चमत्कार में विश्वास करने से तो कुछ ज्यादा ही विश्वास किया ही जा सकता है वैज्ञानिकों द्वारा निर्मित इन अंतरिक्ष यानों पर। यानि जब तक ये यान हैं, तब तक तो हमारे-आपके ये सारे वेव-पन्नों वाले ब्लॉग, फेसबुक जैसे सोशल मिडिया साँस ले ही सकते हैं ना ? है कि नहीं ?

इस तरह डायरी वाला ख़्याल आने से ही हम .. अपने जीवन के गुजरे पलों में मन को स्पर्श करने वाले सारे सकारात्मक या नकारात्मक पलों को भी बकबक करते हुए अपने मन के बोझ को यहाँ इस ब्लॉग के वेव-पन्नों पर उकेर कर या उड़ेल कर मन को हल्का करने का कुछ दिनों से प्रयास करते आ रहे हैं। 

ऐसे में आज बचपन की मेरी लिखी पहली कविता (?) और कुछ अन्य रचनाएँ  हाथ लगने पर यहाँ साझा करने का ख़्याल आते ही बचपन की कुछ यादें ताजा हो आयीं।

बचपन की बात हो तो बिहार की राजधानी पटना के बुद्धमार्ग पर बसे लोदीपुर मुहल्ले में स्थित बिहार फायर ब्रिगेड (दमकल ऑफिस) से कुछ ही दूरी पर अपने निवास स्थान से लगभग ढाई सौ मीटर की दूरी पर अवस्थित आकाशवाणी, पटना से 1972 से 1981 तक प्रत्येक रविवार को सुबह (अभी इस समय उन दिनों कार्यक्रम प्रसारित होने का समय ठीक-ठीक याद नहीं आ रहा) बच्चों के लिए जीवंत प्रसारण  ( Live Broadcast) प्रसारित होने वाले कार्यक्रम "बाल मण्डली" की याद आनी स्वाभाविक है।
साथ ही इसके संचालक द्वय- "दीदी" और "भईया" की वो कानों में रस घोलती गुनगुनी और खनकती आवाज़ और स्टूडियो की वो जलती-बुझती लाल बत्ती की याद भी अनायास आनी लाज़िमी है।
इतने दिनों बाद क्या .. अगर सच कहूँ तो उस वक्त भी .. 1975 में अपने नौ साल की उम्र में भी उन दीदी और भईया का मूल नाम मुझे नहीं मालूम था। बस दीदी और भईया ही मालूम था आज तक।
                                                 
                                    परन्तु आज ये संस्मरण लिखते हुए मन में एक उत्सुकता हुई नाम जानने की तो .. गूगल पर बहुत खोजा। गूगल पर कार्यक्रम के बारे में तो कुछ विशेष नहीं पर .. दीदी के कभी सदस्य, बिहार विधान परिषद रहने के कारण उनके नाम- श्रीमती किरण घई सिन्हा का पता चल पाया और उनके मोबाइल नम्बर का भी। उन के नम्बर मिलने पर खुद को रोक नहीं पाया और हिचकते हुए उनको फोन लगाया .. भईया का नाम जानने के लिए, क्यों कि उनका पता नहीं चल पा रहा था। खैर .. उनकी प्रतिक्रियास्वरूप बातचीत मेरी हिचक के विपरीत .. सामान्य से उत्साहित होती प्रतीत हुई। उनको भी अपने आपसी औपचारिक वार्तालाप के दौरान जब याद दिलाया ...  रेडियो स्टेशन के स्टूडियो में उस दौर के हम बच्चों का माईक के पास स्टूडियो के एक कमरे में जलती-बुझती हुई सूचक लाल बत्ती, जिसे ऑन-एयर लाइट (On-Air Light) कहते हैं, के इशारों के बीच उन दोनों को घेर के पालथी मार कर सावधानीपूर्वक बैठना और कार्यक्रम के तहत किसी देशभक्ति या बच्चों वाले गीत के बजते रहने तक स्टूडियो के उस कमरे की लाल बत्ती बुझते ही अपनी-अपनी रचना के पन्ने को अपने-अपने हाथ में लेकर भईया-दीदी को पहले दिखाने की होड़ में हमारा शोरगुल करना ... तो फोन के उस तरफ उनके  मुस्कुराने का एहसास हुआ। उनसे बालमंडली के भईया का नाम- श्री (स्व.) के. सी. गौर पता चला। उनसे ये भी पता चला कि वे अब इस दुनिया में नहीं रहे। उनका पूरा नाम याद नहीं आ रहा था उन्हें इस वक्त, तो उन्होंने शायद लगाते हुए कृष्ण चन्द्र बतलाया और आश्वासन भी दीं कि आकाशवाणी, पटना से किसी परिचित से मालूम कर के बतलाऊँगी सही-सही नाम। वैसे गूगल पर आकाशवाणी,पटना का एक सम्पर्क-संख्या उपलब्ध मिला भी तो उस पर घंटी बजती रही, पर उस तरफ से कोई प्रतिक्रिया मुझे नहीं मिली।

खैर .. उसी "बाल मण्डली" कार्यक्रम में पढ़ने के लिए अपने जीवन की ये पहली कविता (?), जो संभवतः 1975 में पाँचवीं कक्षा के समय लगभग नौ वर्ष की आयु में लिखी थी; जिसे पढ़ कर अब हँसी आती है और शुद्ध तुकबन्दी लगती है। यही है वो बचपन वाली तुकबन्दी, बस यूँ ही ...  :-

जय  जवान  और जय  किसान
जय  जवान  और जय  किसान,
भारत     के      दो     नौजवान।
जय   जवान  करे   दुश्मन   दूर,
जय किसान करे फसल भरपूर।

हम  सब  का भारत देश चमन,
जहाँ कमल,मोर जैसे कई  रत्न।
हम    नहीं   डरेंगे   तूफ़ान   से,
हम   सदा   लड़ेंगे   शान    से।

सदा   ही  दुश्मन  दूर  भगायेंगे,
सदा  आगे   ही   बढ़ते  जायेंगे।
खेतों में फसल खूब उपजाएंगे,
हम  सब  भारत नया  बसाएंगे।

आओ!    याद   करें    क़ुर्बानी,
वीर कुँवर सिंह, झाँसी की रानी।
क्या   शान  उन्होंने   थी  पायी,
हो शहीद आज़ादी हमें दिलायी।

आओ हम मिल हो जाएं क़ुर्बान,
रखें  बचा  कर वतन  की  शान।
जय  जवान  और जय  किसान,
भारत     के      दो     नौजवान।