Thursday, August 31, 2023

पुंश्चली .. (८) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

पुंश्चली .. (१)पुंश्चली .. (२), पुंश्चली .. (३)पुंश्चली .. (४ ) , पुंश्चली .. (५ )पुंश्चली .. (६) और पुंश्चली .. (७) के बाद अपने कथनानुसार आज एक सप्ताह बाद पुनः वृहष्पतिवार को प्रस्तुत है आपके समक्ष पुंश्चली .. (८) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) .. भले ही थोड़े विलम्ब के साथ .. बस यूँ ही ... :-

गतांक से आगे बढ़ने के पहले स्वयं के साथ-साथ आप सभी से वही पिछले अंक वाला सवाल पुनः .. " क्या एक जिम्मेवार बुद्धिजीवी नागरिक होने के कारण हमने कोई सकारात्मक क़दम उठाए हैं ? " मसलन .. राह चलते या चौक-चौराहे जैसे सार्वजनिक स्थानों पर खड़े होकर धूम्रपान करने वालों में से कितनों को स्वदेश के "धूम्रपान निषेध अधिनियम" की याद दिला कर .. उनकी बीड़ी या सिगरेट बुझवाने की हिम्मत कर पाए हैं अब तक हम .. चाहे वह अपने सगे-संबंधी हों, जान पहचान वाले हों या अंजान कोई भी एक साधारण-सा दिहाड़ी वाला मज़दूर हो या कोई ख़ाकीधारी, काला कोटधारी या फिर कोई खादीधारी हों ? .. शायद ...

हो सकता है .. हमको इस तरह से पहल करने वाला क़दम जोख़िम भरा महसूस हो रहा हो, तो आसपास के या रास्ते में दिखने वाले कम से कम आठ-दस गाजर घास के पौधे ही जड़ से उखाड़ के कभी-कभार निरस्त कर दिया हो हमने .. शायद ... या फिर दहेज़ के लेन-देन वाली किसी शादी के मौके पर शादी में जाने से या भोज खाने से दहेज़ वाली वज़ह बतलाते हुए निमंत्रक को सामने से इंकार कर दिया हो हमने .. शायद ...

अगर एक के लिए भी हमारा "हाँ" है तो .. ठीक, वर्ना उत्तर "ना" होने पर इस वक्त आपका ये साप्ताहिक धारावाहिक - पुंश्चली का आठवाँ अंक पढ़ना और हमारा लिखना भी बेमानी है। बेमानी हैं हम सभी के वो सारे के सारे कृत्य जो हम प्रायः 'सोशल मीडिया' या मंचों पर चमकाते रहते हैं, स्वयं को चमकाने के लिए .. शायद ...

हमने आरम्भ में इस साप्ताहिक धारावाहिक - पुंश्चली के प्रथम अंक में ही कहा था कि "आभासी मनोरंजन का दावा तो नहीं, पर तथ्यों का वादा है हमारा".. बस यूँ ही ...

ख़ैर ! .. पुंश्चली - (७) के बाद पुंश्चली - (८) के लिए आगे बढ़ते हैं ... 

रसिक चाय दुकान के सामने लगे बेंच पर बैठे सिपाही जी की चाय के घूँट और उनके सिगरेट के धुएँ का अब तक संगम हो चुका है। 

सिपाही जी की चाय की हर चुस्की .. लगभग तेज आवाज़ के साथ सुड़कने वाले अंदाज़ में .. कुल्हड़ की कोर को उनके होठों की गिरफ़्त में ले आती है और सिगरेट का हर कश भी सिगरेट के 'फिल्टर' को होठों की गिरफ़्त तक ही लाता है, पर दोनों में सूक्ष्म अन्तर दिख रहा है। चुस्की और कश के दौरान होठों की हरक़तों और बनावटों में क्रमशः वही अन्तर दिख रहा है जो एक बच्ची के गाल चूमने और एक प्रेमिका के होंठों को चूसने में अक़्सर होता है .. शायद ...

रसिक की कड़क, मीठी और मलाईदार चाय से सिक्त कुल्हड़ हो या फिर उच्च ताप में सुलगते महँगे सिगरेट वाले तम्बाकू का संगी 'फ़िल्टर' हो .. दोनों को ही मालूम है कि दोनों के साथ क्रमशः जब तक चाय और तम्बाकू है .. तभी तक सिपाही जी के होंठों का संसर्ग मिल रहा है .. फिर उसके बाद तो .. कुल्हड़ और 'फ़िल्टर' .. दोनों की ही इहलीला का पटाक्षेप हो जाना है .. शायद ...

ऐसे में तुलसी दास जी की रचना- रामचरितमानस में राम की सत्यता का तो पता नहीं; परन्तु उनका यह सांसारिक ज्ञान तो चरितार्थ होता प्रतीत होता ही है, कि ...

"सुर, नर, मुनि, सब कै यह रीति, 

  स्वारथ लागि करहिं सब प्रीति।"

"रसिक भईया ! .. जरा गर्म-गर्म चाय जल्दी से हमको पिला दीजिए .. और दो पाव भी .." - ये है चंदर कबाड़ी जो अक़्सर मुहल्ले में आकर अपने ठेले में भर-भर कर मुहल्ले भर से अंगड़-खंगड़ सामान खरीद कर ले जाता है, जिसको झूलन सेठ कबाड़ी के यहाँ मुनाफ़े के साथ बेचकर अपना घर-परिवार चलाता है - "और .. तनिक मलाई अपनी तरफ से पाव पर रख के .. ऊपर से एक चुटकी चीनी भी बुरक दीजिएगा सुबह-सुबह 'मूड' (मनोदशा) बन जाएगी हमारी .."

"ठीक है चंदर भईया .. बस पाँच मिनट .." - ये कलुआ है - "आज बड़ा ख़ुश लग रहे हो भईया ! .. कोई मोटा माल हाथ लगा है क्या आज ?"

चंदर कबाड़ी - "हाँ रे ! .. उ सतरुधन (शत्रुघ्न) चच्चा (चाचा) हैं ना ! .. कल 'इंडिया' हार गया ना 'फाइनल मैच' .. तअ (तो) अपना 'टिविआ' (टी वी) उठा के जोर से पटक दिए थे कल रात में .. चकनाचूर हो गया था .. भुच्ची-भुच्ची हो गया है .. वही मिल गया अभी भोरे-भोरे किलो के भाव में .. चच्ची रो-रो के तौलवा रहीं थीं .. अब एकर (इसका) एक-एक काम के लायक वाला 'पार्ट' (भाग) का ज्यादा दाम देगा 'इलेक्ट्रॉनिक रिपेयरिंग' वाला दुकान में .. 'एही' (इसी) से खुश हैं .."

"ओ ~~~ ... वही कल रात में बड़ा जोर से आवाज़ किया था .. लगता है .." - चंदर कबाड़ी की बात सुनकर और उसके ठेले में प्रत्यक्ष 'टी वी' के अवशेष को निहारते हुए सिपाही जी बोल रहे हैं।

तभी उधर से शत्रुघ्न चाचा के पड़ोसी 'प्रोफेसर' साहब और सरकारी अस्पताल के 'स्टोरकीपर' साहब आपस में देश-विदेश की ख़बरों के साथ-साथ कल रात वाली 'इंडिया टीम' की हार .. वो भी 'पाकिस्तान टीम' से .. और पड़ोसी शत्रुघ्न के घर तोड़े गये 'टी वी' की परिचर्चा करते हुए सुबह की चाय पीने "रसिक चाय दुकान" के पास अभी-अभी रोज की तरह आ गये हैं। 

उनको तो पड़ोसी होने के नाते "'टी वी' भंजन प्रकरण" की सारी जानकारी है ही। सामने चंदर कबाड़ी के ठेले में प्रत्यक्ष प्रमाण भी आराम फ़रमा रहा ही है .. तो फिर क्या है ? .. 'न्यूज़ चैनल' वालों की तरह ही इंसानी फ़ितरत है कि घटना घटने भर की देर है .. फिर तो उसकी बख़िया उधेड़ कर उसका 'पोस्टमार्टम' करने में देर भी भला कहाँ लगती है .. शायद ...

'प्रोफेसर' साहब - " हमारी मूर्खता की पराकाष्ठा का उदाहरण इस से बेहतर और क्या मिल सकता है, कि अगर हमारी अपनी पसंदीदा क्रिकेट टीम मैच जीत जाती है, तो कुछ पल के लिए मान भी लिया जाए कि ये जायज़ हो भी सकता है .. हमारा खुश हो कर थिरकना .. ज़श्न मनाने के नाम पर अपनी हैसियत के मुताबिक घर पर ही या किसी महँगे 'रेस्टोरेंट' या 'बार' में जाकर ऊटपटाँग हरक़तें करना और .. इसे अपनी देश-प्रेम से जुड़ी भावनाओं की प्रतिक्रिया का नाम दे देना। 

'स्टोरकीपर' साहब - " हाँ .. सही कह रहे हैं आप .. "

'प्रोफेसर' साहब - " पर .. हद तो तब होती है, जब पसंदीदा क्रिकेट टीम के मैच हारने के बाद हम अपने लिए छदम् तनावग्रस्त परिस्थिति बनाकर गुस्से के वशीभूत होकर कई दफ़ा तो जिन 'टी वी' पर हम मैच देख रहे होते हैं, अपने उसी 'टी वी' को पटक कर फोड़ तक देते हैं। जबकि हारने वाली उस पसंदीदा क्रिकेट टीम को भी मैच हारने के बावज़ूद भी खेलने की स्टोरकीपर अच्छी-खासी क़ीमत मिलती है ... भले ही वह जीतने वाली टीम से तुलनात्मक कम रक़म होती हो .. "

'स्टोरकीपर' साहब - " और तो और .. हमलोग इसे क्रिकेट-प्रेम और देश-प्रेम का नाम दे कर शेख़ी भी बघारते रहते हैं। "

'प्रोफेसर' साहब - " अब ये प्रेम है या पागलपन ? बोलो ! .. याद है वो .. 'फ़िल्म'- "पी के" का वो एक 'डॉयलॉग' .. जिसमें दूसरे ग्रह से आया प्राणी बना हुआ 'हीरो' जो कुछ भी बोलता है .. वह बहुत ही गहरा और अर्थपूर्ण कथन है। ठीक-ठीक तो याद नहीं पर .. जिसका आशय है, कि - यहाँ के लोग, मतलब धरती के लोग जब बोलते हैं कि 'आई लव फ़िश',तो इसका मतलब ये नहीं होता है कि वे लोग मछली से प्यार करते हैं। बल्कि इनके 'आई लव फ़िश' का मतलब होता है कि वो मछली को मार कर, पका के खाते हैं। उसी को कहते हैं .. 'आई लव फ़िश' .. "

'स्टोरकीपर' साहब - " और यहाँ क्रिकेट-प्रेम का भी कुछ ऐसा ही .. मतलब है .. वो लोग इस प्रेम में क्रिकेट को तो नहीं .. पर ख़ुद को बर्बाद कर लेते हैं। "

'प्रोफेसर' साहब - " और इन सभी बेसिर-पैर की भावनाओं को देश-प्रेम का नाम देकर सामने वाले का मुँह चुप कराने का प्रयास करना भी इन्हें बख़ूबी आता है। और तो और .. ऐसी बातों पर तर्क देंगे कि इन सब से तो कई लोगों के परिवार वालों का पेट चलता है। ये सब ना हो तो कई लोग बेरोजगार हो जायेंगे बेचारे ... च्-च्-च् ... "

'स्टोरकीपर' साहब - " ये लोग इस खेल के पीछे चल रहे सट्टा बाज़ार वालों के लिए भी या क़ानूनी-ग़ैरक़ानूनी नशा के सामानों को बेचकर समाज की हर पीढ़ियों को कमज़ोर या बर्बाद करने वालों के लिए भी ऐसी ही तर्क देकर उनके प्रति अपनी हमदर्दी जताने का भरसक प्रयास करते हैं .. पर दूसरी ओर यही भीड़ 'सेक्स वर्कर्स' के धंधे के विरुद्ध में कई सारे 'एजेंडे' बनायेंगे .. तब इन्हें उनकी बेरोजगारी, उनकी पेट की भूख नज़र नहीं आती है .. "

'प्रोफेसर' साहब - " तब तो समाज और राष्ट्र की छदम् चिन्ता में .. "

'स्टोरकीपर' साहब - " सुनते हैं कि कुछ साल पहले सभी के पास मोबाइल नहीं हुआ करता था। इक्के-दुक्के लोग ही इसका उपभोग कर पाते थे। तब तो शायद 'इन कमिंग कॉल' के भी 'चार्ज' लगते थे। तब लोग लम्बी-लम्बी 'लाइन' लगा कर 'पब्लिक टेलीफोन बूथ' में अपनी बारी की प्रतीक्षा किया करते थे। वहाँ रात में ज्यादा भीड़ होती थी, क्योंकि दिन की तुलना में रात की एक निर्धारित समय-सीमा में आधा या चौथाई शुल्क देना होता था। अगर एक ग्राहक द्वारा पहले या दूसरे प्रयास में उसका 'कॉल' नहीं लगता था, तो दुकानदार ख़ुद बोल कर या पीछे वाले ग्राहक ही हल्ला कर के उस ग्राहक को परे हटा देते थे और ख़ुद अपना 'नम्बर' मिलाने लगते थे। "

'प्रोफेसर' साहब - " अभी इन सब अतीत की बातों की चर्चा का भला क्या मतलब ? .."

'स्टोरकीपर' साहब - " मतलब ये है कि .. आज आसपास कहीं भी 'पब्लिक टेलीफोन बूथ' दिखता नहीं है, तो क्या सारे 'टेलीफोन बूथ' वाले भूखे मर रहे हैं या फिर .. दूसरे धंधे में लग गये हैं ? .. बोलिए ! .."

'प्रोफेसर' साहब - " ये सब के सब मुखौटेधारी दोहरी ज़िन्दगी जीने के आदी हैं। याद है .. बिहार राज्य में सरकार द्वारा जब शराबबंदी की घोषणा की गयी थी, तब तो सभी बेवड़े यही वाला तर्क दे रहे थे कि ऐसे में तो कितनों के पेट पर लात मारी जाएगी। सत्तारूढ़ सरकार कोई भी हो, वह काम कुछ भी करे .. कुछ लोगों की आदत होती है, सही तथ्यों से अंजान .. बस उसके विरुद्ध कुछ भी अंट-संट 'सोशल मीडिया' पर बेवड़ों की तरह चिपकाते रहने की। इन्हीं के जैसी मानसिकता वाले प्राणियों की भीड़ पीछे से इन पर 'लाइक' और 'कमेंट' की सतत बरसात भी करते रहते हैं .. "

'स्टोरकीपर' साहब - " बनावटी राष्ट्र प्रेम के सबूत जो देने हैं इन्हें 'सोशल मीडिया' पर .."

'प्रोफेसर' साहब - " देश-प्रेम की भावना वाली गंगा ही बहानी है तो क्रिकेट की जगह कुछ वास्तविक समाज सेवा की भी सोच लेनी चाहिए कभी-कभी इनको। बहुत सारे क्षेत्र हैं खुले पड़े .. सेवा के लिए प्रतिक्षारत .. बिखरे पड़े हैं हमारे आसपास .. पर नहीं .. किसी तथ्य को गंभीरता से जाने-समझे बिना बस ..  सत्तारूढ़ राजनीतिक दल के विरुद्ध कुछ भी वक्तव्य 'सोशल मीडिया' पर चिपका कर अपने समाज-प्रेम, राष्ट्र-प्रेम प्रदर्शित करने की कोशिश करनी ही इनकी देशभक्ति है भाई ..."

'स्टोरकीपर' साहब - " यही लोग पन्द्रह अगस्त और छ्ब्बीस जनवरी जैसे मौकों पर ताबड़तोड़ 'सोशल मीडिया' पर 'हैप्पी इंडिपेंडेंस डे' .. 'हैप्पी रिपब्लिक डे' जैसे 'मेसेज' को 'कॉपी-पेस्ट' करते नहीं थकते हैं। ऐसे-ऐसे कई अवसरों पर इसी तरह के 'कॉपी-पेस्ट' वाले आसान अवसरों से ये लोग कभी नहीं चूकते और ना ही अपनी ऐसी आधारहीन और प्रतिफल विहीन देशभक्ति के प्रमाण देने में कोई कोताही बरतते नज़र आते हैं ... "

'प्रोफेसर' साहब - " समाज की किसी भी भेड़-चाल में शामिल या शरीक़ नहीं होने वाला इंसान .. आडम्बरों से भरे तथाकथित समाज के बहुसंख्यकों को प्रायः सिरफिरा ही प्रतीत होता है। सामाजिक मान्यताओं के अनुसार किसी परम्परा या किसी आयोजन का चाहे कोई औचित्य नहीं भी हों, फिर भी बिना तर्क किए किसी सम्मोहित प्राणी की तरह पीछे-पीछे चले चलो तो ये तथाकथित समाज सराहती है और जब तार्किक होकर सुगम रास्ते अपनाओ या सुझाओ तो वही समाज सिरफिरा समझती है और कहती भी है .. है कि नहीं ? ..."

वहाँ अन्य बैठे रसिकवा के ग्राहक लोग चाय के साथ-साथ मुहल्ले के दोनों प्रतिष्ठित व्यक्तियों - 'प्रोफेसर' साहब और 'स्टोरकीपर' साहब की वार्तालाप का भी आनन्द मुफ़्त में ले रहे हैं। पर आधी उनकी खोपड़ी में समा रही है और .. आधी ऊपर से निकल जा रही है। वैसे भी दुनिया की सभी बातें .. सभी के खोपड़ी में समा भी कहाँ पाती है भला ? .. बस यूँ ही ...

【 अब शेष बतकहियाँ ... आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (९) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】



Wednesday, August 30, 2023

गुमनाम गाँगुली बनाम वादन की गायकी


 【भूमिका

संगीत :- 

सर्वविदित है कि असीम साहित्य-संगीत की संगति और बेशक़ विज्ञान के नए-नए शोध-अनुसंधान ही मानव जाति को धरती के अन्य प्राणियों से तुलनात्मक रूप से सर्वोत्कृष्ट बनाती है .. शायद ...

हम कह सकते हैं कि जैसे "साहित्य" शब्द अपने आप में कविता, कहानी, लघुकथा, उपन्यास, दोहे, चौपाई, संस्मरण, आलोचना, हास्य-व्यंग्य इत्यादि जैसी तमाम विधाओं वाली रचनाओं को अपने में समेटे हुए है, ठीक वैसे ही हम "संगीत" के व्यापक अर्थ में गायन और नृत्य इत्यादि जैसे कलात्मक कृत्यों से जनी एकल या सामूहिक कृति को उपेक्षित नहीं कर सकते हैं .. शायद ...

प्रसंगवश

गिटार :-

अपनी उपरोक्त बतकही को एक भूमिका की शक्ल देने की कोशिश के बाद मूल विषय "गुमनाम गाँगुली बनाम वादन की गायकी" तक पहुँचने के पूर्व प्रसंगवश संगीत से जुड़ी कुछ बतकही .... दरअसल संगीत के लिए प्रयुक्त विभिन्न प्रकार के अनगिनत देशी और विदेशी वाद्य यंत्रों में से एक यंत्र का नाम हम सभी सुने हैं .. जानते हैं और देखे भी हैं। वह है .. "गिटार".. जो विदेशी होते हुए भी आज हमारी युवा पीढ़ी के लिए देशी ही प्रतीत होता है। ठीक वैसे ही जैसे आज हमारे तथाकथित समाज में .. हमारी तथाकथित सभ्यता-संस्कृति वाली दिनचर्या में रचे-बसे चाऊमीन, पिज्जा-बर्गर् और बिरयानी जैसे व्यंजन, अंग्रेजी और उर्दू जैसी भाषा और कोट-पैंट-टाई जैसे परिधान विदेशी होकर भी देशी ही जान पड़ते हैं।

पश्चिमी देशों, ख़ासकर अमेरिका, में किसी कालखण्ड के दरम्यान "जींस और गिटार" युवा विद्रोह, स्वयं की आध्यात्मिक तलाश, व्यक्तिगत जीवन शैली, रोमांच और जीवन को पूर्णता से जीने का प्रतीक बना हुआ था और आज भी कमोबेश है ही .. वो भी .. अपने वैश्विक प्रसार-विस्तार के साथ .. शायद ...

गिटार के प्रकार :- 

यूँ तो मूलतः बनावट के आधार पर दो तरह के गिटार होते हैं। पहला होता है - "ध्वनिक गिटार" .. जिसमें उसके एक छेदयुक्त हल्के लकड़ी के बने खोखले ढाँचे और ताँत या स्टील के तारों की मदद से 'स्ट्रोक' द्वारा लयबद्ध ध्वनि उत्पन्न की जाती है। 

जबकि दूसरा होता है ..  "'इलेक्ट्रिक' गिटार" .. जो ठोस और भारी होते हैं, जिसमें स्टील के तारों को सधी उंगलियों द्वारा झंकृत करके बिजली की मदद से एक या एक से अधिक 'एम्पलीफायरों' द्वारा ध्वनि उत्पन्न की जाती है। 'एम्पलीफायरों' के कारण 'इलेक्ट्रिक' गिटारों की आवाज़ ध्वनिक गिटारों की तुलना में ज्यादा प्रभावी होती है। 

यूँ तो इनमें प्रयोग होने वाले ताँत या स्टील के तारों की संख्या के आधार पर भी इनके कई सारे प्रकार होते हैं। कुछ असाधारण गिटार दो खोखले ढाँचे वाले भी होते हैं, परन्तु दुष्प्राप्य .. शायद ...

(अ) स्पेनिश गिटार :-

ध्वनिक गिटार में जब ताँत के तार होते हैं और इसे 'स्ट्रोक' की मदद से बजाते हैं, तो इसे यूरोपीय देशों में से एक देश- "स्पेन", जहाँ इस वाद्य यंत्र को जीवन-विस्तार मिला है, के नाम के आधार पर इसे "स्पेनिश गिटार" कहते हैं। वैसे भी स्पेन देश की कला, संगीत, साहित्य और .. कहते हैं कि व्यंजन का भी इतिहास और लगभग वर्तमान भी काफ़ी स्वर्णिम हैं। 

(ब) हवाइयन गिटार :-

दूसरी तरफ "हवाइयन गिटार" में ताँत की जगह स्टील के तारों का प्रयोग होता है। इसको बजाने के लिए दाएँ हाथ की उँगलियों में पहने 'स्ट्राइकर' की मदद से इसके स्टील के तारों पर 'स्ट्रोक' देने के साथ-साथ बाएँ हाथ की तर्जनी, अनामिका और अँगूठे की मदद से एक ठोस 'स्टील बार' को तारों पर 'म्यूजिकल नोट्स' के अनुसार फिराया जाता है। यह स्पेनिस गिटार से आकार में बड़ा होता है और इसकी घुड़च (Bridge) भी अधिक ऊँची होती है। कहते हैं कि संयुक्त राज्य अमेरिका के पचास राज्यों में से एक राज्य "हवाई" की राजधानी होनोलूलू में इसके विशेष रूप से शुरूआती व्यवहार और प्रचार होने के कारण इसका नाम हवाइयन गिटार पड़ा है।

गिटार : मिलान और वर्तमान :-

यूँ तो किसी भी वाद्य यंत्र की तुलना किसी दूसरे वाद्य यंत्र से नहीं की जा सकती है। जैसे किसी भी जीवित मानव शरीर में उपस्थित विभिन्न तंत्रो की उपयोगिता को नकारा नहीं जा सकता, वैसे ही किसी भी वाद्य यंत्र को कम नहीं आँका जा सकता। सब का अपना-अपना महत्व है। प्रत्येक वाद्ययंत्र की अपनी वैयक्तिकता और मौलिकता होती है और कोई भी उपकरण दूसरे से श्रेष्ठ नहीं हो सकता। 

फिर भी किसी स्पेनिश गिटार की तुलना में हवाइयन गिटार की आवाज़, विशेषतौर से 'स्लर' (Slur) या 'टाई' (Tie) वाले 'म्यूजिकल नोट्स' के लिए उत्पन्न आवाज़, उसके तारों पर सरकते ठोस 'स्टील बार' के कारण ज्यादा ही प्रभावी होती है।

स्पेनिश गिटार मुख्य रूप से किसी गायक या स्वयं के गायन के साथ या फिर संगीत 'आर्केस्ट्रा' में प्रयोग किया जाता है, जबकि हवाइयन गिटार एक आत्मनिर्भर वाद्ययंत्र है क्योंकि इसे एकल रूप से बजाया जा सकता है।

दुर्भाग्यवश हवाइयन गिटार वर्तमान में स्पेनिश गिटार की तुलना में प्रचलन या प्रयोग में कम ही दिख पाता है। हवाइयन गिटार लगभग लुप्तप्राय वाली परिस्थिति का सामना कर रहा प्रतीत होता है। वास्तव में आज तो आलम ये है कि कई बड़े-बड़े शहरों में भी "स्पेनिश गिटार" सिखाने वाले दर्जनों प्रशिक्षण केन्द्र और प्रशिक्षक मिल जाते हैं, परन्तु अथक प्रयास के बाद भी "हवाइयन गिटार" सिखाने वाले एक भी प्रशिक्षण केन्द्र या प्रशिक्षक अमूमन नहीं ही मिल पाते हैं। 

और तो और .. जैसा कि हम सभी जानते हैं कि बच्चों, युवाओं को ही नहीं बल्कि वयस्क स्त्री-पुरुषों को भी फ़िल्में और तमाम विज्ञापनें उनकी अभिरुचि के अनुरूप प्रभावित करते हैं .. आंशिक या पूर्णरूपेण। कई दफ़ा तो दर्शकों की अभिरुचि में ही परिवर्तन ला देने वाली इन फ़िल्मों और चंद मिनटों वाले विज्ञापनों का भी प्रभाव कम असरकारक नहीं होता है .. शायद ...

आए दिन फिल्मों या विज्ञापनों में भी जब 'मल्टीप्लेक्स' या 'टी वी' के 'स्क्रीन' पर बहुत ही अदा के साथ स्पेनिश गिटार बजाते हुए गीत गाकर नायक द्वारा नायिका यानि अपनी प्रेमिका को रिझाने वाली प्रक्रिया की आज की युवा पीढ़ी तन्मयता के साथ अवलोकन करती है, तो प्रेरित होकर उनका रुझान क्षणिक या कभी-कभी तो स्थायी रूप में भी स्पेनिश गिटार की ओर हो जाता है। स्वाभाविक तौर पर ऐसा हवाइयन गिटार के साथ नहीं हो पाता है .. बस यूँ ही ...

मूल विषय

गुमनाम गाँगुली बनाम वादन की गायकी :-

अब ऐसी परिस्तिथि में हम में से अधिकांशतः, ख़ासकर जिनको संगीत में ख़ास रूचि नहीं है या फिर नयी पीढ़ी को भी तो निश्चित ही वर्तमान में उन गुमनाम हो चुके गाँगुली जी की जानकारी कैसे हो सकती है भला ? .. जो  "हवाइयन 'इलेक्ट्रिक' गिटार" के एक प्रसिद्ध व लोकप्रिय वादक रहे हैं और धरती से विदा होने के पूर्व कई सारी अभूतपूर्व उपलब्धियाँ अपने नाम कर गए हैं। 

सही मायने में अगर उनके लिए यह कहा जाए कि वह "एको अहं, द्वितीयो नास्ति, न भूतो न भविष्यति।" को चरितार्थ करने के एक प्रतिमान रहे हैं, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी .. शायद ...

दुर्भाग्यवश आज 'गूगल' पर औरों की तरह बहुत ज्यादा उनकी जानकारी भी उपलब्ध नहीं है और ना ही 'यूट्यूब' पर उनका कोई 'लाइव वीडियो' उपलब्ध है। परन्तु हमलोगों ने बचपन से लेकर इक्कीसवीं सदी के प्रारम्भ होने तक वो दौर भी देखा है, जब किसी भी "संभ्रांत समाज" के किसी भी शुभ-सांस्कृतिक आयोजन के अवसर पर इनके द्वारा उस हवाइयन 'इलेक्ट्रिक' गिटार विशेष से किए गए "वादन की गायकी" से सराबोर हुए काले रंग वाले तत्कालीन तवानुमा 'रिकॉर्ड' किसी 'रिकॉर्ड प्लेयर' पर या उत्तरोत्तर काल में फीतानुमा 'कैसेटस्' किसी 'टेप रिकॉर्डर' में बजे बिना, बिना चीनी की चाय जैसा फीका लगता था वह आयोजन। ठीक वैसे ही जैसे किसी भी शादी या धार्मिक अनुष्ठान के मौके पर "उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ" साहब की "शहनाई" वाले 'रिकॉर्ड' या 'कैसेटस्' बजे बिना वो बेनूर लगते थे तब .. शायद ...

ध्वनि प्रदूषण नियमावली और डेसीबल :-

यहाँ यह स्पष्ट करना लाज़िमी है कि उपरोक्त कहे/लिखे गये "संभ्रांत समाज" से मेरा तात्पर्य किसी अमीर समाज से कतई नहीं है, बल्कि वैसे समाज से है, जो तब किसी निजी आयोजन या अनुष्ठान में सार्वजनिक तौर पर बड़े-बड़े चोंगों वाले "लाउडस्पीकरों" की जगह छोटे-छोटे "साउंड बॉक्स" का इस्तेमाल करते थे, जिसकी आवाज़ तुलनात्मक रूप से कर्कश ना हो कर अपनी मधुर ध्वनि-तरंगों से आसपास के भी मानव तन-मन को क्षुब्ध करने के बजाय आनन्दित कर जाता था .. शायद ...

आज वर्षों से स्वदेश में बने क़ानून- "पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम" के तहत "ध्वनि प्रदूषण (विनियमन एवं नियंत्रण) नियमावली" की धज्जियाँ उड़ाते हुए उस कर्कश लाउडस्पीकरों के चोंगों की जगह बड़े-बड़े कानफोड़ू 'डी जे एम्पलीफायरों' ने ले लिया है। जिनसे ध्वनि प्रदूषण की तयशुदा क़ानूनी सीमा- "पैंतालीस डेसीबल" से भी अत्यधिक "डेसीबल" वाली आवाज़ निकलती है। 

सर्वविदित है कि जैसे वजन और तापमान मापने की इकाई क्रमशः ग्राम और डिग्री है, वैसे ही ध्वनि के स्तर या प्रबलता को मापने की इकाई को "डेसिबल" कहा जाता है। 

आज बड़े-बड़े कानफोड़ू 'डी जे एम्पलीफायरों' का प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा है, चाहे वो मौका किसी भी धर्म-सम्प्रदाय के लोगों के धार्मिक अनुष्ठान का हो, शादी-विवाह जैसे पारिवारिक-सामाजिक आयोजन का हो या फिर कोई राजनीतिक रैली या धार्मिक यात्रा का हो। 

फिर भी यह एक विडम्बना ही है कि हम सभी तथाकथित बुद्धिजीवी समाज के गणमान्य और प्रतिष्ठित नागरिक मूक-बधिर और सूर भी बने .. बापू के तीनों गणमान्य बन्दरों की तरह मूर्ति बने .. खड़े-खड़े "ध्वनि प्रदूषण (विनियमन एवं नियंत्रण) नियमावली" की धज्जियाँ उड़ते हुए भी अंजान तो बने ही रहते हैं। साथ ही यदाकदा इनमें शामिल भी रहते हैं।

और तो और .. 'सोशल मीडिया' या मंचों पर भी तो यही लोग अपनी शालीनता के साथ-साथ एक जिम्मेवार भारतीय नागरिक होने का छदम् प्रदर्शन करने में तनिक भी कोताही नहीं बरतते हैं .. शायद ...

परन्तु आज भी तब बेहतर महसूस होता है, जब वैसे "संभ्रांत समाज" में आयोजनों के मौके पर मधुर आवाज़ वाले 'साउंड बॉक्स' ही प्रायः बजते हुए हमें सुनने के लिए मिल जाते हैं .. शायद ...

वादन की गायकी :-

हालांकि बाँसुरी, माउथ ऑर्गन, सेक्सोफोन, हारमोनियम जैसे और भी कई सारे वाद्य यंत्रों से गाने की धुन तो बजायी जा सकती है या ये सारे किसी वाद्य वृंद के एक अंग हो सकते हैं, परन्तु केवल एक ही वाद्य यंत्र से एकल रूप में किसी गीत को बिना गाए ही स्पष्टता से प्रस्तुत करना ही "वादन की गायकी" कहलाती है। जिस "वादन की गायकी" वाली शैली का प्रचलन सबसे पहले अपने हवाइयन 'इलेक्ट्रिक' गिटार द्वारा आरम्भ करने वाले कलाकार थे - "सुनील गाँगुली" जी।

विस्तार में सुनील गाँगुली और उनकी उपलब्धियाँ :-

मूलतः त्रिपुरा में जन्में, पर बचपन से अभिभावक के साथ कलकत्ता (अब कोलकाता) में रहने और फिर कार्यक्षेत्र  होने के कारण ये बंगाल के वाद्यवादक कलाकार माने जाते रहे हैं। अपनी धन्य माँ की कोख़ के बाहर 1 जनवरी 1938 को परतंत्र भारत की धरती पर खुली हवा में साँस लेने से लेकर 12 जून 1999 को हवा में अंतिम साँस लेकर हवा में विलीन होने तक, स्वतन्त्र भारत में साठ के दशक से लेकर बीसवीं सदी के अंत तक गीत-संगीत जीने वाले जनमानस को अपनी "वादन की गायकी" से निरन्तर मुग्ध करते रहे थे .. शायद ...

रास्तों में आते-जाते, घर में काम करते हुए, चौक-चौराहों पर बजते हुए गीत-संगीतों को सुनना, उनमें से अपनी पसंद वाले पसंदीदा गीतों के मुखड़े भर को गुनगुना लेना, शादी-बारात के मौकों पर तथाकथित नागिन 'डांस' कर लेना एक अलग बात है और तन्मयता के साथ भाव-विभोर मन से गीत के मुखड़े के साथ-साथ हर अंतराओं को और संगीत में प्रयुक्त हरेक वाद्य यंत्रों के एक-एक धड़कन ('बीट') को महसूस करते हुए तरंगित होना, सिर से पाँव तक का थिरकाना, दोनों हाथों की हरेक उँगलियों को लयबद्ध हवा में लहराना या किसी आधार पर थपकाना एक अलग बात। 

उपरोक्त पहली अवस्था को ही "गाना सुनना" और दूसरी अवस्था को "गाना को जीना" कहना चाहिए .. शायद ... संगीत में प्रयुक्त हरेक वाद्य यंत्रों के एक-एक धड़कन ('बीट') को संगीत को जीने वाले ठीक-ठीक वैसे ही महसूस करते हैं, जैसे आलिंगनबद्ध प्रेमी-प्रेमिका की जोड़ी एक-दूसरे के हृदय-स्पन्दन की आवाज़ को और गीत-संगीत को केवल सुनने वाले मानो सामान्य हृदय-स्पन्दन की तरह महसूस कर पाते हैं, जो हर वक्त हमारे हृदय में होता तो है, पर हर पल महसूस नहीं होता .. शायद ...

फिर वही मेरी बतकही करते-करते विषय से भटक जाने वाली गंदी आदत .. क्षमा सहित .. फिर से सुनील गाँगुली जी .. वह अपनी "वादन की गायकी" वाली शैली के तहत तमाम "हिंदी फिल्मी गाने", चाहे लता मंगेशकर जी के दुर्लभ गाने हों या किशोर जी, मुकेश जी या फिर रफ़ी साहब के हों, तमाम "ग़ज़लें" - जगजीत सिंह , मेहदी हसन , गुलाम अली सभी की और श्यामल मित्रा, हेमन्त मुखर्जी के गाए "बंगाली फिल्मी गानों" के अलावा "रविन्द्र संगीत" (रवीन्द्रनाथ टैगोर की रचना), "नज़रुल गीति या नज़रुल संगीत" (कवि काज़ी नज़रुल इस्लाम की रचना) और "असमिया भाषा में बिहु गीतों" को "बजा / गा" कर लगभग चार-पाँच दशकों तक सभी संगीत-प्रेमियों को आह्लादित करते रहे। 

अपनी गत बतकही "इस अँधेरे से मैं डरता हूँ .. शायद ...  " की तरह हम पुनः अपनी बतकही का आशय दुहरा रहे हैं कि मानसिक रूप से विस्तृत सोचने वाले "बड़े और संभ्रांत" लोगों की किसी मौलिक आदिवासी समाज की तरह सोचें संकुचित नहीं होती, जो केवल अपने समाज में ही अपनी सभ्यता-संस्कृति, रहन-सहन और भाषा तक ही सीमित रह कर जीवन गुजार देते हैं। बल्कि वो तो इन संकुचित सोचों वाले जैसों से परे हर सभ्यता-संस्कृति, रहन-सहन और भाषाओं की क़द्र करना जानते हैं। उनकी अच्छी बातों को सहर्ष स्वीकार भी करते हैं। इस से उनकी अपनी संस्कृति और भी समृद्ध होती है, ना कि समाप्त .. शायद ...

सुनील गाँगुली जी ने एचएमवी इंडिया (अब सारेगामा इंडिया), कॉनकॉर्ड रिकॉर्ड्स और सागरिका कंपनी के 'बैनर' तले कई 'एल्बम' बनाए थे। शुरूआती दौर में "अखिल भारतीय युवा गिटार प्रतियोगिता" में भाग लेकर विजयी प्रतियोगी बने थे। तत्कालीन महानतम गायक व संगीतज्ञ उस्ताद बड़े गुलाम अली खान के सहयोग से आकाशवाणी ('ऑल इंडिया रेडियो') में प्रवेश पाकर इन्हें अपनी "वादन की गायकी" को देश भर में विस्तार देने का मौका मिला था। उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत के भी ज्ञाता होने के नाते उन्होंने 'इलेक्ट्रिक' हवाइयन गिटार पर शास्त्रीय राग पर आधारित धुनों और गतों को बजाने की भी एक अनूठी शैली विकसित की थी।

आकाशवाणी ('ऑल इंडिया रेडियो')-कलकत्ता और बॉम्बे (अब क्रमशः कोलकाता और मुम्बई) में, रेडियो सीलोन और दूरदर्शन के कई कार्यक्रमों में भी वह नियमित कलाकार रहे थे। समस्त भारत में उनके कई सार्वजनिक प्रदर्शन हुए थे, विशेषकर कलकत्ता, बॉम्बे, दिल्ली, लखनऊ, पटना, गुवाहाटी, अगरतला में। एक बार मुंबई में पूरी रात "वन-मैन शो' किए थे। 'आई आई टी', 'एन आई टी', क्षेत्रीय इंजीनियरिंग कॉलेजों जैसे उच्च शैक्षणिक संस्थानों में प्रायः होने वाले 'कॉलेज फेस्ट' में भी सफ़ल प्रदर्शन किए थे। उनके प्रदर्शन में किसी भी गायक-गायिका की तरह उनके साथ संगीतकारों का एक बड़ा समूह रहता था। रहता भी भला क्यों नहीं .. वह अपनी "वादन की गायकी" शैली में एक सफ़ल गायक / वादक तो थे ही ना .. और आज भी अपने 'इलेक्ट्रिक' हवाइयन गिटार से निकली "वादन की गायकी" वाली मधुर और मनमोहक आवाज़ की तरंगों पर तैरते हुए सुनील गाँगुली जी अमर हैं और रहेंगे भी .. बस यूँ ही ...

चलते-चलते .. आइए .. अंत में 'यूट्यूब' पर उपलब्ध उनकी कुछेक "वादन की गायकी" को सुनते हैं और उनकी प्रतिभा को नमन करते हैं .. बस यूँ ही ...



(उपरोक्त दोनों 'यूट्यूब' क्रमशः - @Sunil Ganguly, Guitarist. / @Saregama Bengali. के सौजन्य से।)