कई बार अगर हमारे जीवन में सम्पूर्णता, परिपूर्णता या संतृप्ति ना हो तो प्रायः हम कतरनों के सहारे भी जी ही लेते हैं .. मसलन- कई बार या अक़्सर हम अपने वर्त्तमान की अँगीठी की ताप को दरकिनार कर, उस से परे जीवन के अपने चंद अनमोल बीते लम्हों की यादों की कतरनों के बने लिहाफ़ के सहारे ऊष्मीय सुकून पाने की कोशिश करते हैं .. नहीं क्या !? ...
यूँ तो दर्जियों को प्रायः हर सुबह अपनी दुकान के बाहर बेकाम की कतरनों को बुहार कर फेंकते हुए ही देखा है, परन्तु कुछ ज़रूरतमंदों को या फिर हुनरमंदों को उसे बटोर-बीन कर सहेजते हुए भी देखा है अक़्सर ...
इन कतरनों से कोई ज़रूरतमंद अपने लिए या तो सुजनी बना लेता है या तकिया या फिर लिहाफ़ यानि रज़ाई बना कर ख़ुद को चैन, सुकून की नींद देता है या तो फिर .. कोई हुनरमंद इन से बनावटी व सजावटी फूल, गुड्डा-गुड़िया या फिर सुन्दर-सा, प्यारा-सा, मनलुभावन कोलाज (Kolaj Wall Hangings या Wall Piece) बना कर घर की शोभा बढ़ा देता है या किसी का दिल जीत लेने की कोशिश करता है, भले ही वो घर की दीवार ही क्यों ना हो .. शायद ...
अजी साहिब/साहिबा ! हमारी प्रकृति भी कतरनों से अछूती कहाँ है भला ! .. तभी तो काले-सफ़ेद बादलों की कतरनों से स्वयं को सजाना बख़ूबी जानती है ये प्रकृति .. है ना !? पूरी की पूरी धरती तालाब, झील, नदी, साग़र के रूप में पानी की कतरनों से अंटी पड़ी है। पहाड़, जंगल, खेत, ये सब-के -सब कतरन ही तो हैं क़ुदरत के .. या यूँ कहें की सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ही सूरज, चाँद-तारे, ग्रह-उपग्रह जैसे विशाल ठोस पिंडों की कतरन भर ही तो हैं .. शायद ...
ख़ैर ! बहुत हो गई आज की बतकही और साल-दर-साल स्कूल-कॉलेजों के पाठ्यपुस्तकों के आरम्भ वाली पढ़ी गयी भूमिका के तर्ज़ पर बतकही या बतोलाबाजी वाली भूमिका .. बस यूँ ही ...
अब आज की चंद पंक्तियों की बात कर लेते हैं .. आज के इलेक्ट्रॉनिक (Electronic) युग में ये कहना बेमानी होगा कि मैं अपनी कलम की स्याही से फ़ुर्सत में लिखी डायरी के कागज़ी पन्नों से या पुरानी फ़ाइलों से कुछ भी लेकर आया हूँ। दरअसल आज की चंद पंक्तियाँ हमने अपने इधर-उधर यानि अपने ही इंस्टाग्राम (Instagram), यौरकोट (Yourquote) और फेसबुक (Facebook) जैसे सोशल मीडिया (Social Media) से या फिर गुमनाम पड़े अपने कीप नोट्स (Keep Notes) जैसे एप्प (App. यानि Application) के वेब-पन्नों (Web Page) से कतरनों के रूप में यहाँ पर चिपका कर एक कोलाज बनाने की एक कोशिश भर की है .. बस यूँ ही ...
वैसे यूँ तो धर्म-सम्प्रदाय, जाति-उपजाति, नस्ल-रंगभेद, देश-राज्य, शहर-गाँव, मुहल्ले-कॉलोनी, गली-सोसायटी (Society/Apartment) के आधार पर बँटे हम इंसानों की तरह हमने अल्लाह, गॉड (God), भगवान को बाँट रखा है। हम बँटवारे के नाम पर यहाँ भी नहीं थमे या थके, बल्कि भगवानों को भी कई टुकड़ों में बाँट रखा है। मसलन- फलां चौक वाले हनुमान जी, फलां बाज़ार वाले शंकर जी, फलां थान (स्थान) की देवी जी, वग़ैरह-वग़ैरह ... वैसे ही चंद बुद्धिजीवियों ने ब्लॉग, फ़ेसबुक, इंस्टाग्राम और यौरकोट जैसे सोशल मीडिया वाले चारों या और भी कई उपलब्ध मंचों को भी निम्न-ऊँच जैसी श्रेणियों में बाँट रखा है .. शायद ... पर हम ऐसा नहीं मानते .. ये मेरा मानना भर है .. हो सकता है गलत भी/ही हो ... पर हम ने तो हमेशा इन सब का अन्तर मिटाना चाहा है, ठीक इंसानों के बीच बने अन्तर मिट जाने वाले सपनों की तरह .. शायद ...
(१)
बदन पर अपने
लाद कर ब्रांडों* को,
गर्दन अपनी अकड़ाने वालों,
देखी है बहुत हमने तेरी क़वायद ...
बदन के तुम्हारे
अकड़ने से पहले ही
ब्रांडेड कफ़न बाज़ारों में कहीं
आ ना जाए तेरे भी .. शायद ...
(*ब्रांडों - Brands.)
(२)
बैठेंगे कब तक तथाकथित राम और कृष्ण के भरोसे,
भला कब तक समाज और सरकार को भी हम कोसें,
मिलकर हम सब आओ संवेदनशील समाज की सोचें,
सोचें ही क्यों केवल , आओ ! हर बुराई को टोकें, रोकें .. बस यूँ ही
(३)
हिदायतें जब तक नसीहतों-सी लगे तो ठीक, पर ..
जब लगने लगे पाबन्दियाँ, तो नागवार गुजरती है।
सुकून देती तो हैं ज़माने में, गलबहियाँ बहुत जानाँ,
पर दम जो घुटने लग जाए, तो गुनाहगार ठहरती है।
(४)
साहिब ! नाचना-गाना बुरा होता है नहीं।
पुरख़े कहते हैं ... हैं तो यूँ ये भी कला ही।
कम-से-कम ... ये है मुफ़्तख़ोरी तो नहीं।
और वैसे भी तो है कला जहाँ होती नहीं,
प्रायः पनपता तो है वहाँ आतंकवाद ही .. शायद ...
(लोगबाग द्वारा कलाकार को "नचनिया-बजनिया वाला/वाली" या "नाटक-नौटंकी वाला/वाली" सम्बोधित कर के हेय दृष्टिकोण से आँकने के सन्दर्भ में।)
(५)
नीति के संग नीयत भी हमारी ,
नियत करती है नियति हमारी .. शायद ...
(६)
होड़ में बनाने के हम सफलता के फर्नीचर ,
करते गए सार्थकता के वन को दर-ब-दर .. शायद ...
(७)
पतझड़ हो या फिर आए वसंत
है साथ हमारा अनवरत-अनंत .. शायद ...
(८)
छोटे-से जीवन की
कुछ छोटी-छोटी यादें ,
कुछ लम्हें छोटे-छोटे ...
ताउम्र आते हैं
जब कभी भी याद
मन को हैं गुदगुदाते .. बस यूँ ही ...
(९)
यहाँ काले कोयले की कालिमा भी है
और सेमल-पलाश की लालिमा भी है .. शायद ...
(झारखंड राज्य के धनबाद जिला के सन्दर्भ में)
(१०)
बौराया है मन मेरा, मानो नाचे वन में मोर,
अमराई में जब से यहाँ महक रहा है बौर।
भटक रहा था मन मेरा बनजारा चहुँओर,
पाया ठिकाना, पाकर वह तेरे मन में ठौर।
हर पल एहसास तेरा, मन खींचे तेरी ओर,
तन्हाई में अक्सर किया, ऐसा ही मैंने गौर .. बस यूँ ही ...
(११)
सिन्दूरी सुबह, बासंती बयार ...
सुगंध, एहसास, मन बेकरार .. बस यूँ ही ...
(१२)
मन तो है आज भी नन्हा, मासूम-सा बच्चा,
बचपन के उसी मोड़ पर है आज भी खड़ा,
अपने बचकाना सवाल पर आज भी अड़ा
कि उनका जुम्मा, हमारा मंगल क्यों है बड़ा.. शायद ...
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