हम ने गत वर्ष इसी माह अपनी बतकही के तहत "हलकान है भकुआ - (१)" शीर्षक के साथ ही, आगे भी एक श्रृंखला के सिलसिले के बारे में सोची थी, पर नियमित हो ना पाया। वैसे हमारा ही नहीं, आप सभी का भी, भकुआ नाम का यह चरित्र (काल्पनिक) आज भी निरन्तर अपनी हलकानी से परेशान रहता है बेचारा ... च् .. च् .. च् ...
पर आज वह मन ही मन बहुत ही खुश है, इसी से आज की बतकही के अंत में उसकी ख़ुशी देख कर कर, शीर्षक में हम "हलकान है भकुआ - (२)" नहीं लिख पाए। वैसे इस शीर्षक से भी शीघ्र मिलवाने की चेष्टा रहेगी हमारी। फ़िलहाल तो .. आइए, देखते हैं, हमेशा हलकान रहने वाले भकुआ की आज की मिलने वाली ख़ुशी की वह अनूठी वजह क्या है भला ! .. बस यूँ ही ...
ज्वलंत समस्या दिवस ...
" जैसे इन दिनों कई राज्यों की सत्तारूढ़ सरकार द्वारा हर महीने के पहले और तीसरे मंगलवार को या कभी-कभी शनिवार को भी "संपूर्ण समाधान दिवस" आयोजित किया जाता है ; ठीक वैसे ही उसके उलट, सरकार के विरोध में इस बार की मासिक गोष्ठी या दो महीने बाद होने वाले वार्षिक सम्मेलन का विषय हम लोग रखते हैं -"ज्वलंत समस्या दिवस"। " - 'हॉल' में 'माईक' पर यह आवाज़ गूँज रही है .. शहर की एक साहित्यिक संस्था की अध्यक्ष महोदया - श्रीमती रंजना मिश्रा जी 'पोडियम' के पीछे से बोल रही हैं - " किसी को कोई संदेह हो, तो अभी स्पष्ट कर लीजिएगा आप लोग और ये कब होना है, उस की तारीख़ और समय भी आप लोग विचार विमर्श कर के, सबकी उपस्थिति की सुविधा को जानते-समझते हुए, आपस में तय कर के हमको आज ही जाने से पहले बतला दीजिए। वैसे .. 'वेन्यू' तो आप सभी को पता ही है। बस यहीं, जहाँ अभी हम सभी, हर बार की तरह उपस्थित हैं, चाय और समोसे के साथ। "
अध्यक्ष महोदया के अन्तिम वाक्य कुछ-कुछ उनके चुटीले अंदाज़ में बोलने के कारण, हॉल में उपस्थित सदस्यगण में से, प्रतिक्रियास्वरुप कुछ लोग मौन मुस्कुराहट, तो कुछ लोग अपने-अपने, अलग-अलग तरीके से हँस कर उनके अंदाज़-ए-बयां का अनुमोदन करते नज़र आ रहे हैं। कभी अध्यक्ष महोदया की तरफ, तो कभी आपस में एक-दूसरे की ओर देख कर सहमति जताते नज़र आ रहे हैं ; मानो उनकी आँखें कह रही हो - " वाह ! दी' (दीदी) आपने तो सच में कुछ क़माल-सा कर दिया है। "
"आरक्षण जैसी समस्या पर तो बोल सकते हैं ना दीदी ? " - ये इस संस्था की एक कर्मठ सदस्या - ताप्ति सिंह द्वारा पूछा गया, एक ऊहापोह भरा सवाल भर था।
"आरक्षण को समस्या मत बतलाइए, बल्कि आरक्षण का प्रतिशत जाति-विशेष के कल्याण के लिए नहीं बढ़ रहा है , उसे समस्या बतलाइए। कई समुदायों को तो अभी तक आरक्षण नहीं मिला , उन सब बातों को समस्या बतलाइए। " - अध्यक्ष महोदया की खनकदार आवाज़ माइक पर गूँजी - "आप समझ रही हैं ना मेरी बात ? खुल कर नहीं बोलना चाहती थी, पर बोल रही हूँ, कि अपनी संस्था में कई सदस्य या सदस्या भी 'ओबीसी' हैं, कुछ जनजातीय और कुछ अन्य अल्पसंख्यक भी हैं। अब अगर ऐसे में आरक्षण के विरुद्ध, विरोध में आप कुछ भी बोलेंगी, तो उन सब को बुरा लगेगा। हो सकता है, कि वे लोग इस बात से रूष्ट होकर संस्था छोड़ कर चले जाएं। संस्था आखिरकार इन्हीं के पैसों से तो चलती है ना ? समझ रही हैं ना, कि हम क्या कहना चाह रहे हैं ? हमें हमारी दुकान चलानी है तो .. सब को खुश रख के चलना होगा। हमें वही बोलना होगा, जिससे सब खुश रहें और अपनी दुकान भी चलती रहे। वैसे भी हमारे बोलने से कुछ थोड़े ही ना बदलाव आने वाला है जी। "
" तो .. दीदी ! बढ़ती जनसंख्या की समस्या पर ? " - एक अन्य सदस्या - अनुजा सिन्हा का सामान्य-सा सवाल था।
"अरे .. ना .. ना .. ये बच्चे, बढ़ती आबादी .. ये सब भी कोई समस्या है भला ? अरे ! बच्चे तो ईश्वर के वरदान हैं, उनकी देन हैं, उनके काम में कैसे ख़लल डाल सकते हैं हम भला ? वही आबादी तो हमारी ताकत हैं। हम इसी के बल पर तो पड़ोसी दुश्मन को कम से कम इस मामले में जल्द ही पछाड़ने वाले हैं। हमारे भगवानों की भी तो अनेक संतानें थीं। पूज्य राम जी भी, अपने पिता जी की तीन पत्नियों से उपजे कुल चार पुत्रों में से एक थे। कौरव सौ, तो पांडव पाँच थे। कृष्ण जी भी देवकी की आठवीं संतान थे। श्री चित्रगुप्त भगवान जी की तो दो-दो पत्नियाँ और बारह संतानें थीं जी। " - अध्यक्ष महोदया तार्किक मुद्रा में समझाते हुए उत्तर दे रहीं हैं - " दरअसल .. समस्याएँ तो सरकार की है, जो सब को सम्भाल नहीं पा रही है। सब को रोजगार नहीं दे पा रही है, तो परिवार नियोजन का राग अलाप रही है। इसीलिए सारी समस्याएँ आप तो .. बस .. आप सत्तारूढ़ सरकार से जनित ही दिखलाइये। सारी आबादी को मुफ़्त राशन, मुफ़्त बिजली देनी चाहिए सरकार को। समझ रही हैं ना आप ? इस से 'पब्लिसिटी' भी मिलेगी आपको। और फिर अपनी संस्था में ही तो कितनों की पाँच-पाँच संतानें हैं। किसी-किसी के तो मोक्ष प्राप्ति के लिए या वंश बढ़ाने के लिए , बेटे के ना पैदा होने के चक्कर में चार-चार, सात-सात बेटियाँ हैं। उनको भी तो बुरा लग सकता है यह विषय, है कि नहीं ? तो वही लिखिए, वही बोलिए, जिनमें सब खुश रहें आपसे। "
" हमारे 'एसी' जैसे उपकरण से उत्पन्न होने वाले 'ब्लैक होल' और उससे बढ़ते 'ग्लोबल वार्मिंग' की समस्या पर तो बोल ही सकते हैं ना ? " - अब तक सब कुछ ध्यानपूर्वक मौन होकर सुन रहीं, ये एक नयी सदस्या तरन्नुम ख़ातून सवाल कर रहीं हैं।
" इस को ऐसे मत बतलाइए, बल्कि हमें बतलाना होगा , कि वर्तमान सत्तारूढ़ सरकार , देश में वातावरण प्रदूषण नियंत्रित नहीं कर पा रही है। इसी कारण से 'ग्लोबल वार्मिंग' बढ़ रही है। " - अध्यक्ष महोदया फिर से समझाने लगीं -" सरकार एकदम से निकम्मी है। ऐसा ही कुछ आलेख तैयार कीजिए। "
" बाहरी घुसपैठिए शरणार्थी लोगों की अपने देश में बढ़ती आबादी की समस्या पर अगर बोलें तो कैसा रहेगा, दीदी ? " - एक युवा, पर पुरानी - सदस्या अंजना त्रिपाठी भी , जो अब तक बीच में उठ कर बाहर जा के , फोन आने पर, फोन पर किसी से बात कर रहीं थीं ; अंदर आते ही, मौका पाकर अपने मन की शंका को दूर करने के लिए पूछ बैठीं हैं।
" ये 'सीएए', 'एनआरसी', सब बेकार की बातें हैं अँजू। "बासुदेव कुटुम्बकम्" वाले देश में बाहर के कुछ शरणार्थी, भावी वोट बैंक बन कर भारत में बस भी जाते हैं तो क्या बुराई है भला ? अरे ! .. पहले तो हमें, हमारी हिंदी में घुसी चली आ रही, घुसपैठिए अंग्रेजी को रोकना होगा। तुम समझ रही हो ? यह सब से बड़ी समस्या है। अब वे लोग बेशर्म हैं, कि हमारी "लाठी" लेकर, अपना "चार्ज" जोड़कर, "लाठीचार्ज" बना लिए ; पर हम लोग तो उतने बेशर्म नहीं हो सकते हैं , कि विपत्ति में 'फेसमास्क', 'सेनेटाइजर', 'क्वारंटाइन', 'सोशल डिस्टेंसिंग' जैसे शब्दों को धड़ल्ले से 'यूज' करते रहें। इन विदेशी घुसपैठिए शब्दों को हिंदी से जल्द से जल्द विस्थापित करना होगा, वर्ना हमारी हिंदी ग़ुलाम बन कर, घुट-घुट कर मर जायेगी। ये सरकार भी ना .. एकदम निकम्मी है। कुछ भी नहीं करती। यही सब तो .. सब से बड़ी समस्या है। इन सब समस्याओं पर बात करो। अपना नाम भी होगा, अपना काम भी होगा। तुम एकदम से फ़ालतू की - 'सीएए', 'एनआरसी' की बात ले कर बैठ जाती हो। "
तभी भकुआ तिवारी, जो अध्यक्ष महोदया के घरेलू नौकर हैं और इस तरह के सम्मेलनों-गोष्ठियों में अपनी "मैडम" जी के साथ सेवा करने के लिए प्रायः आते रहते हैं, जिन्हें बुज़ुर्ग होने के नाते इज्ज़त से, सभी उपस्थित सदस्यगण तिवारी जी कहते हैं। वह अपने दाएँ हाथ में चाय की केतली और बाएं हाथ में उपस्थित लोगों की संख्या के अनुसार कुछ प्लास्टिक वाले चाय के कपों का एक खम्भानुमा ढेर लेकर प्रवेश करते है। बारह बजे के आसपास समोसा के साथ चाय की पहली ख़ेप इन्हीं के हाथों परोसी जा चुकी है। उन्हें शायद शाम के साढ़े चार बजे वाली दूसरी ख़ेप की चाय परोसने के लिए भी पहले से ही कहा हुआ है। उसी का वह पालन भर कर रहे हैं .. शायद ...
एक-दो मिनट के लिए सभी की हलचल भरी हरक़तें बढ़ सी गई, क्यों कि अभी माइक मौन है। अब फिर से सब सामान्य हो गए हैं। भकुआ तिवारी जी चाय परोस रहे हैं। सभी की कुर्सी तक वह एक-एक कर जा रहे हैं और लोग बारी-बारी से ऊपर से एक कप खींच कर केतली की ओर बढ़ाते जा रहे हैं। अब फिर से लगभग शांति व्याप्त हो गई है। सब का ध्यान मंच पर। यह अलग बात है, कि कभी-कभार बीच-बीच में किसी-किसी के मुँह से चाय सुरकने की आवाज़ - "सुर्र -सुर्र" करके सुनायी दे जा रही है।
मंच पर विराजमान माइक से अध्यक्ष महोदया - श्रीमती रंजना मिश्रा जी की आवाज़ हॉल में फिर से गूँजी - " आप समस्या का विषय भी चुनें तो उनमें पैनी बातें मत कहिए। इस से आपकी साख खराब होती है। सोशल मीडिया पर आपके 'फॉलोवर्स' घटते हैं। आपकी पोस्ट पर कोई 'लाइक' या 'कमेंट' नहीं करता है। ऐसे में 'सोसाइटी' में आपकी 'स्टेटस' को धक्का पहुँचता है। है कि नहीं ? समझ रहे हैं ना आप लोग। आप सभी को यहाँ, आप लोगों के ही बीच आज उपस्थित संध्या अग्रवाल जी से सबक़ लेनी चाहिए। सोशल मीडिया पर इनके एक लाख से ज्यादा 'फॉलोवर्स' हैं। हजारों की संख्या में 'लाइक', 'कॉमेंट्स' आते रहते हैं इनके पोस्ट पर। इनकी तरह कोई रूमानी गज़ल लिखिए। समय-समय पर त्योहारों के अनुसार पैरोडी भजन लिखिए। सभी व्रत-उपवास की महिमा लिखिए ; जिन से मद्यपान, ध्रूमपान जैसी बुरी लतों के बावज़ूद भी सबके पति की आयु लम्बी हो जाती हो, ताकि सब औरतें अपने पति से पहले सुहागिन ही मरें। " - अचानक अध्यक्ष महोदया, सामने 'पोडियम' पर रखे 'मिनरल वॉटर' की बोतल को मुँह से लगा कर, लगातार बोलने के कारण, अपने सूखते गले को तर कर के, एक नज़र घड़ी पर डालते हुए बोलीं - " वैसे भी समस्या के बारे में सोचना साहित्यकार का काम नहीं है, बल्कि सरकार का है, हम 'टैक्स' क्यों भरते हैं ? इसी के लिए ना ?
समझ रहे हैं ना आप लोग .. हम कहना क्या चाह रहे हैं ? "
समवेत स्वर में आधा से ज्यादा, लगभग तीन चौथाई सदस्यों ने हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा - कोई " हाँ 'मैम' ", कोई " हाँ दीदी " .. आप सोलह आना सच कह रही हैं। "
" इसीलिए तो दीदी हम .. कभी भी किसी समस्या पर लिखते ही नहीं। हमेशा प्राकृतिक सुन्दरता को लेकर शब्द-चित्र बनाते हैं। अरे दीदी, आप ठीक ही कह रही हैं, कि समस्या को दूर करने के लिए सरकार तो हैं ही ना ! फिर भगवान भी तो हैं ही ना दीदी ! बुजुर्गों की बात को आज कल हम नए फैशन में भुलते जा रहे हैं, कि - होइए वही जो राम रचि राखा। है कि नहीं ? "- यह शालिनी श्रीवास्तव जी बोल रही है। बोलते-बोलते कई दफ़ा उनकी जीभ, उनके होठों पर पुते 'लिपस्टिक' की परतों को मानों किसी राजमिस्त्री की "करनी" की तरह स्पर्श कर-कर के उसे अपनी जगह पर जमे रहने के आश्वासन देने का काम कर रही है।
"आप सही कह रहीं हैं शालिनी जी। अरे लिखना ही है तो रूमानी लिखिए, ग़ज़ल लिखिए, चाँद लिखिए, चाँदनी लिखिए, कोई धार्मिक कथा लिखिए, किसी दिवस विशेष पर लिखिए या फिर किसी शहीद की मौत पर अपने वातानुकूलित कमरे में चाय की चुस्की के साथ मर्सिया लिखिए .. समस्याओं को तो हमेशा रहनी है। किसके पास समस्या नहीं है जी ? घर-घर में तो समस्या ही समस्या है। फिर ऐसे में किसी रोने-धोने वाली मनहूस "आर्ट फ़िल्म" या "दूरदर्शन" की किसी 'टीवी सीरियल' या 'टेलीफिल्म' की तरह , समस्याओं की कालिख से पुती आपकी नीरस पोस्टों को कौन पढ़ेगा जी ? " - ये शुरू से मौन, एक सभ्य सदस्य - श्री मनोज यादव जी हैं - " एकदम सही कह रही हैं आप। "
" समाज में किन्नरों की समस्या पर भी बोल सकते हैं आप लोग। पर इसका ये मतलब नहीं है, कि हमारा समाज ही किन्नर बन कर मूक बैठा है, आप इसको ही समस्या बतलाइए। कभी नहीं। ये बतलाने की क्या जरूरत पड़ी है ? " - बीच में अध्य्क्ष महोदया फिर से बोल पड़ीं हैं।
तभी बाहर ही एक 'स्टूल' पर बैठे भकुआ तिवारी जी अचानक से अंदर प्रवेश करते हैं। अंदर उपस्थित लोगों को भी बाहर से कुछ अनचाहे शोर सुनायी पड़ रहे हैं। सबका ध्यान अब तिवारी जी और बाहर से आने वाले शोर की तरफ खींच जाता है।
" मैडम ! बाहर सड़क किनारे के कूड़े की ढेर पर, वो समोसे वाले जूठे कागज़ी प्लेट और चाय वाले जूठे कप फेंके थे, तो उसी को देख कर कुछ हिजड़े आ गए हैं, गेट के भीतर। उनको लग रहा है, कि कोई भोज-भात है यहाँ पर। " - एक साँस में तिवारी जी अध्यक्ष महोदया को, हिजड़ों से जल्द-से जल्द छुटकारा पाने की घबराहट में बोल गए हैं।
" मंजरी जी ! तिवारी जी को दस रुपए दे दीजिए। " अध्यक्ष महोदया ने अपनी नाक पर नीचे की ओर सरक आई, अपनी चश्मे को नाक पर वापस ऊपर चढ़ाते हुए , संस्था की कोषाध्क्षय महोदया को आदेशात्मक लहज़े में अभी बोल रही हैं - " संस्था के ख़र्चे में चढ़ा दीजिएगा।" फिर मंजरी जी के 'पर्स' से निकल कर, दस रुपए का एक नोट, तिवारी जी के हाथ में जाते ही, अध्क्षय महोदया अपनी बात को तिवारी जी की ओर मुख़ातिब हो कर बोल रहीं है - " ये दस रुपया देकर भगाइए उन सब को जल्दी। ना जाने कहाँ-कहाँ से आ जाते हैं ये लोग ? अपने पिछले जन्मों का ही तो फल भुगत रहे हैं ये लोग। "
" जाति- धर्म में बंटे हमारे इस समाज की हो रही दुर्गति को तो समस्या बतला कर कुछ लिख सकते हैं ना 'आँटी' जी ? " - ये है सुमन झा, जो अभी-अभी स्नातक हुआ है और एक तयशुदा राशि की भुगतान कर के इस संस्था का नया-नया सदस्य बना है, का एक हिचकता हुआ-सा प्रश्न है। हिचकता हुआ-सा, क्योंकि अब तक तो वह सारी समस्याओं के विषयों पर अपनी 'आँटी' जी की नकारात्मक प्रतिक्रिया ही सुनता आ रहा है।
" सुमन, तुम अभी बच्चे हो। हमारे बाल धूप में नहीं सफ़ेद हुए हैं। हम लोगों ने दुनिया देखी है बेटा। अभी तुम नए-नए आये हो यहाँ, शायद आज दूसरी बार, यूँ ही आते रहोगे तो, बहुत कुछ सीखने के लिए मिलेगा। ये धर्म, जाति, पंथ वाले बँटवारे हमारी समस्या नहीं है, बल्कि हमारी धर्म निरपेक्षता कम हो गयी, यही समस्या है। " - अध्यक्ष महोदया अपनी बुज़ुर्गियत टपकाती हुई, अपनी नसीहत देती, अपनी गर्दन अकड़ाती हुई बोल रही हैं - " वैसे भी तुम अपनी ही बिरादरी के, ब्राह्मण हो, तो जल्दी ही सीख जाओगे। जानते हो, ये 'सीएए', 'एनआरसी' जैसी बला ला कर और 370, तलाक़ जैसे मुद्दे को हटा कर, देश से धर्म निरपेक्षता की भावना को कम करते हुए, देश को बर्बाद करने पर तूली हुई है । "
" जी ! आँटी जी। फिर और कुछ विषय पर सोचते हैं। आप जैसा कहेंगी, जिस विषय के लिए मार्गदर्शन करेंगी, उसी पर लिखेंगे, बोलेंगे। " - अपनी 'आँटी' जी की हाँ में हाँ मिलाते हुए, कुछ-कुछ संदेहात्मक सोच के साथ सुमन झा बोल रहा है।
यूँ तो गोष्ठी अभी और भी एक घण्टा भर चलने वाली है। इसकी समाप्ति पर सभी लोगों के वापस जाने के लिए हॉल से बाहर निकलने के पहले बाहर 'स्टूल' पर किसी द्वारपाल या आदेशपाल की तरह बैठे 'तिवारी जी' अपने एक झोले में कुछ रख रहे हैं। ज्यादा कुछ नहीं, बस दो-तीन सदस्यों के बीच में ही चले जाने से बच गए समोसे हैं। मसलन - दीपाली जी की सास की तबीयत अचानक बिगड़ जाने के कारण, उनके घर से फोन आने पर मन मार कर, सब को 'सॉरी' बोल कर जाना पड़ा है। मनीषा जी के पति को अचानक 'ऑडिट' के लिए सरकारी दौरे पर शाम की 'फ्लाइट' से बाहर जाने के सरकारी आदेश मिलने से, उनके जाने की 'पैकिंग' के लिए बीच में ही जाना पड़ गया है। दीप्ति का 'बॉय फ्रेंड' आज अपने घर पर अकेले है, परिवार के सभी लोग सिनेमा देखने गए हैं, 'नून शो' शायद। तो दीप्ति भी इस सुनहरे अवसर के लुत्फ़ के लिए, अपनी मम्मी की अचानक बीमारी का बहाना बना कर जा चुकी है।
साथ ही तिवारी जी उस बड़े-से डिब्बे को भी अपने झोले में अंटा रहे हैं, जो पिछले परसों मनाए गए शब-ए-बारात के विशेष हलवे से भरे हुए, आज तरन्नुम ख़ातून मैडम द्वारा उनके 'मैडम' जी को सुबह मिले थे। मैडम जी ने पूरा का पूरा डिब्बा, जस का तस, सब की नज़रों से बचा कर सुबह ही तिवारी जी को दे दीं हैं। भकुआ तिवारी जी को उनके घरेलू नौकर होने के कारण ही अच्छी तरह मालूम है, कि मैडम जी ये सब मामले में बहुत ही नियम से रहती हैं। "छुआ" पानी तक नहीं पीती हैं।
भकुआ तिवारी जी अपने मैडम जी की आज की सुनी हुई, कुछ समझी हुई, कुछ ना समझी गयी बातों में, केवल इस बात से ही खुश हैं, कि बेकार ही में वह अपने मात्र छः बच्चों, पाँच बड़ी बेटियाँ और बहुत ओझा-गुणी, मनौती-मन्नत के बाद मिले, सब से छोटे कुलदीपक बेटे -धनेसरा, के कारण चिंतित रहते हैं। वो भी ससुरी सरकार के "परिवार नियोजन, परिवार नियोजन" टीवी पर दिन रात चिल्लाने से। मैडम जी कितनी अच्छी बात बोलीं हैं आज, कि भगवानो के (भगवान को) भी तो ओतना-ओतना (उतना-उतना) बच्चा हुआ है। तो .. हम लोग तो उनकरे (उन्हीं के) बनाए इंसान हैं ना ? आज घर जा के अपनी मेहरारू (जोरू) झुमरिया को भी ये सब बतलायेंगे। वो तो छौये गो ( छः ही) बच्चे में ही अपने लिए "अपरेसन" (ऑपरेशन) के लिए सोच रही है। झूठमुठ के अपने भी परेशान रहती है और हमको भी परेशान करती है .. .. पगली ...