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Saturday, March 27, 2021

सुलग रही है विधवा ...

गहनों से सजानी थी उसे जो अगर अपनी दुकानें,

तो खरा सोना पास अपने यूँ भला रखता क्योंकर?


सकारे ही तोड़े गए सारे फूल, चंद पत्थरों के लिए,

बाग़ीचा सारा, सारा दिन यूँ भला महकता क्योंकर?


रक़ीब को लगी है इसी महीने जो सरकारी नौकरी,

तो सनम, संग बेरोज़गार के यूँ भला रहता क्योंकर?


गया था सुलझाने जो जाति-धर्म के मसले नासमझ,

तो शहर के मज़हबी दंगे में यूँ भला बचता क्योंकर?


रोका है नदियों को तो बाँध ने बिजली की ख़ातिर पर,

है ये जो सैलाब आँखों का, यूँ भला ठहरता क्योंकर?


बिचड़ा बन ना पाया, जब जिस धान को उबाला गया,

आरक्षण न था, ज्ञानवान आगे यूँ भला बढ़ता क्योंकर?


अब पहुँचने ही वाला है गाँव ताबूत तिरंगे में लिपटा,

सुलग रही है विधवा, चूल्हा यूँ भला जलता क्योंकर?


नाम था पूरे शहर में, वो कामयाब कलाबाज़ जो था,

रस्सियाँ कुतरते रहे चूहे, यूँ भला संभलता क्योंकर?


व्यापारी तो था नामचीन, पर दुकान खोली रोली की

पास गिरजाघर के, व्यापार यूँ भला चलता क्योंकर?


रंग-ओ-सूरत से जानते हैं लोग इंसानों को जहां में, 

मन फिर किसी का कोई यूँ भला परखता क्योंकर?



Saturday, November 16, 2019

मैल हमारे मन के ...

ऐ हो धोबी चच्चा !
देखता हूँ आपको सुबह-सवेरे
नित इसी घाट पर
कई गन्दे कपड़ों के ढेर फ़िंचते
जोर से पटक-पटक कर
लकड़ी या पत्थर के पाट पर
डालते हैं फिर सूखने की ख़ातिर
एक ही अलगनी पर बार- बार
कर देते हैं आप हर बार
हर मैले-कुचैले कपड़े भी
बिल्कुल चकमक झकास
किसी डिटर्जेंट पाउडर के
चकमक विज्ञापन-से
है ना .. धोबी चच्चा !

मैं आऊँ ना आऊँ रोजाना
जाड़ा , गर्मी हो या बरसात
मिलते हैं सालों भर पर आप
होता हूँ हैरान पर
हर बार ये देख कर .. कि ...
मिट जाते है किस तरह भला
धर्म और जाति के भेद
उच्च और नीच के भेद
लिंग और वर्ण के भेद
अस्पताल के चादर और
शादी के शामियाने के भेद
"छुतका" के कपड़े और
शादी के हल्दी वाले कपडे के भेद
जब एक ही नाद में आप अपने
डुबोते हैं कपड़े सभी तरह के
पटकते भी तो हैं आप
बस एक ही पाट पर
और डालते भी हैं सूखने
गीले कपड़े झटक-झटक कर
जब एक ही अलगनी पर
है ना .. धोबी चच्चा !

काश ! .. ऐसा कोई नाद होता
काश ! .. ऐसा कोई पाट होता
जहाँ मिट जाते सारे
मैल हमारे मन के
हमारे इस समाज से
किसी भी तरह के भेद-भाव के
ना जाति .. ना धर्म ..
ना अमीर .. ना ग़रीब ..
ना उच्च .. ना नीच ..
ना नर .. ना नारी ..
सब होते एक समान
ना होता कोई दबा-सकुचाया
ना करता कोई भी इंसान
"मिथ्या" या "मिथक" अभिमान
फिर होकर निर्मल मन हमारे
सब एक ही वर्ग के हो जाते
है ना .. धोबी चच्चा !


Friday, October 18, 2019

मन को जला कर ...

माना कि ... बिना दिवाली ही
जलाई थी कई मोमबत्तियाँ
भरी दुपहरी में भीड़ ने तुम्हारी 
और कुछ ने ढलती शाम की गोधूली बेला में
शहर के उस मशहूर चौक पर खड़ी मूक
एक महापुरुष की प्रस्तर-प्रतिमा के समक्ष
चमके थे उस शाम ढेर सारे फ़्लैश कैमरे के
कुछ अपनों के .. कुछ प्रेस-मिडिया वालों के
कैमरे के होते ही सावधान मुद्रा में
गले पर जोर देने के लिए
कुछ अतिरिक्त हॉर्स-पॉवर खर्च करती
बुलंद कई नारे भी तुम्हारे चीख़े थे ...

जो कैमरे की क़वायद आराम मुद्रा में होते ही
तुम्हारी आपसी हँसी-ठिठोली में बदली थी
रह गईं थीं पीछे कुछ की छोड़ी जलती मोमबत्तियाँ
चौक पर वहीं जलती रही .. पिघलने तक ..
जैसे छोड़ आते हैं किसी नदी किनारे
बारहा जलती हुई चिता लावारिश लाश के ..
शहर के नगर-निगम वाले
और शेष ... लोड शेडिंग में काम आ जाने की
सोच लिए कुछ लोगों की मुठ्ठीयों में
या कुछ के झोले में बुझी ख़ामोश 
बेजान-सी बस दुबकी पड़ी थी निरीह मोमबत्तियाँ ..

और .. फिर .. कल सुबह के अख़बार में
अपनी-अपनी तस्वीर छपने की आस लिए
लौट गए घर सभी ... खा-पीकर सोने आराम से ...
अरे हाँ ! घर लौटने वाली बात से
याद आई एक बात ... आज ही तो तुम्हारे
तथाकथित राम वन-गमन के बाद
सीता और लक्ष्मण संग अयोध्या लौटे थे
पर आज हमने भी तस्वीर के सामने 'उनकी'
एल ई डी की रोशनी के बाद भी ..
की है एक रस्मअदायगी .. निभाया है एक परम्परा
अपनी संस्कृति जो ठहरी .. एक दिया है जलाया
फिर वापस घर मेरा सुहाग क्यों नहीं लौटा !???
कहते हैं सब कि वो ..  शहीद हो चुके ...

पर .. मानता नहीं मन मेरा ..एक उम्मीद अभी भी
इस दिया के साथ ही है जल रही
कर तो नहीं पाई तुम्हारी जलाई
अनेकों मोमबत्तियाँ भी रोशन घर मेरा ..
पर .. तुम्हारे जलते पटाखे .. चलते पटाखे ..
वो शोर .. वो धुआँ .. वो चकमकाहट ...
सारे के सारे .. उनके तन के चीथड़े करने वाले
गोलियों-बारूद की याद ताज़ा कर
बढ़ा देते हैं ... मन की अकुलाहट
ना मालूम कितनी दिवालियाँ बितानी होगी
मुझको इसी तरह उनकी तस्वीर के आगे
एक दिया जला कर ... और  संग अपने ..
बुझे-बुझे अपने मन को जला कर ...