Saturday, July 17, 2021

एतवार के एतवार ये ...

मेड़ों से 

सीलबंद

खेतों के 

बर्तनों में

ठहरे पानी 

के बीच,

पनपते

धान के 

बिचड़ों की तरह,

आँखों के

कोटरों की

रुकी खारी 

नमी में भी

उगा करती हैं, 

अक़्सर ही

गृहिणियों की 

कई कई उम्मीदें .. शायद ...


आड़ी-तिरछी 

लकीरें

इनके पपड़ाए

होठों की,

हों मानो ...

'डिकोडिंग' 

कोई ;

एड़ियों की 

इनकी  शुष्क 

बिवाई की 

कई आड़ी-तिरछी 

लकीरों से सजे,

चित्रलिपिबद्ध

अनेक गूढ़ 

पर सारगर्भित

'कोडिंग' के 

सुलझते जैसे .. शायद ...


गर्म मसाले संग

लहसुन-अदरख़ में

लिपटे मुर्गे, मांगुर या 

झींगा मछलियों के

लटपटे मसाले वाली,

या कभी सरसों या 

पोस्ता में पकी 

कड़ाही भर

रोहू , कतला या 

हिलसा के 

झोर की गंध से,

'किचन' से लेकर

'ड्राइंग रूम' तक,

अपने घर की और ...

आसपड़ोस तक की भी,

सजा देती हैं अक़्सर

एतवार के एतवार ये .. शायद ...


शुद्ध शाकाहारी

परिवारों में भी

कभी पनीर की सब्जी,

या तो फिर कभी

कंगनी या मखाना 

या फिर .. 

बासमती चावल की 

स्वादिष्ट सोंधी 

रबड़ीदार तसमई से

सजाती हैं,

'बोन चाइना' की 

धराऊ कटोरियाँ

एतवार के एतवार ये,

ताकि ...

सजे रहें ऐतबार,

घर में हरेक 

रिश्तों के .. बस यूँ ही ...


"गृहिणियों" .. यहाँ, यह संज्ञा, केवल उन गृहिणियों के लिए है, जो आज भी कई भूखण्डों पर, चाहे वहाँ के निवासी या प्रवासी, किसी भी वर्ग (उच्च या निम्न) के लोग हों, उनके परिवारों में महिलायें आज भी खाना बनाने और संतान उत्पन्न करने की सारी यातनाएँ सहती, एक यंत्र मात्र ही हैं। घर-परिवार के किसी भी अहम फैसले में उनकी कोई भी भूमिका नहीं होती। 

बस .. प्रतिक्रियाहीन-विहीन मौन दर्शक भर .. उनकी प्रसव-पीड़ा की चीख़ तक भी, उस "बुधिया" की चीख़ की तरह, आज भी "घीसू" और "माधव" जैसे लोगों द्वारा अनसुनी कर दी जाती हैं .. बस यूँ ही ... 】.








Wednesday, July 14, 2021

इक बगल में ...

आना कभी
तुम ..
किसी
शरद पूर्णिमा की,
गुलाबी-सी 
हो कोई जब
रूमानी, 
नशीली रात,
लेने मेरे पास
रेहन रखी 
अपनी 
साँसें सोंधी
और अपनी 
धड़कनों की
अनूठी सौग़ात।

दिन के 
उजाले में
पड़ोसियों के
देखे जाने
और फिर ..
रंगेहाथ हमारे 
पकड़े जाने का
भय भी होगा।
शोर-शराबे में, 
दिन के उजाले में,
रूमानियत 
भी तो यूँ ..
सुना है कि
सिकुड़-सा 
जाता है शायद।

दरवाजे पर 
तो है मेरे
'डोर बेल',
पर बजाना 
ना तुम,
धमक से ही
तुम्हारी 
मैं जान
जाऊँगा
जान ! ...
खुलने तक 
दरवाजा,
तुम पर
संभाले रखना 
अपनी जज़्बात।

यक़ीन है,
मुझे कि तुम
यहाँ आओगी
सजी-सँवरी ही, 
महकती 
हुई सी,
मटकती
हुई सी,
फिर अपनी 
बाँहों में
भर कर 
मुझको,
मुझसे ही
लिपट जाओगी,
लिए तिलिस्मात।

पर मुझे भी
तो तनिक
सजने देना,
तत्क्षण हटा
खुरदुरी बढ़ी 
अब तक की दाढ़ी,
'आफ़्टर शेव' 
और 'डिओ' से 
महकता हुआ,
सिर पर उगी
चाँदी के सफ़ेद
तारों की तरह,
झक्कास सफ़ेद 
लिबास में खोलूँगा 
दरवाजा मैं अकस्मात।

जानता हूँ
कि .. तुम 
ज़िद्दी हो,
वो भी
ज़बरदस्त वाली,
जब कभी भी
आओगी तो,
जी भर कर प्यार 
करोगी मुझसे,
सात फेरे और
सिंदूर वाले
हमारे पुराने
सारे बंधन
तुड़वा दोगी
तुम ज़बरन।

जागने के
पहले ही
सभी के,
हो जाओगी
मुझे लेकर
रफूचक्कर,
तुम्हारे 
आगमन से
प्रस्थान 
तक के 
जश्न की 
तैयारी
कितनी 
भी हो
यहाँ ज़बरदस्त।

यूँ तो 
इक बग़ल में 
मेरी सोयी होगी
अर्धांगिनी
हमारी,
हाँ .. मेरी धर्मपत्नी ..
तुम्हारी सौत।
फिर भी ..
दूसरी बग़ल में
पास हमारे
तुम सट कर
सो जाना,
लगा कर
मुझे गले 
ऐ !!! मेरी प्यारी-प्यारी .. मौत .. बस यूँ ही ...


【 बचपन में अक़्सर हम मज़ाक-मज़ाक में ये ज़ुमले बोला-सुना करते थे ..  "एक था राजा, एक थी रानी। दोनों मर गए, ख़त्म कहानी " .. ठीक उसी तर्ज़ पर, अभी उपर्युक्त बतकही पर मिट्टी डाल के, उसे सुपुर्द-ए-ख़ाक करते हैं और ठीक अभी-अभी "इक बगल में ..." जैसे वाक्यांश/शीर्षक को मेरे बोलने/सुनने भर से ही, मेरे ज़ेहन में अनायास ही एक गीत की जो गुनगुनाहट तारी हुई है .. जिसके शब्द, संगीत, आवाज़ और प्रदर्शन, सब कुछ हैं .. लोकप्रिय पीयूष मिश्रा जी के ; तो ... अगर फ़ुरसत हो, तो आइए सुनते हैं .. मौत-वौत को भूल कर .. वह प्यारा-सा गीत ...
 .. बस यूँ ही ... 】

( कृपया  इस गीत का वीडियो देखने-सुनने के लिए इसके Web Version वाला पन्ना पर जाइए .. बस यूँ ही ...)






Tuesday, July 13, 2021

बाबिल का बाइबल ...

इसी रचना/बतकही से :-

"अभी हाल-फ़िलहाल में सोशल मीडिया (इंस्टाग्राम) पर इसके कुछ बयान ने हम सभी का ध्यान बरबस ही अपनी ओर खींच लिया। मन किया ..अगर ये युवा सामने होता तो, उसे गले लगा कर उसे चूम ही लेता .. बस यूँ ही ..."

आज के शीर्षक का "बाइबल" शब्द हमारे लिए उतना अंजाना नहीं है, जितना शायद "बाबिल" शब्द .. वो भी एक व्यक्तिवाचक संज्ञा के रूप में हो तो। अपने पुराने नियमों के 929 अध्यायों और नए नियमों के 260 अध्यायों के तहत कुल 31102 चरणों से सजे बाइबल की सारी बातें भले ही पूरी तरह नहीं जानते हों हम, पर एक धर्मग्रंथ होने के नाते बाइबल का नाम तो कम से कम हमारा सुना हुआ है ही। अजी साहिब ! .. हम पूरी तरह अपने वेद-पुराणों को भी कहाँ जान पाते हैं भला ! .. सिवाय चंद व्रत-कथाओं, आरतियों, चालीसाऔर रामायण-महाभारत जैसी पौराणिक कथाओं के ; फिर बाइबल तो .. फिर भी तथाकथित "अलग" ही चीज है .. शायद ...
ख़ैर ! ... फ़िलहाल हम बाइबल को भुला कर, बाबिल की बात करते हैं। हम में से शायद सभी ने इरफ़ान का तो नाम सुना ही होगा ? अरे ! .. ना .. ना .. हम भारतीय बल्ला खिलाड़ी (Cricket Player) - इरफ़ान पठान की बात नहीं कर रहे ; बल्कि अभी तो हम फ़िल्म अभिनेता दिवंगत इरफ़ान खान की बात कर रहे हैं। हालांकि ये भी अपने जीवन के शुरुआती दौर में क्रिकेट के एक अच्छे खिलाड़ी रहे थे। बाबिल उनके ही दो बेटों में बड़ा बेटा है। लगभग 21 वर्षीय बाबिल, यूँ तो आज की युवा पीढ़ी की तरह सोशल मीडिया पर छाए रहने के लिए अपनी तरफ से भरसक प्रयासरत रहता है। परन्तु अभी हाल-फ़िलहाल में सोशल मीडिया (इंस्टाग्राम) पर इसके कुछ बयान ने हम सभी का ध्यान बरबस ही अपनी ओर खींच लिया। मन किया ..अगर ये युवा सामने होता तो, उसे गले लगा कर उसे चूम ही लेता .. बस यूँ ही ...
यूँ तो सर्वविदित है कि हर इंसान अपने माता-पिता का 'डीएनए' ले कर ही पैदा होता है। अब जिसके पास इरफ़ान जैसे पिता का डीएनए हो, तो उसकी इस तरह की बयानबाज़ी पर तनिक भी अचरज नहीं होता। वैसे इरफ़ान ने भी अपने नाम के माने- बुद्धि, विवेक, ज्ञान, ब्रह्म ज्ञान या तमीज़ को जीवन भर सार्थक किया ही है। अपनी मानसिकता के अनुसार, एक तो वह क़ुर्बानी (बलि) जैसी प्रथा के खिलाफ थे, जिस कारण से वह ताउम्र शुद्ध शाकाहारी थे। सभी धर्मों को समान मानते थे। पाखंड और आडम्बर के धुर विरोधी थे। बाद में उन्होंने अपने नाम के आगे लगे, जाति-धर्म सूचक उपनाम- "खान" को भी हटा दिया था। दरअसल वह वंशावली के आधार पर अपनी गर्दन अकड़ाने की बजाय अपने कामों से सिर उठाना जानते थे। तभी तो क़ुदरत से मिली अपनी जानलेवा बीमारी की वज़ह से अपनी कम आयु में भी देश-विदेश की कई सारी उपलब्धियां अपने नाम कर गए हैं इरफ़ान .. मील के एक पत्थर से भी कहीं आगे .. शायद ...
दूसरी ओर बाबिल की माँ - सुतापा सिकदर भी इरफ़ान की तरह ही, लगभग इरफ़ान की हमउम्र, एनएसडी (NSD / National School of Drama, New ) से अभिनय में स्नातक हैं। चूँकि वह पर्दे के पीछे का एक सक्रिय नाम हैं, इसीलिए शायद यह नाम अनसुना सा लगे; जब कि वह फ़िल्म निर्मात्री (Film Producer), संवाद लेखिका (Dialogue Writer) के साथ-साथ एक कुशल पटकथा लेखिका (Screenplay Writer) भी हैं।
एक तरफ इरफ़ान राजस्थानी मुस्लिम परिवार से और दूसरी तरफ सुतापा एक आसामी हिन्दू परिवार से ताल्लुक़ रखने के बावज़ूद, दोनों ने एनएसडी के कलामय प्रांगण में अपने पनपे प्रेम के कई वर्षों बाद, एक मुक़ाम हासिल करने के बाद ही शादी करने के आपसी वादे/समझौते के अनुसार, सन् 1995 ईस्वी में एक साधारण-सा अन्तरधर्मीय कोर्ट मैरिज (Court Marriage) किया था। तब शायद "लव ज़िहाद" जैसा मसला इतना तूल नहीं पकड़ा हुआ था और ना ही इरफ़ान ने आज के "लव ज़िहाद" की तरह अपना धर्म छुपा कर, सुतापा को बरगलाया था। बल्कि दोनों एक दूसरे की मानसिकता, रुचि, व्यवसाय .. सब बातों से वाकिफ़ थे और धर्म तो ... इनके आड़े आया ही नहीं कभी भी, क्योंकि जो सभी धर्मों को, पंथों को, जाति को .. एक जैसा मानता हो, सब को एक इंसान के रूप में देखता हो, वैसे इंसानों को इस जाति-वाती या धर्म-वर्म के पचड़े में क्यों पड़ना भला ! .. शायद ...
अब बाबिल के सोशल मीडिया पर ध्यान आकर्षित करने वाले बयान की बात करते हैं। अपने किसी "हिन्दू-मुस्लिम करने वाले" दकियानूस प्रशंसक द्वारा यह पूछे जाने पर कि क्या वह मुस्लमान हैं ?,  उसका जवाब भी अपने मरहूम पिता की तरह ही था, कि - " मैं बाबिल हूँ। मेरी पहचान किसी धर्म से नहीं है और वह 'सभी के लिए' हैं। " दरअसल उसने भी अपने पिता की तरह धर्म-जाति सूचक अपने उपनाम को अपने नाम के आगे से हटा दिया है। आगे वह यह कह कर भी अपनी बात पूरी किया , कि - " मैंने बाइबल, भगवत गीता और क़ुरान पढ़ी है। अभी गुरु ग्रंथ साहिब पढ़ रहा हूं और सभी धर्मों को मानता हूँ। हम एक दूसरे की कैसे सहायता कर सकते हैं और दूसरे को आगे बढ़ाने में कैसे मदद करते हैं, यही सभी धर्मों का आधार है। "
वैसे तो गुरु ग्रंथ साहिब का तो सार ही है, कि :-
"अव्वल अल्लाह नूर उपाया कुदरत के सब बंदे,
एक नूर ते सब जग उपजाया कौन भले को मंदे"

वर्तमान में वह ब्रिटेन की राजधानी लंदन के वेस्टमिंस्टर विश्वविद्यालय (University of Westminster, London) से फिल्म अध्ययन में कला स्नातक (Bachelor of Arts) की अपनी पढ़ाई छोड़ कर, अपने मरहूम पिता के जीते जी बुने गए सपनों को पूरा करने के लिए भारतीय फ़िल्मी दुनिया में मशग़ूल हो चुका है। जल्द ही नेटफ्लिक्स (Netflix) और 'मल्टीप्लेक्स' (Multiplex) के पर्दों पर वह अपनी अदाकारी के जलवे बिखेरेगा।
ग़ौरतलब बात ये है कि एक तरफ जहाँ हम अपने जाति-धर्म सूचक उपनामों को जिन कारणों से भी छोड़ना नहीं चाहते, बल्कि स्वार्थ की लेई से चिपकाए फ़िरते हैं ; ताकि या तो एक तबक़े के लोगबाग को या उनकी अगली पीढ़ी दर पीढ़ी को, इसके बिना कहीं आरक्षण से वंचित ना रह जाना पड़े और दूसरे तबक़े की भीड़ इसके बिना अपनी तथाकथित वंशावली की आड़ में अपनी गर्दन को अकड़ाने से कहीं चूक ना जाए। फिर तो उनकी पहचान ही नेस्तनाबूद हो जाएगी शायद। ऐसे में .. "हम श्रीवास्तव 'हईं' (हैं)", "हम कायस्थ" बानी (हैं)", "हम फलां हैं", "हम ढिमकां हैं" ... जैसी बातें बोलने वाली प्रजातियों के लुप्तप्राय हो जाने का भी डर रहेगा। ऐसे दौर में .. मात्र 21 साल के इस एक लड़के की ऐसी सोच वाली बयानबाजी यूँ ही ध्यान नहीं आकृष्ट कर पा रही है .. बस यूँ ही ...
आज की युवा पीढ़ी को बाबिल की इस सोच को निश्चित रूप से अपना आदर्श बनाना चाहिए .. शायद ... आज ना कल, युवा पीढ़ी ही समाज की रूढ़िवादिता की क़ब्र खोद सकती है। वर्ना .. वयस्क बुद्धिजीवी वर्ग तो बस एक दूसरे को कुरेदते हुए, इस सवाल में ही उलझा हुआ है, कि हम अपनी नयी पीढ़ी को क्या परोस रहे हैं !? जब कि यह तो तय करेगी .. आने वाले भविष्य में रूढ़िवादिता के जाल से निकली हुई युवा नस्लें। चहकते हुए यह चर्चा कर के, कि - वाह !!! क्या परोसा है हमारे पुरखों ने !! .. सही मायने में आज रूढ़िवादिता परोसने वालों को तो, भावी नस्लें सदियों कोसेंगी, भले ही वह भविष्य - एक दशक के बाद आए या फिर एक शताब्दी के बाद आए या फिर कई दशकों-शताब्दियों के बाद ही सही .. पर वो भविष्य आएगा जरूर .. शायद ...
अब आज बस इतना ही .. इसी उम्मीद के साथ कि हम ना सही .. हमारी भावी पीढ़ी .. कम से कम .. आज नहीं तो कल .. बाबिल की तरह सोचने लग जाए .. काश !!! .. बस यूँ ही ...










Sunday, July 11, 2021

अंट-संट ...


भूमिका :- 

आती हैं पूर्णिमा के दिन .. हर महीने के,

नियमित रूप से घर .. शकुंतला 'आँटी' के,

नौ-साढ़े नौ बजे सुबह खाली पेट मुहल्ले भर की,

स्कूल नहीं जाने वाले कुछ छोटे बच्चों, 

कॉलेज की पढ़ाई के बाद घर पर 'कम्पटीशन' की 

तैयारी कर रहे कुछ युवाओं, कुछ 'रिटायर्ड' बुजुर्ग मर्दों और

'लंच' की 'टिफिन' के साथ अपने पतियों को काम पर 

भेज कर कुछ कुशल गृहिणी औरतों की झुंड मिलकर,

थोड़ा पुण्य कमाने यहाँ सत्यनारायण स्वामी की कथा सुनकर,

सिक्के के बदले आरती लेकर, कलाई पर कलावा बँधवा कर

और अंत में "चरनामरित" (चरणामृत) पीकर और .. 

पावन "परसाद" (प्रसाद) खा कर .. शायद ...

।। इति स्कंद पुराण रेवाखंडे सत्यनारायण व्रत कथा प्रथम अध्याय: समाप्त ।।


दृश्य - १ :-

अब आज भी आये हुए बच्चे .. बच्चों का क्या है भला !

उनका तो होता नहीं कथा से या पुण्य कमाने से कोई वास्ता,

कोई पाप अब तक किये ही नहीं होते हैं जो वो सारे .. है ना !?

"काकचेष्टा" वाली चेष्टा बस टिकी होती हैं उनकी तो,

थालों में सजे फलों के फ़ाँकों पर .. 

लड्डूओं और पंजीरी पर भी थोड़ी-थोड़ी .. शायद ...

और औरतें तो .. बिताती हैं समय, छुपाती हुई ज्यादा आधे से,  

अक़्सर अपनी फटी एड़ियाँ अपनी साड़ी के 

फॉल वाले निचले हिस्से से या फिर कभी दुपट्टे

या ढीले ढाले 'प्लाजो' के आख़िरी छोर से,  

छुपा पाती हैं भला कब और कहाँ फिर भी .. 

वो अपने मन की उदासियाँ पर .. शायद ...

।। इति स्कंद पुराण रेवाखंडे सत्यनारायण व्रत कथा द्वितीय अध्याय: समाप्त ।।


दृश्य - २ :-

"पंडी" (पंडित) जी चढ़ावे पर "वकोध्यानम" वाला ध्यान लगा कर

उधर शुरू करते हैं कथा का अध्याय पहला और इधर ..

मुहल्ले भर की कथाओं को वांचने लगती है कुछ औरतें मिलकर।

"जाति प्रमाण पत्र" की तरह बाँटने लगती हैं एक-एक कर,

किसी को "कठजीव" ' (कठकरेज) होने का, 

तो किसी के बदचलन होने का प्रमाण पत्र -

" पूर्णिमा 'आँटी' की छोटकी बेटी तो पूरे 'कठजीव' है जी !

तनिक भी ना रोयी थी अपनी विदाई के समय और 

"उ" (वह) .. रामचरण 'अंकल' की बड़की (बड़ी) बहू भी तो 

"आउरो" (और भी) 'कठजीव' है जी ! है कि ना 'आँटी जी' ? "

" पति की लाश आयी जब "सोपोर" आतंकी हमले के बाद, 

तब .. माँ-बेटी , दोनों की आँखों  से एक बूँद आँसू नहीं टपका जी !

बस .. भारत माता की जय ! .. भारत माता की जय !!, 

वंदे मातरम् ! ,जय हिन्द !!! .. ही केवल चिल्लाती रहीं थीं मगर। "

" और "उ" (वह) .. कौशल्या फुआ की नइकी (नयी) बहू तो ..

बहुते (बहुत) बदचलन है जी !, जो चलती है घर से बाहर तो ..

'लो कट स्लीवलेस' ब्लाउज पहन कर अक़्सर

और मर्दों सब से बतियाती है, जब देखो हँस-हँस कर " 

।। इति स्कंद पुराण रेवाखंडे सत्यनारायण व्रत कथा तृतीय अध्याय: समाप्त ।।


दृश्य - ३ :-

अब 'रिटायर्ड' मर्दों का थोड़े ही ना कोई मौन व्रत है जी आज ?

उनकी भी कथाओं का अध्याय गति पकड़े हुए है निरंतर,

सत्यनारायण स्वामी जी की कथा के ही समानांतर -

" बिर्जूआ का बेटवा (बेटा) बड़ा कंजूस निकला जी ! ..

तीन दिनों में ही निपटा दिया आर्य समाजी बन कर

और गोतिया-नाता, मुहल्ला-दोस्त, "कंटहवा" (महापात्र ब्राह्मण), 

सब का भोज-भात भी कर गया गोल, 

पर नहीं बनाया पीसा अरवा चावल, मखाना, तिल का  

पिंडदान वाला पिंड मुआ .. नासपिटा .. गोल-गोल,

अपने मरे बाप की आत्मा की शांति की ख़ातिर। "

आगे गिनाते रहे वो सत्तारूढ़ सरकार की नाकामियां सब मिल कर।

तभी मनोहर 'चच्चा' (चाचा) सिन्हा जी की मंझली बेटी का

देकर हवाला, बोले सभी से फ़ुसफ़ुसा कर,

" 'लव मैरिज' सारे .. जरा भी टिकाऊ नहीं होते हैं जी .. 

और तो और, 'इंटरकास्ट मैरिज' की भी तो ख़ामियाँ तमाम हैं पर ..

 आजकल के छोकरे-छोकरियों को कौन समझाये भला मगर !?

 कम उम्र में ही तभी तो करवा कर 'इंटर',

 अपनी बेटी को भेज दिया उसके ससुराल, उसे ब्याह कर। "

।। इति स्कंद पुराण रेवाखंडे सत्यनारायण व्रत कथा चतुर्थ अध्याय: समाप्त ।।


दृश्य - ४ :-

अब कथा के चौथे अध्याय में भले ही,

सत्यनारायण स्वामी जी प्रभु के प्रकोप से,

बेचारी लीलावती की बेटी कलावती के पति की

नाव डूब गई हो धारा में किसी नदी की,

पर .. मजाल है कि डूब जाए आवाज़ किसी की,

बोलते वक्त चिल्ला कर समवेत स्वर में - "जय" ;

हर अध्याय के बाद जोर-जोर से शंख बजा-बजा कर 

हर बार जब-जब बोलें 'पंडी' जी कि -

" जोर से बोलिए सत्यनारायण स्वामी की जै (जय) !! "

और हाँ .. कथा के बीच-बीच में 'पंडी' जी

गोबर गणेश जी और ठाकुर (शालिग्राम) जी पर भूलते नहीं 

"द्रब" (द्रव्य) के नाम पर सिक्का चढ़वाना कभी भी .. शायद ...

।। इति स्कंद पुराण रेवाखंडे सत्यनारायण व्रत कथा पंचम अध्याय: समाप्त ।।


दृश्य - ५ :-

शोर मची अब तो पाँचवे अध्याय के बाद "स्वाहा, स्वाहा" की,

फिर बारी आयी  -" ओम जय जगदीश हरे " की,

कपूर की बट्टियों और "गणेश मार्का" पूजा वाले घी की आरती की,

युगलबंदी करती है जिससे खाँसी, भूखे-प्यासे 'अंकल' जी की,

गले में लगती धुआं से .. हवन वाले हुमाद-नारियल की।

कभी सीधी, कभी टेढ़ी करते, 'अंकल' जी अपनी कमर अकड़ी।

भक्त ख़ुश बँधवा कर कलावा और पा कर प्रसाद,

उधर 'पंडी' जी भी खुश पाकर यजमान से दक्षिणा तगड़ी।

" एगो (एक) अँगूर की ही कमी है दीदी, प्रसाद में "- जाते-जाते 

बोलीं रामरती चाची-"बांकी तअ (तो) सब अच्छे से हो गया दीदी ।"

उधर घर के लिए आये पाव भर शुद्ध घी के अलग मँहगे लड्डू में से,

'आँटी' जी का बेटा- चिंटू, प्रसाद के दोने वाले पंजीरी में,

एक लड्डू छुपा कर देने से खुश है, कि खुश होगी पड़ोस की चिंकी,

हाँ .. उसकी चिंकी और .. और भी प्रगाढ़ होगा प्रेमपाश .. शायद ...

।। इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा संपूर्ण।।


उपसंहार :-

तुम भी ना यार ... हद करते हो,

जो भी मन में आये ..  अंट-संट बकते हो, 

यार .. कुछ तो भगवान से डरा करो .. बस यूँ ही ...