Saturday, August 3, 2019

मेरे मन की मेंहदी

माना मेरे मन की मेंहदी के रोम-रोम ...
पोर-पोर ...रेशा-रेशा ... हर ओर-छोर
मिटा दूँ तुम्हारी .... च्...च् ..धत् ...
शब्द "मिटा दूँ" जँच नहीं रहा ... है ना !?
अरे हाँ ...याद आई ...समर्पण ...
ना .. ना ...आत्मसमर्पण कर दूँ
तुम्हारी मन की हथेलियों के लिए
और तुम सहेजो भी ... संभालो भी उसे
कुछ लम्हों तक बड़ी सजगता के साथ
अपनी मन की हथेलियों पर
बस मन की नर्म हथेलियों पर अपने
अनुराग की लाली की लताओं के
पनप जाने तक ... ठीक जैसे.. बारहा
प्रकृत्ति की तूलिका उकेरती है सुबह-सवेरे
सूरज की लालिमा क्षितिज के पटल पर

पर ये क्या !!! बस ...
कुछ दिनों ...चंद हफ्ते ...महीने बाद
या फिर एक मौसम के बीत जाने पर
हर तीज-त्योहार पर या सावन की फुहार तक ही
और ... फिर से वही रंगहीन हथेलियाँ मन की
सूनी-सूनी-सी रंग उतर जाने के बाद

सोचता हूँ ... चाहता हूँ .. अक़्सर
ऐसे उतर जाने वाले रंग से बेहतर
तुम्हारी मन की बाहों पर
अपनी चाहत का गोदना उकेर देना
अपनी प्रीत के पक्के रंग से ...
जो रहे अमिट ...शाश्वत ... ताउम्र
जैसे हिटलरी फ़रमान के तहत कभी
क़ैदी यहूदियों की कतार में 'लुडविग लेल' ने
गोदा होगा 'गीता फुर्मानोवा' की बाँह पर
अमिट गोदना ताउम्र के लिए और ...
उसी '34902' संख्या वाली गोदना की
वजह से ही तो मिलते रहे ताउम्र वे दोनों
एक-दूसरे से जीवन के हर मोड़ पर ...
मिलते रहेंगें हम दोनों भी वैसे ही ताउम्र ....
अगले जन्म का अनुबन्ध लिए
इस जीवन के हर मोड़ पर ...

Friday, August 2, 2019

छितराया- बिखरा निवाला

अक्षत् ...
हाँ ... पता है .. ये परिचय का मोहताज़ नहीं
जो होता तो है आम अरवा चावल
पर तथाकथित श्रद्धा-संस्कृति का ओढ़े घूँघट
बना दिया जाता है साथ हल्दी व दूब के
तथाकथित पवित्र अक्षत् ...
जो अक़्सर इस्तेमाल किये जाने के
कुछ लम्हे बाद हो जाते है स्वयं क्षत-विक्षत ...

चाहे ...तथाकथित सत्यनारायण स्वामी का हो कथा
या घर के पूजाघर का कोना या फिर ....
शादी के मड़वे में वर-वधू के ऊपर आशीर्वादस्वरूप छींटे जाने वाले तथाकथित अक्षत् या हो फिर
वर-वधु के चुमावन के रस्म में छींटा गया अक्षत्
अक़्सर जो हो जाते हैं क्षण भर में क्षत-विक्षत
कभी-कभी तो चूमते हैं कई-कई तलवे इनको

हाँ .. वैसे कुछ ख़ुशनसीब दाने ही बन पाते हैं
कभी-कभार कुछ पशु-पक्षियों  के निवाले
कचरे के ढेर पर या कभी-कभी मछलियों के भी
जब प्रवाह किये जाते हैं नदी या तालाब में
"पाप ना लग जाए कहीं" का बहुमूल्य सोच लिए

शादियों में तथाकथित 'लावा छिंटाई' का हो रस्म या
परिजनों की शवयात्रा में अर्थी के पद-चिन्हों पर
लावे एवं सिक्के का मुहर लगाते हुए हम
गुजर तो जाते हैं और जिसके सिक्के तो
लपक लिए जाते हैं राह चलते आमजन
या फिर सम्बन्धियों या साथ गए जान-पहचान वालों द्वारा
जो कभी-कभी ख़र्च कर दिए जाते हैं या फिर प्रायः
तथाकथित आशीर्वाद का एक रूप मान कर
रख लिया जाता है घर में कहीं संभाल कर
किसी संग्रहालय की धरोहर की तरह

पर लावे बेचारे जो धान से बने मानो
गर्व से सीना चौड़ा किए पल भर में
पैरों तले रौंदे ही तो जाते हैं बारहा ...हाँ ...
कुछ-कुछ , कभी-कभी बेशक़ किसी पशु-पक्षी या
मछलियों के भी बन पाते हैं निवाले
ठीक-ठीक अक्षत् की तरह

साहिब !!!
करते तो हैं आप आस्तिकता की बात
पर साथ ये अन्नपूर्णा देवी का निरादर ऐसा
दिखता नहीं आपको क्या.. इन दानों में
किसी भूखे-गरीब का छितराया- बिखरा निवाला
कह नहीं रहा वैसे मैं इसे अंधपरम्परा .. ना.. ना !
पर साथ समय के समय-समय पर चाहती हैं
संशोधन ठीक हमारे संविधान-सा
चाहे वे संस्कृति हों या परम्पराएँ अक़्सर

कल तक अगर नहीं तो कम से कम अब से
एक बार तो साहिब सोचना जरा ..
हाँ साहिब ! ... सोचना जरा .....
किसी भूखे-गरीब का छितराने से पहले
उनका निवाला ......




Sunday, July 28, 2019

काले घोड़े की नाल

" जमूरे ! तू आज कौन सी पते की बात है बतलाने वाला ...
  जिसे नहीं जानता ये मदारीवाला "

" हाँ .. उस्ताद !" ... एक हवेली के मुख्य दरवाज़े के
 चौखट पर देख टाँके एक काले घोड़े की नाल
 मुझे भी आया है आज एक नायाब ख्याल "

" जमूरे ! वो क्या भला !?
  बतलाओ ना जरा ! "

" उस्ताद ! क्यों ना हम भी अपनी झोपड़ी के बाहर
 टाँक दें काले घोड़े की एक नाल
 शायद सुधर जाये हमारा भी हाल "

" जमूरे ! बड़े लोगों की बातें जाने बड़े लोग सब
 पता नहीं मुझे घोड़े की नाल ठोंकने का सबब "

" उस्ताद ! सोच लो ... लोग हैं पढ़े-लिखे
 गलत कुछ थोड़े ही ना करते होंगे .. "

" जमूरे ! "

" हाँ .. उस्ताद ! "

" जिस घोड़े के चारों पैरों में एक-एक कर
  चार नाल ठुंके होते है ... वो घोड़ा सफ़ेद हो या काला
 वो घोड़ा तो ताउम्र बोझ ढोता है ... चाबुक भी खाता है ...
 फिर उसके एक नाल से क्या कल्याण होगा भला !?
 अपने छोटे दिमाग से सोचो ना जरा ...और ...
उसके एक टुकड़े को ठोंक-पीट कर बनाई अँगूठी
 कितना कल्याणकारी होती होगी भला !? "

" उस्ताद ! धीरे बोलो ना जरा ...
सुन लिया किसी ने तुम्हारा ये 'थेथरलॉजी'
तो फिर कौन देखेगा भला अपना मदारी !?
सोचो ! सोचो ! ... गौर से जरा ...
इसलिए अगर चलाना है धंधा अपना ...
तो आँखे मूँदे अपनी
'पब्लिक' की सारी की सारी बातें माने जा
सवा करोड़ की आबादी हमारी तरह
है मूर्ख थोड़े ही ना !? " ...







मज़दूर

गर्मी में तपती दुपहरी के
चिलचिलाते तीखे धूप से
कारिआए हुए तन के बर्त्तन में
कभी औंटते हो अपना खून
और बनाते हो समृद्धि की
गाढ़ी-गाढ़ी राबड़ी
किसी और के लिए
पर झुलस जाती है
तुम्हारी तो छोटी-छोटी ईच्छाएं
ठठरी तुम्हारी दोस्त !
चाहे कितने भी पसीने बहाएं।

सर्दी में ठिठुरती रातों की
हाड़ बेंधती ठंडक से
ठिठुरे हुए हृदय के आयतन में
कभी जमाते हो अपना ख़ून
बनाते हो चैन की
ठंडी-ठंडी कुल्फ़ी
किसी और के लिए
पर जम-सी जाती है
तुम्हारी छोटी-छोटी आशाएं
ठठरी तुम्हारी दोस्त !
चाहे क्यों ना ठिठुर जाए।

कितने मजबूर हो तुम
जीवन के 'मजे' से 'दूर' हो तुम
हाँ, हाँ, शायद एक 'मजदूर' हो तुम
हाँ ... एक मज़दूर हो तुम !!!

{ स्वयं के पुराने (जो तकनीकी कारण से नष्ट हो गया) ब्लॉग से }.



अपना ...

अपना
हाँ, हाँ ..... अपना
अपना तो कोई व्यक्ति-विशेष तो होता नहीं,
जो दे दे स्नेह, प्रेम, श्रद्धा निस्वार्थ बस यूँ हीं
लगता तो है अपना वही ,
स्नेह, प्रेम, श्रद्धा की ही 
बंधन होती अटूट है,
सगे वो क्या जिनमें फूट ही फूट है,
इस लौकिक रंगमंच पर शायद
कोई सगा अपना हो भी या  ... ना भी,
पर बुरे वक्त में जो दे दे सहारा
लगता तो है अपना वही,
क्या !!!?
सगे को ही अपना कह सकते हैं!?
क्यों कहूँ भला सगे को अपना !?
क्यों ना कहें हम उसे पराया!?
हाँ, हाँ, उसे ... जो हमारे दुःख भरे लम्हों को
"किए" का फल बतला कर हँसते हैं
और हमारी ख़ुशी से सदा
स्वयं में आपादमस्तक
धधक-धधक कर जलते हैं
पल-पल कभी सुलगते हैं
या फिर उन्हें ...
जो हमारे दुःखी और दुर्घटनाग्रस्त अतितों को
किसी पुरातत्व की तरह
अँधेरे सीलन भरे अतीत के खंडहरों से
निकाला करें एक काई लगे सिक्के की तरह
और उलट-पलट कर उसे चुपचाप
एक सभ्य नागरिक की तरह
मंद-मंद मुस्कुराया करें
क्या !!?
अपना होने के लिए सगा होना
नितांत जरुरी है!? अच्छा !!!?
खून और DNA भी मिलना जरुरी है !?
ये तो सारा का सारा दिखावा है...
स्नेह, प्रेम, श्रद्धा .. के आदान-प्रदान मात्र से
क्या अपना हो सकते नहीं !!?
वाह !!!!
कैसी हम इन्सानों की भुलावा है
शायद ये .... छलावा है ......🤔🤔🤔

{ स्वयं के पुराने (जो तकनीकी कारण से नष्ट हो गया) ब्लॉग से }. 




आत्मसमर्पण ...

सुगंध लुटाते, मुस्कुराते, लुभाते,
बलखाते, बहुरंग बिखेरे,
खिलते हैं यहाँ सुमन बहुतेरे,
नर्म-नर्म गुनगुने धूप में
जीवन के यौवन-वसंत में ।
पर तन जलाती, चिलचिलाती धूप में,
जीवन के वृद्ध-जेठ में
‘सखी’ खिलूँगा मैं बनकर ‘गुलमोहर’
तुम्हारे लिए शीतल छाँव किए।
गेंदा, गुलदाउदी, गुलाब होंगें ढेर सारे
दिन के उजियारे में, संग तुम्हारे ।
होगी बेली, चमेली, रजनीगंधा भी
रात के अँधियारे में।
पर  जीवन की भादो वाली
मुश्किल भरी अंधेरी रातों में
पूरी रात, रात भर....सुबह होने तक
रहूँगा संग-संग तुम्हारे,
झर-झर कर, लुट-लुट कर,
‘सखी’ ‘हरसिंगार’ की तरह,
पूर्ण आत्मसमर्पण किए हुए
हाँ सखी .... आत्मसमर्पण किए हुए...

{ स्वयं के पुराने (जो तकनीकी कारण से नष्ट हो गया) ब्लॉग से }.