कालखंड की असीम सागर-लहरें
संग गुजरते पलों के हवा के झोंके,
भला इनसे कब तक हैं बच पाते
पनपे रेत पर पदचिन्ह बहुतेरे।
यूँ ही तो हैं रूप बदलते पल-पल
रेगिस्तान के टिब्बे भी तो रेतीले सारे ।
तभी तो "परिवर्तन है प्रकृति का नियम" -
हर पल .. हर पग .. है बार-बार यही तो कहते।
माना हैं दर्ज़ पुरातत्ववेत्ताओं के इतिहास में
ईसा पूर्व के कुछ सौ या कुछ हजार साल
या सन्-ईस्वी के दो हजार बीस वर्षों के अंतराल।
पर परे इन से भी तो शायद रहा ही होगा ना
लाखों वर्षों से अनवरत घूमती धरती पर
मानव-इतिहास का अनसुलझा जीवन-काल?
अगर करते आते अनुकरण अब तक
हम सभी सबसे पहले वाले पुराने पुरखे के,
तो .. आज भी क्या हम आदिमानव ही नहीं होते ?
पर हैं तो नहीं ना ? .. तभी तो ...
तभी तो "परिवर्तन है प्रकृति का नियम" -
हर पल .. हर पग .. है बार-बार यही तो कहते।
निर्मित पल-पल के कण-कण से
कालखंड के रेत पर पग-पग
बढ़ता .. चलता जाता मानव जीवन
चलता, बीतता, रितता हर पल तन-मन।
कामना पदचिन्ह के अमर होने की,
पीछे अपने किसी के अनुसरण करने की,
ऐसे में तो हैं शायद शत-प्रतिशत बेमानी सारे।
तभी तो "परिवर्तन है प्रकृति का नियम" -
हर पल .. हर पग .. है बार-बार यही तो कहते।
अब ऐसे में तो बस .. रचते जाना ही बेहतर
मन की बातें अपनी बस लिखते जाना ही बेहतर।
किसी से होड़ लेना बेमानी, किसी से जोड़-तोड़ बेमानी,
कालजयी होने की कोई कामना भी बेमानी
मिथ्या या मिथक का अनुकरण भी शायद बेमानी।
आइए ना .. फिलहाल तो मिलकर सोचते हैं एक बार ..
साहिर लुधियानवी साहब को गुनगुनाते हुए -
" कल और आएंगे नग़मों की खिलती कलियाँ चुनने वाले,
मुझसे बेहतर कहने वाले, तुमसे बेहतर सुनने वाले ~~। "
तभी तो "परिवर्तन है प्रकृति का नियम" -
हर पल .. हर पग .. है बार-बार यही तो कहते।
संग गुजरते पलों के हवा के झोंके,
भला इनसे कब तक हैं बच पाते
पनपे रेत पर पदचिन्ह बहुतेरे।
यूँ ही तो हैं रूप बदलते पल-पल
रेगिस्तान के टिब्बे भी तो रेतीले सारे ।
तभी तो "परिवर्तन है प्रकृति का नियम" -
हर पल .. हर पग .. है बार-बार यही तो कहते।
माना हैं दर्ज़ पुरातत्ववेत्ताओं के इतिहास में
ईसा पूर्व के कुछ सौ या कुछ हजार साल
या सन्-ईस्वी के दो हजार बीस वर्षों के अंतराल।
पर परे इन से भी तो शायद रहा ही होगा ना
लाखों वर्षों से अनवरत घूमती धरती पर
मानव-इतिहास का अनसुलझा जीवन-काल?
अगर करते आते अनुकरण अब तक
हम सभी सबसे पहले वाले पुराने पुरखे के,
तो .. आज भी क्या हम आदिमानव ही नहीं होते ?
पर हैं तो नहीं ना ? .. तभी तो ...
तभी तो "परिवर्तन है प्रकृति का नियम" -
हर पल .. हर पग .. है बार-बार यही तो कहते।
निर्मित पल-पल के कण-कण से
कालखंड के रेत पर पग-पग
बढ़ता .. चलता जाता मानव जीवन
चलता, बीतता, रितता हर पल तन-मन।
कामना पदचिन्ह के अमर होने की,
पीछे अपने किसी के अनुसरण करने की,
ऐसे में तो हैं शायद शत-प्रतिशत बेमानी सारे।
तभी तो "परिवर्तन है प्रकृति का नियम" -
हर पल .. हर पग .. है बार-बार यही तो कहते।
अब ऐसे में तो बस .. रचते जाना ही बेहतर
मन की बातें अपनी बस लिखते जाना ही बेहतर।
किसी से होड़ लेना बेमानी, किसी से जोड़-तोड़ बेमानी,
कालजयी होने की कोई कामना भी बेमानी
मिथ्या या मिथक का अनुकरण भी शायद बेमानी।
आइए ना .. फिलहाल तो मिलकर सोचते हैं एक बार ..
साहिर लुधियानवी साहब को गुनगुनाते हुए -
" कल और आएंगे नग़मों की खिलती कलियाँ चुनने वाले,
मुझसे बेहतर कहने वाले, तुमसे बेहतर सुनने वाले ~~। "
तभी तो "परिवर्तन है प्रकृति का नियम" -
हर पल .. हर पग .. है बार-बार यही तो कहते।
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 25 मई 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजी आभार आपका ...
Deleteकुछ भी तो शाश्वत नहीं है सिवाय परिवर्तन के। जो आज मेरा है कल किसी और का होगा फिर किसी और का।यूँ ही कालखण्ड बदलते जाएंगे। अजर अमर कुछ भी नहीं। सुबोध जी बहुत सार्थक रचना।👌👌👌
ReplyDeleteजी ! आभार आपका ...
ReplyDeleteसुन्दर सृजन।
ReplyDeleteजी सर ! आभार आपका .. रचना/विचार के साथ सहमति के लिए ...
Deleteवाह! बहुत सारगर्भित सृजन!
ReplyDeleteजी ! आभार आपका सहमति के लिए ...
Deleteसारगर्भित प्रस्तुति।
ReplyDeleteजी ! आभार आपका ...
Deleteबहुत खूब
ReplyDeleteजी! आभार आपका ...
Deleteबहुत सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteजी ! आभार आपका ...
Deleteसार्थक सृजन, सहज शब्दों में....
ReplyDeleteकामना पदचिन्ह के अमर होने की,
पीछे अपने किसी के अनुसरण करने की....सच है परंतु...
यह भी सच है कि कुछ पदचिन्ह वक्त की आँधी भी मिटा नहीं पाती
जी! आभार आपका ... परन्तु जरुरत है "कालखंड" को विस्तृत करके देखने की ... ईसा-पूर्व और सन्-ईस्वी से भी परे कालखंड का आज कुछ भी तो नहीं ...शायद ...
Deleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (26 -5 -2020 ) को "कहो मुबारक ईद" (चर्चा अंक 3713) पर भी होगी,
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
---
कामिनी सिन्हा
जी ! आभार आपका ...
Deleteसुन्दर काव्य सुबोध जी
ReplyDeleteजी ! आपका आभार राकेश जी ....🙏
Deleteसुन्दर सारगर्भित सृजन ... मन को छूता हुआ ...
ReplyDeleteजी ! आभार आपका ...
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 03 अगस्त 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजी ! आभार आपका ...
Deleteवाह!खूबसूरत भावाभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteजी ! आभार आपका ...
Deleteवाह!
ReplyDeleteजी ! आभार आपका ...
Delete