Thursday, October 5, 2023

पुंश्चली .. (१३) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)


प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- पुंश्चली .. (१) से पुंश्चली .. (१२) तक के बाद पुनः प्रस्तुत है आपके समक्ष पुंश्चली .. (१३) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

यानि पत्थर ने पत्थर को बचाया .. मतलब यहाँ भी नस्लवाद .. हद हो गयी ! .. ये दैवीय चमत्कार हाड़-माँस के पुतले जैसे हम इंसानों के लिए भी उस रात क्यों नहीं हुआ था ? .. क्या उस रात आकस्मिक मौत मरने वाले सभी के सभी पापी थे ? .. और .. अपने किसी ना किसी कुकर्मों का फल भुगत रहे थे ?

गतांक के आगे :-

ख़ैर ! .. अंजलि के माँ-बाबू जी के लिए तो उस रात कोई दैवीय चमत्कार तो नहीं हो पाया था। परन्तु उसी रात विभत्स आपदा में भी अचानक से एक अंजान इंसान द्वारा अंजलि के फ्रॉक को खींच लेने से स्वयं का उस का जीवित बच जाना एक दैवीय चमत्कार से कम नहीं था। दरअसल उसकी माँ और बाबू जी को पलक झपकते काल के गाल में समाने वाली वह भयावह मनहूस रात को भी उसे पुनर्जन्म देने वाला वह जीवनदाता इंसान ही तो उसके लिए एक चमत्कार से कम नहीं था।

हालांकि उस रात के बाद आज भी जब-जब किसी की भी वजह से उसका मन दुःखी होता तो वह अपनी माँ और बाबू जी को याद कर-कर के मन ही मन .. मन भर रो लेती है। बार-बार एक ऊहापोह उसके कोमल और सम्वेदनशील मन को उद्वेलित कर जाता है कि आख़िर उसने, उसकी माँ, बाबू जी ने या उस रात की आपदा में सारे मरने वालों ने ऐसा कौन-सा पाप किया था, जो उन्हें ऐसी आकस्मिक मौत मिली और ना जाने उसके जैसे कितने लोगों को अनाथ कर गयी वह निर्मम रात .. मृत्यु की आग़ोश में सोए लोग तो अपनी चुप्पी तोड़ने से रहे, पर .. अपनों को या अपने अंगों को खोकर शेष बचे आहत और मर्माहत लोगों की आवाज़ किसे दोष दें भला ऐसे मौकों पर .. मन्दिर में आसीन भगवान को, अपनी आस्था को, अपने भाग्य को, अपने इस जन्म-उस जन्म के कर्मों को, प्रकृति की मार को या एक भौगोलिक-वैज्ञानिक संयोग को या सत्तारूढ़ सरकार को ? ऐसे ही कई सारे अनुत्तरित सवाल अंजलि के दिमाग़ में गाहे-बगाहे घुमड़ते रहते हैं अक़्सर .. जो कई दफ़ा उसकी आँखों से बरसात बन कर ढलक जाते हैं।

रंजन के असमय चले जाने के बाद जिस स्कूल में आज जीवनयापन के लिए अंजलि सहायिका के रूप में कार्यरत है, उसी 'प्राइवेट स्कूल' के संस्थापक सह 'प्रिंसिपल' साहब- प्रमोद मेहता ही थे उस रात, जिन्होनें उस जानलेवा काली डरावनी रात में उसके फ़्रॉक को अनायास खींच कर उसकी जान बचायी थी। दरअसल मेहता जी अपने कुछ श्रद्धालु और बुद्धिजीवी वर्ग के मित्रों के साथ चार धामों के तीर्थाटन पर निकले थे। उनको भी अपने तीनों मित्रों का कुछ भी पता नहीं चल पाया था। ना ज़िन्दा और ना मुर्दा। ना, ना .. गलत कह गये .. उनके तीनों मित्रों में से एक मित्र की पहचान उनके गले में पहने हुए चाँदी के हार में लटके "ॐ" वाले 'लॉकेट' और दाएँ हाथ की अनामिका उंगली में मूँगा जड़ित चाँदी की अँगूठी से की गयी थी। हर इंसान की पहचान .. उसका चेहरा .. और वही चेहरा तो सड़-गल कर कंकाल मात्र रह गया था।  

उस रोज सारी रात उसी पेड़ के तने से दोनों चिपके हुए अपनी साँसों को सम्भालने की कोशिश करते रहे थे। सुबह होने पर भारतीय सेना और वायुसेना के जवान लोग हेलिकॉप्टर से वहाँ आसपास फँसे जीवित यात्रियों को विमान उत्थापक कर के बचाने के क्रम में इन दोनों को भी वहाँ से निकाल कर सुरक्षित स्थान पर पहुँचा दिए थे।

तब की नन्हीं-सी जान .. अंजलि .. अपनी आँखों के सामने तेज धार में ज़िन्दा बहते हुए बाबू जी को देखकर और माँ के हश्र का अपने बालमन में अनुमान लगा कर उनके सदमा में लगभग विक्षिप्त-सी हो गयी थी। कुछ भी बीती बातें याद नहीं रही थी उसे, सिवाय माँ-बाबू जी के बिछोह के। 'प्रिंसिपल' साहब यानी प्रमोद मेहता जी ही तब उसके मौखिक संरक्षक बन बैठे थे।

किसी अनाथ या ग़रीबी से मजबूर अभिभावक के बच्चों को कोई सगा-सम्बन्धी या कोई पराया दयालु संरक्षक मिल भी जाए तो उसकी स्थिति कमोबेश देश में कुकुरमुत्ते की तरह फैले अधिकांश बाल सुधार गृह या बाल संरक्षण केन्द्र में रहने वाले बच्चों की तरह ही होती है। बदक़िस्मती से अगर वह अभागन लड़की हुई, तब तो उसपर होने वाले ज़ुल्मों की लम्बी फ़ेहरिस्त बन जाती है। अंजलि भी उन बच्चों से अलग नहीं थी। मेहता जी को तो उनके घर के साथ-साथ स्कूल के कामों के लिए भी, दो-तीन शाम के भोजन और उनकी पन्द्रह वर्षीया बेटी के उतारन के बदले एक मज़बूर मजदूरिन मिल गयी थी- अंजलि। 

दूसरी तरफ समाज में उनके संरक्षक बनने वाले परोपकार की वाहवाही की कमी भी नहीं थी। परोपकार .. वो भी दो-दो .. एक तो अनाथ अंजलि और दूसरी उनकी सगी पर ग़रीब बहन की बेटी- पुष्पा .. दोनों ही उनकी और उनके घर वालों की प्रताड़ना की शिकार थीं, परन्तु मेहता जी समाज भर में परोपकारी पुरुष की प्रतिमूर्ति बने हुए थे। अंजलि का तो फिर भी अपना सगा कोई भी शेष नहीं बचा था अब इस दुनिया में, पर पुष्पा तो अपने मामा-मामी के हाथों ही प्रताड़ित हो रही थी। ऐसा नारकीय जीवन जी रही एक अकेली केवल वही नहीं थी, बल्कि ना जाने कितनी पुष्पाएँ अपने अभिभावक की ग़रीबी के ग्रहण से लगे सूतक को मिटाने के लिए अक़्सर अपने अमीर रिश्तेदारों को दान में प्रदान कर दी जाती हैं। जहाँ उन लाचार बच्चियों या बच्चों से ज़बरन नाज़ायज श्रम करवाने में सगे कहे या माने जाने वाले लोगों की भी संवेदनशीलता की नमी का, सुखाड़ वाले अकालग्रस्त खेतों की तरह कहीं भी, नामोनिशान तक नहीं होता। शारीरिक श्रम करवाना तो आम बात है और अगर तथाकथित क़िस्मत कुछ और भी ज्यादा ख़राब रही तो ऐसी लड़कियों का यौन शोषण भी एक आम बात ही लगती है। 

एक दिन पुष्पा का सारा शरीर तेज बुखार से तप रहा था। शाम के वक्त गर्मी के मौसम में भी थरथर कपकपा रही थी। उस दिन अंजलि ही केवल स्कूल गयी थी मेहता जी के साथ। पुष्पा घर पर ही रह गयी थी। मामी जी यानी मिसेज मेहता की महिला मित्रमंडली के साथ उनके घर पर ही कोई विशेष पार्टी थी। पूरे दिन पुष्पा चकरघिन्नी बनी मामी जी के इशारों पर उनके और उनकी सहेलियों के इर्दगिर्द घूमती रही थी। सारा दिन उतना सारा ठूँसने के बाद भी मामी जी शाम में सभी सहेलियों के साथ पास के ही बाज़ार में प्रसिद्ध "गजोधर चाट-पानी पूड़ी" की दुकान तक पानी पूड़ी खाने चली गयीं थीं। सुबह से ही पुष्पा का मन अच्छा नहीं लग रहा था। पर लाचार, ग़रीब और कमजोर लोगों का मन जैसा तो जैसे कुछ होता ही नहीं है या अगर होता भी है तो मन को सुनने वाला कोई नहीं होता। ठीक वैसे ही, जैसे चार-पाँच निर्मम मुस्टंडों द्वारा बलात्कार करते समय बलात्कृत की आवाज़ कोई सुन नहीं पाता या फिर वो अपनी कातर आवाज किसी उचित संरक्षक तक पहुँचा नहीं पाती .. शायद ...

अभी बेसुध होकर पुष्पा की आँख लगी ही थी, कि पानी पूड़ी खाने के बाद अपनी सभी सहेलियों को अलविदा करके घर में पाँव रखते ही उसकी मामी चंडालिन का रूप ले लीं थीं और उसे झकझोर कर जगाने लगीं थीं - " अरे ! .. जरा-सा बाहर क्या गयी, तुम्हारी तो बहार ही आ गयी है जैसे। पेट भर खाना मिला, बस महारानी जी पसर गयीं। जूठे बर्त्तन सारे पड़े हैं .. कौन साफ़ करेगा ? तुम्हारा भूत ? बाहर कपड़े सूख रहे है, कौन उठा कर रखेगा ? आयँ ? .."

पुष्पा - " मामी जी .. तबियत ठीक नहीं है हमारी ..."

मामी जी - " ख़ूब अच्छे से समझती हूँ, तुम जैसी लोगों की बहानेबाज़ी .."

【 आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (१४) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】


एक धाँसू 'स्टार्टअप' अगर ...

छपा होता जो नाम शववस्त्र पर,

नाम मतलब ? .. पूरा नाम ..

यानी .. साथ नाम के होता छपा जो

जातिसूचक उपनाम भी 'प्रॉपर'।

पूरा नाम तो होता ही और साथ में 

छपता जो सेवानिवृत्त पद भी सरकारी अगर,

तो होता इसका भी व्यापक असर।

साथ छपते जो छोड़ी विरासत के आँकड़े 

तो हो जाता यूँ कुछ और भी बेहतर।

नहीं जो पूरा पता अपने भव्य भवन का,

तो कम-से-कम होता मकान का 'नम्बर'

और होता छपा खड़ी 'पोर्टिको' में 

महँगी गाड़ी का भी 'नम्बर' .. बस यूँ ही ...


रंगीनियों में जो बीती है 

जीवन-यात्रा समस्त जीवन भर,

भला फिर क्यों ओढ़ना मर कर

अपनी अंतिम यात्रा में भी

भगवा या केवल सफ़ेद वस्त्र ?

'ब्रांडेड' भी जो होते शववस्त्र सारे

जैसे .. 'रेमण्डस्' या फिर 'मान्यवर'।

विकल्प भी होते कपड़ों के ढेर सारे,

सूती, रेशमी, 'जॉर्जेट' या 'पॉलिस्टर'

और होता 'प्रिंटेड' भी तो ..

एकदम से झकास 'डिज़ाइनर',

'चेक्स' .. 'स्ट्राइप्स' या फिर होता

छींटदार या फूलदार .. चकरपकर .. बस यूँ ही ...


होते क्रय-विक्रय भी वातानुकूलित 'शोरूमों' में 

या फिर बहुमंजिली 'मॉल' के किसी तल्ले पर

और क्या कहने जो धीमी-धीमी बजती भी 

कोई शोकधुन, ग़ज़ल या "निर्गुण" वहाँ अगर।

साहिबान !!! ... सोचता हूँ मन में अक़्सर ..

कि कितना ही बढ़िया होता जो ..

शुरू कर ही देते हम मुहूर्त निकलवा कर

ऐसे मनभावन शववस्त्रों के

एक धाँसू 'स्टार्टअप' अगर ?

काश ! .. मिल जो जाते शुरूआती तौर पर .. 

आप सभी से 'एडवांस' में  

शुभ-शुभ बोहनी के नाम पर

कुछ भी .. दो-चार 'ऑर्डर' .. बस यूँ ही ...

[शववस्त्र - कफ़न (अरबी)]