प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- "पुंश्चली .. (१)" से "पुंश्चली .. (३२)" तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (३३) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ... :-
गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-
सार्वजनिक स्थलों पर इनके निषेध के अधिनियम बने होने के बावज़ूद भी ख़ाकी-खादी वाले या काले कोट वाले लोग भी कचहरी जैसे सार्वजनिक स्थलों पर इस अधिनियम की धज्जियाँ उड़ाते दिख ही जाते हैं .. इसके कारण .. हमारे और आपके जैसे कुशल नागरिक की जागरूकता ही है .. शायद ...
गतांक के आगे :-
ख़ैर ! .. इन उपरोक्त चर्चा का कोई महत्व नहीं रह जाता, जब इन बातों का रंग .. किसी भी बुद्धिजीवी वयस्क नागरिक की मानसिक पटल पर मानो .. किसी मोमजामा पर पड़ कर भी उस रंग से असरहीन ही रहने जैसा हो तो .. शायद ...
परन्तु .. कुछेक नन्हीं-सी पर .. तीव्र .. आशा की किरणें .. मन-मस्तिष्क के एक कोने में कुलबुलाती-सी या फिर .. यूँ कहें कि .. छटपटाती-सी बेंधती रहती हैं अक़्सर .. ठीक किसी उत्तल लेंस से होकर गुजरने वाली सूर्य की सामान्य किरणों की तरह, जिसमें .. किसी कागज के टुकड़े को जलाने की क्षमता होती है या फिर बिहार के उस दशरथ माँझी की सकारात्मक सोच की तरह .. जिसकी बदौलत .. वह बिहार के गया जिला में अपने गहलौर गाँव वाले दुर्गम पहाड़ के दर्रे में अपनी धर्मपत्नी- फाल्गुनी देवी के गिर कर दुर्घटनाग्रस्त होने के बाद .. इलाज के अभाव में असामयिक मृत्यु हो जाने पर .. उन्हीं दिवंगत धर्मपत्नी को ध्यान में धरते हुए उस दुर्गम पहाड़ को केवल एक हथौड़ा और छेनी से काट कर अपने गाँव के लोगों को सुगम रास्ते से होकर शहरी सुविधाओं के नज़दीक ला दिए थे।
मन्टू और रेशमा की "बेवकूफ़ होटल" के लिए की गयी विनोदपूर्ण तुकबंदी- "जहाँ है क़ीमत भी कम और स्वाद में भी दम, हम 'मिडल क्लास' वालों के लिए 'फाइव स्टार' से जो है नहीं कम" के मध्य ही अचानक चुलबुली हेमा और रमा आपस में फुसफुसा कर बात कर रही हैं।
हेमा - " अगर आज वृहष्पतिवार नहीं होता तो .. मैं तो आज इस शाकाहारी होटल में ना खाकर रहमान चच्चा के होटल का मुर्गा बिरयानी खाती .."
रमा - " एकदम मेरे मन का बात बोली तुम तो .. "
इन दोनों के फुसफुसा कर आपस में बातें करने पर भी रेशमा सुन ली है।
रेशमा - " ये वृहष्पतिवार और मंगलवार को 'नॉन वेज' नहीं खाने के आडम्बर क्यों करती हो आप दोनों ? .. खाना है तो सालों भर खाओ वर्ना .. किसी भी दिन मत खाओ .. "
मन्टू - " सही मायने में तो .. ये सब इंसानों की चोंचलेबाजी भर हैं। "
रेशमा - " इंसानों की फ़ितरत तो बस पूछिए ही नहीं आप .. जो इंसान .. अपने किसी नजदीकी से नजदीकी रिश्तेदार की साँसें थमते ही .. उनके मृत शरीर को घर से बाहर का रास्ता दिखाते हुए .. या तो श्मशान में दाह संस्कार कर देते हैं या फिर क़ब्रिस्तान में दफ़ना देते हैं, वो .. वही लोग बाज़ारों से अपने ग्रास के लिए बड़े ही चाव से किसी पक्षी या पशु के मृत शरीर के टुकड़ों को अपने घर के रसोईघर तक ले आते हैं और .."
मन्टू - " और क्या ? .. पशु-पक्षी के उस मुर्दे शरीर के टुकड़ों में तेल-मसालों के लेप लगाकर पकाते भी हैं और उदरग्रस्त भी करते हैं। "
रेशमा - " इंसानों ने अपनी सेहत से परे अपने निरर्थक स्वाद के लिए किसी भी निरीह प्राणी की हत्या करने में तनिक भी गुरेज़ नहीं करते हैं। "
मन्टू - " यहाँ तक कि तथाकथित भगवान-अल्लाह के नाम पर भी बलि-क़ुर्बानी करने की मनगढ़ंत ढोंग करते हैं ये लोग .. "
रेशमा - " उस पर भी .. हलाल और झटके जैसी नफ़ासत के क़सीदे पढ़ते नज़र आते हैं .. ये बेमुरव्वत लोग .. "
मन्टू - " ये अंग्रेजी डॉक्टर लोग भी ताक़त के लिए 'नॉन वेज' खाने की सलाह देते रहते हैं .. "
रेशमा - " मतलब .. जितने भी शाकाहारी लोग हैं इस धरती के .. वो सभी कमजोर और बीमार होते होंगे .. है ना ?
मन्टू - " सब बेकार की बातें हैं .. "
रेशमा - " छोड़िए भी .. बेकार की बातों को .. बेकार लोगों के लिए और .. चलिए अपने पसंदीदा "बेवकूफ़ होटल" में शुद्ध शाकाहारी भोजन करने .. "
मन्टू - " इस होटल की एक और ख़ास बात पर गौर की हो कभी ? "
रेशमा - " क्या ? "
मन्टू - " इस होटल में ना तो कहीं पर किसी भगवान की तस्वीर या मूर्ति रखी हुई और ना ऊर्दू में लिखे कोई हदीस या ईसा मसीह के कोई निशान और ना ही गुरुनानक जी की कोई तस्वीर .."
रेशमा - " अच्छा .. हाँ .. केवल प्राकृतिक दृश्यों वाली तस्वीरों से होटल सजा हुआ है .. है ना ? "
मन्टू - " हाँ .. मतलब इसको हम धर्मनिरपेक्ष होटल कह सकते हैं .."
मन्टू की इस चुटीली बात से सभी हँसने लगे हैं। इस तरह बातों-बातों में सभी होटल तक आ गए हैं। रेशमा 'काउंटर' के पास जाकर सभी के खाने का 'आर्डर' दे रही है।
रेशमा - " भईया सभी के लिए एक-एक थाली खाना लगवा दीजिए जल्दी से .."
बाकी लोग खाली जगह देखकर सुविधानुसार स्थान ग्रहण कर रहे हैं। अभी रेशमा और मन्टू 'वाश बेसिन' में हाथ धो ही रहे हैं, तब तक होटल से बाहर .. कचहरी प्रांगण में किसी के कुहंक-कुहंक कर रोने की आवाज़ के साथ-साथ बहुत सारे लोगों की आवाज़ सुनायी देने लग गयी है। रेशमा सब को बैठने का इशारा कर के शोर की ओर बढ़ चली है। पीछे से मन्टू भी, कि .. आख़िर हो क्या गया है अचानक से ...
【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को .. "पुंश्चली .. (३४) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】