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Sunday, August 30, 2020

एक रात उन्मुक्त कभी ...

हुआ था जब पहली बार उन्मुक्त

गर्भ और गर्भनाल से अपनी अम्मा के,

रोया था जार-जार तब भी मैं कमबख़्त।

क्षीण होते अपने इस नश्वर शरीर से

और होऊँगा जब कभी भी उन्मुक्त,

चंद दिनों तक, चंद अपने-चंद पराए

तब भी रोएंगे-बिलखेंगे वक्त-बेवक्त।

चाहता है होना कौन भला ऐसे में उन्मुक्त ! ...


लगाती आ रही चक्कर अनवरत धरती 

युगों-युगों से जो दूरस्थ उस सूरज की,

हो पायी है कब इन चक्करों से उन्मुक्त ? 

बावरी धरती के चक्कर से भी तो इधर 

हुआ नहीं आज तक चाँद बेचारा उन्मुक्त।

धरे धैर्य धुरी पर अपनी सूरज भी उधर 

लगाता जा रहा चक्कर अनवरत हर वक्त।

चाहता है होना कौन भला ऐसे में उन्मुक्त ! ...


रचने की ख़ातिर हरेक कड़ी सृष्टि की

मादाएँ होती नहीं प्रसव-पीड़ा से कभी मुक्त।

दहकते लावा से अपने हो नहीं पाता उन्मुक्त, 

ज्वालामुखी भी कभी .. हो भले ही सुषुप्त।

हुए तो थे पुरख़े हमारे एक रात उन्मुक्त कभी,

ख़ुश हुए थे लहराते तिरंगे के संग अवाम सभी,

साथ मिला था पर .. ग़मज़दा बँटवारे का बंदोबस्त।

चाहता है होना कौन भला ऐसे में उन्मुक्त ! ...




Saturday, November 23, 2019

पूछ रही है बिटिया ...

क ख ग घ ... ए बी सी डी ..
सब तो आपने मुझ बिटिया को
बहुत पढ़वाया ना पापा ?
अब "एक्स-वाई" भी तो
समझा दो ना पापा !
अगर भईया बना "वाई" से
वंश-बेल माना आपका
पर मुझ बिटिया में भी तो
है ही ना "एक्स" आपका
फिर मुझ से तथाकथित
मोक्ष क्यों नहीं पापा !???
पूछ रही है बिटिया ...

गुड्डा-गुड़िया .. कुल्हिया-चुकिया ..
सब खेल चुके ..
अब तो हवाई-जहाज भी
उड़ाने दो ना पापा !
मुझ बिटिया को समझते क्यों
"बोझ" और "कमजोर" भला
हम जबकि सृष्टि रचयिता
नौ माह तक बोझ उठाती
नौ माह क्या .. नौ दिन भी नहीं ..
बस नौ मिनट तक ही
सम्भाल सके कोई भी नर
कोख़ और प्रसव-पीड़ा
है क्या आपकी नज़र में
कोई ऐसा .. बोलो ना पापा !...
पूछ रही है बिटिया ...

"लक्ष्मी आई - लक्ष्मी आई"
उदास मन से कहते हैं सब ना !?
बिटिया सुख देती तो है पर 
दुःखी करता दहेज़ सहेजना
अगर बिटिया की क़िस्मत जो फूटी
सरेराह उसकी इज्ज़त जो लुटी
शुरू कर देते क्यों सगे सारे
उस बिटिया से कतराना
दहेज़ के लोभी .. तन के भोगी
सब तो हैं नर ही सारे
तो फिर भला किसी बिटिया की
माँ के कोख़ में ही कर देते
भ्रूण-हत्या क्यों पापा !???...
पूछ रही है बिटिया ...