Friday, September 27, 2019

चन्द पंक्तियाँ - (१८ ) - "मन के दूरबीन से" - बस यूँ ही ...

(१)*

माना ...
इन दिनों
छीन लिया है
तुम्हारे सिरहाने से
मेरी बाँहों का तकिया
मेरे 'फ्रोजेन शोल्डर' ने ...

बहरहाल आओ
मन बहला लो
सुन्दर रंगोली से
जो है सजी
तन पर मेरे
'इन्सुलिन की सुइयों' से ...

(२)*

माना ...
मासूम बच्चों को
अब तक
बहुत बार
दो बूँद पिलाया
पोलियो का

अब क्यों ना ...
सनके सयानों के लिए
प्रयोगशालाओं में
बनाया जाए
"डोपामाइन-
हार्मोन्स" का टीका !?...

(३)*

लाख दूर
रहने पर भी
पल-पल
पास-पास
तुम्हारा ...
रूमानी अहसास
मेरे मन के
दूरबीन से ...

देखो ना जरा ! ...
मैं कहीं
"गैलीलियो" तो नहीं
बन गया !? ...



Sunday, September 22, 2019

एक काफ़िर का सजदा ...

मौला भी तू, रब भी तू
अल्लाह भी तू ही, तू ही है ख़ुदा
करना जो चाहूँ सजदा तुम्हें
तो ज़माने भर से है सुना
हम काफ़िरों को है सजदा मना
अब बता जरा है हमारी क्या खता

करते है सब सजदे तुम्हें
रुख़ करके पश्चिम सदा
कहते हैं कि तू काबा में है बसा
अब समझा जरा इस काफ़िर को तू कि ...
काबा के उस काले पत्थर में ढूँढू तुम्हें
या फिर दफ़न वक़्त के कब्र में
बेजान तीन सौ साठ बुतों में है तू सोया

अक़्सर मैं ये सोचता हूँ कि ...
आब-ए-ज़मज़म से क्या मिट सकेंगे
लगे हैं जो दाग़ अस्मतदरी के बारहा
यूँ तो सिर उनके भी झुके हैं अक़्सर
तेरे सजदे में मेरे मौला
थी जिनकी धिंड में भागीदारी
और जो थे अस्मतदरी की वज़ह
और उनके भी तो सिर झुके हीं होंगे
सजदे में तुम्हारे ही आगे
जिनकी इज्ज़त की उड़ी थी धज्जियाँ

चाहे म्यांमार की काफ़िर बौद्ध भिक्षुणियाँ हों
या कश्मीरी समुदाय विशेष की लड़कियाँ
और बँटवारे के वक्त तू सोया था कहाँ
जब फिसल रहे थे नंगे स्तनों पर
काटने को प्यासे दरिंदों के ख़ूनी खंजर
तब उनकी अनसुनी चीखों पर
क्यों नहीं तू फ़फ़क-फ़फ़क कर था रोया

होकर काफ़िर भी मैं
सजदा करूँ आगे तुम्हारे
बस शर्त्त है ये कि ...
अगर जो तू ले ले रोकने की हर
अस्मतदरी की जिम्मेदारी यहाँ ...
तभी नसीब होगा तुझे मेरे मौला
इस एक काफ़िर का सजदा ...
हाँ ... एक काफ़िर का सजदा ...