हुआ था जब पहली बार उन्मुक्त
गर्भ और गर्भनाल से अपनी अम्मा के,
रोया था जार-जार तब भी मैं कमबख़्त।
क्षीण होते अपने इस नश्वर शरीर से
और होऊँगा जब कभी भी उन्मुक्त,
चंद दिनों तक, चंद अपने-चंद पराए
तब भी रोएंगे-बिलखेंगे वक्त-बेवक्त।
चाहता है होना कौन भला ऐसे में उन्मुक्त ! ...
लगाती आ रही चक्कर अनवरत धरती
युगों-युगों से जो दूरस्थ उस सूरज की,
हो पायी है कब इन चक्करों से उन्मुक्त ?
बावरी धरती के चक्कर से भी तो इधर
हुआ नहीं आज तक चाँद बेचारा उन्मुक्त।
धरे धैर्य धुरी पर अपनी सूरज भी उधर
लगाता जा रहा चक्कर अनवरत हर वक्त।
चाहता है होना कौन भला ऐसे में उन्मुक्त ! ...
रचने की ख़ातिर हरेक कड़ी सृष्टि की
मादाएँ होती नहीं प्रसव-पीड़ा से कभी मुक्त।
दहकते लावा से अपने हो नहीं पाता उन्मुक्त,
ज्वालामुखी भी कभी .. हो भले ही सुषुप्त।
हुए तो थे पुरख़े हमारे एक रात उन्मुक्त कभी,
ख़ुश हुए थे लहराते तिरंगे के संग अवाम सभी,
साथ मिला था पर .. ग़मज़दा बँटवारे का बंदोबस्त।
चाहता है होना कौन भला ऐसे में उन्मुक्त ! ...