Thursday, April 27, 2023

फिर क्यूँ भला मन दरबदर है ? ...

साहिबान ! .. मिसरा, बहर, मतला, तख़ल्लुस, मक़ता, काफ़िया और रदीफ़ .. इन सबसे अनभिज्ञ .. ग़ज़ल की सऊर (शऊर) भला क्योंकर होगी मुझ में .. पर मन के बाढ़ को हल्का करने के क्रम में जो बतकही शब्दों के साँचे में ढली है, वो सारी की सारी हूबहू हाज़िर है आपकी नज़र .. पर साहिबान !! .. इस बतकही को मिसरा, बहर, मतला, तख़ल्लुस, मक़ता, काफ़िया और रदीफ़ की नज़रों से कतई ना पढ़ी जाए .. बस और बस .. बतकही को बतकही की तरह सरसरी निग़ाहों से  देखी/पढ़ी जाए .. बस यूँ ही ...


चारों तरफ सनसनीखेज़ खबर है,सोया हुआ सारा शहर है।

है मौसम में कनकनी,किस डर से पसीने में सब तरबतर हैं?


लुटी बस्ती, बने अवशेष जले-टूटे घर,सब की टूटी कमर है।

हैं लम्बी कतारें,यतीमों-बेवाओं की, किसने ढाया क़हर है?


रब ने रगों में बहाया,जमीं पे फिर क्यूँ बना लहू का नहर है?

आग लगी यूँ तो जंगल में,पर आना जल्द ज़द में हर घर है।


सर तन से जुदा कर गया वो,अभी तो रात नहीं, दोपहर है।

हैं पूजते कई पत्थर, कोई चोटिल करने को मारता पत्थर है।


सभी भाड़ोती इस धरती के, फिर किस वास्ते मची ग़दर है?

आपसी तनातनी क्यूँ, जग का हर कोना तो रब का घर है?


होड़ बाड़े में क़ैद करने की धर्म-मज़हब के, कैसा जबर है?

कोई हिन्दू या मुसलमां, लापता इंसाँ, किसने रोपी ज़हर है?


मन मारना है हिस्से में मेरे,वो मनमानी करता सारी उमर है।

नुमाइंदे ख़ाक होंगे वो रब के,जिन्हें इंसान की नहीं क़दर है।


सोचों में मेरे आना रुका ना,यूँ पहरा तो तुझ पे हर पहर है।

यूँ डबडबायी तो हैं तेरी आँखें, पर क्यूँ धुंधली मेरी नज़र है?


सूना मन का आँगन,भले ही बनता रहा वो .. हमबिस्तर है।

हमनवा नहीं वो, पर कहने को जीवन-सफ़र में हमसफ़र है।


लेटा नर्म-गर्म बिस्तरों में तन,फिर क्यूँ भला मन दरबदर है?

बंजारा बस्ती के वाशिंदे बता, सोया या मरा हुआ शहर है?