Saturday, February 20, 2021

मन का व्याकरण ...

शुक्र है कि 

होता नहीं

कोई व्याकरण

और ना ही 

होती है 

कोई वर्तनी ,

भाषा में

नयनों वाली

दो प्रेमियों की 

वर्ना .. 

सुधारने में ही

व्याकरण 

और वर्तनी ,

हो जाता 

ग़ुम प्यार कहीं .. शायद ...


कभी भी 

कारण भूख के 

ठुनकते ही

किसी भी

अबोध के ,

कराने में फ़ौरन 

स्तनपान या

सामान्य 

दुग्धपान में भी

भला कहाँ

होता है 

कोई व्याकरण

या फिर

होती है 

कोई भी वर्तनी .. शायद ...


व्याकरण और

वर्तनी का

सलीका 

होता नहीं

कोई भी ,

टुटपुँजिया-सा

सड़क छाप 

किसी आवारा 

कुत्ते में या 

विदेशी मँहगी 

नस्लों वाले

पालतू कुत्ते में भी ,

तब भी तो होती नहीं 

कम तनिक भी

वफ़ादारी उनकी .. शायद ...


काश ! कि ..

गढ़ पाते जो 

कभी हम

व्याकरण

मन का कोई

और पाते

कभी जो

सुधार हम

वर्तनी भी

वफ़ादारी की ,

किसी ज़ुमले या

जुबान की जगह ,

तो मिट ही जाता

ज़ख़ीरा ज़ुल्मों का

जहान में कहीं .. शायद ... 



Wednesday, February 17, 2021

तसलवा तोर कि मोर - (भाग-१) ... {दो भागों में}.

वैसे तो सर्वविदित है कि बीसवीं सदी की शुरुआती दौर में ही आमजन के लिए रेडियो-प्रसारण की शुरुआत न्यूयार्क के बाद हमारे परतंत्र भारत में भी हो गई थी। हालांकि विश्व स्तर पर इसके आविष्कार का श्रेय वैसे तो अपने नाम से पेटेंट करवा लेने के कारण इटली के वैज्ञानिक मार्कोनी को दिया जाता है , पर तत्कालीन समय गवाह रहा है कि उस रेडियो का विकास हमारे देश के वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बसु के आविष्कार किए गए बेतार रेडियो के आधार पर ही हुआ था।

रेडियो के आने के कई दशकों के बीत जाने के बाद 2011 के 3 नवम्बर को संयुक्त राष्ट्र  ( UN - United Nations ) की एक विशेष एजेंसी - "संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन" ( UNESCO - United Nations Educational, Scientific and Cultural Organization ) , जिस का मुख्यालय पेरिस में अवस्थित है, ने 13 फ़रवरी के दिन को " विश्व रेडियो दिवस " के रूप में मनाने की घोषणा की थी। तब से हम सभी इसको बख़ूबी कम-से-कम सोशल मिडिया पर तो मनाते ही आ रहे हैं। पर .. डर लगता है , उन लोगों से जो इसे कोई विदेशी चलन मानते हुए इसका अपने यहाँ अतिक्रमण या घुसपैठ समझ कर इसको मनाना या मानना छोड़ ना दें कहीं .. शायद ...

इस के उपलक्ष्य में चार दिन पहले लोगबाग द्वारा अपनी-अपनी तरह से सोशल मिडिया पर इस से सम्बंधित प्रकाशित उपलब्ध कुछ पोस्टों पर नज़र पड़ी तो जरूर , पर लगा कि कहीं कुछ छूट रहा है या रेडियो से संबंधित ऐसे एक-दो कोई प्रसिद्ध व्यक्तिविशेष हैं , जिनकी चर्चा नहीं होने के कारण वे सामने से मायूस हो कर मानो अपनी चर्चा के लिए हम सभी से गुहार लगा रहे हैं। वैसे तो "सुनीता नारायणन" को कम या नहीं जानने वाली और "सपना चौधरी" को बख़ूबी जानने और पहचानने वाली हमारी मौजूदा आबादी तो मानो उन तत्कालीन ख़ास नामों को या तो पूरी तरह बिसरा चुकी है या फिर तनिक भी जानती ही नहीं। तभी तो ऐसे लोगों के बारे में वेबसाइटों पर नगण्य जानकारियाँ उपलब्ध हैं। हो सकता है .. ऐसे मौकों पर उन की कमोबेश चर्चा करनी भी उनके प्रति एक श्रद्धांजलि का ही रूप हो जाए .. शायद ...
जब कभी भी हम रेडियो या उसके विभिन्न कार्यक्रमों की बातें कर रहे हों , तो फ़िल्मी गीतों पर आधारित अपने समय के मशहूर कार्यक्रम - बिनाका गीतमाला, जो बाद में इस कार्यक्रम की प्रायोजक कम्पनी के उत्पाद का नाम बिनाका टूथपेस्ट से बदल कर सिबाका हो जाने पर सिबाका गीतमाला के नाम से प्रसारित होने लगा था, के उद्घोषक अमीन सयानी जी के ज़िक्र के बिना ये बातें शायद अधूरी ही रह जाए। जिनकी भौंरे की गुनगुनाहट-सी लयात्मक आवाज़ युक्त सम्बोधन - " बहनों और भाईयों " मानो हर तबक़े के जनसमुदाय के कानों में सरगम की फ़ुहार से भींजा जाता था। उन्हें उद्घोषकों का भीष्म पितामह भी अगर कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी ..शायद ...
पचास से अस्सी तक के दशक में बिनाका गीतमाला कार्यक्रम सुनने के लिए मानो प्रत्येक बुधवार के रात आठ बजे से नौ बजे तक लोगों की दिनचर्या थम-सी जाती थी। तब लोगों के पास मनोरंजन के साधन भी तो सीमित ही हुआ करते थे। ना तो आज की तरह टेलीविज़न था, ना ही मोबाइल और सोशल मिडिया जैसे मंच की कल्पना भर भी। मनोरंजन के नाम पर ले-दे कर सिनेमा हॉल था , मुद्रित साहित्यिक सामग्रियाँ थीं और रेडियो व ट्रांजिस्टर थे।
तब घर या दुकान में रेडियो रखने वालों को उसका लाइसेंस लेना पड़ता था और हर साल यथोचित देय शुल्क देकर उसका नवीकरण भी कराना पड़ता था ; क्योंकि पहले रेडियो सुनने के लिए "डाक विभाग- भारतीय तार अधिनियम-1885" के अंतर्गत लाइसेन्स उसी तरह का बनवाना पड़ता था , जिस प्रकार से आज वाहन या हथियार रखने या अन्य किसी काम के लिए लाइसेंस बनवाना पड़ता है। उस दौर में बिना लाइसेंस के रेडियो सुनना अपराध माना जाता था। वैसे 1987 में इसको बंद कर दिया गया।
तब तो सब के पास रेडियो होता भी नहीं था। नतीज़न - लोगबाग अपने मुहल्ले के किसी के भी घर जहाँ रेडियो उपलब्ध हुआ करता था , वहाँ अपने-अपने सम्बन्ध की प्रगाढ़ता के अनुसार घर के भीतर जाकर या बाहर से ही, या फिर किसी पान ( तब गुटखा नहीं हुआ करता था ) की गुमटी के इर्द-गिर्द इकट्ठे हो कर सम्पूर्ण कार्यक्रम सुना करते थे। उन में से कई गुमटी वाले तो रेडियो को लाउडस्पीकर से जोड़ देते थे , तो उसके आसपास का पूरा मुहल्ला ही अपने-अपने घरों में बैठे ही सुन लिया करता था। साल के अंत में बिनाका गीतमाला के अंतर्गत उस साल के पहले पायदान पर आने वाले उस एक नायाब फ़िल्मी गीत को लेकर लोग किसी चुनाव के परिणाम आने के पहले लगायी जाने वाली अटकलों की तरह आपस में अपनी-अपनी अटकलें साझा करते थे। इस के लिए लोगों द्वारा आपस में कई तरह की बाजियाँ तक भी लगायी जाती थीं।
उस समय ग़ैरकानूनी सट्टेबाजी जैसे किसी चलन का प्रचलन नहीं हुआ करता था , वैसे अगर होगी भी तो भी इसका अंदाज़ा तो नहीं है हमें।  ख़ैर ! ... अगर होगी भी तो हमें क्या करना भला ? आज भी तो कई विसंगतियाँ हैं अपने समाज में तो .. हम कर ही क्या लेते हैं भला उसे दूर करने के लिए .. है ना ? अगर टपोरी भाषा का प्रयोग करने के लिए दो पल की छूट मिले तो कह सकते हैं कि ऐसे में हम क्या ही उखाड़ लेते हैं भला , सिवाय तथाकथित सत्यनारायण स्वामी की कथा के लिए पंडित जी के आदेशानुसार पास के किसी मैदान से दूब उखाड़ने के ? .. शायद ...
वैसे तो अमीन सयानी जी की आवाज़ आज भी सुनने के लिए या यूँ कहें कि कानों में रस घोलने की ख़ातिर कई वेबसाइटों पर उपलब्ध हैं। इसीलिए आज अमीन सयानी जी की चर्चा करने जा भी नहीं रहे हैं  हम ; बल्कि एक ऐसे व्यक्तिविशेष की बात आज करते हैं जो कई दशकों तक भारतीय रेडियो-कार्यक्रम पर ही नहीं , बल्कि भारत के बाहर भी अपना सिक्का जमाए रखे। हमारे समाज के लोगों को प्रायः बहुराष्ट्रीय शब्द से जुड़ा किसी भी तरह का जुड़ाव शान महसूस करवाता है। खासकर विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ या उसके उत्पाद। पर अब कई भारतीय बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ और उनके उत्पाद भी हैं हमारे बाज़ार में जो हमें गर्व महसूस करवाते हैं। तो .. अपनी कला की पहचान विदेशों में भी बनाने वाले ये शख़्स एक भारतीय बहुराष्ट्रीय उत्पाद की तरह हम देशवासियों को गर्व महसूस करवाने वाले बहु-प्रतिभाशाली कलाकार थे।
दुर्भाग्यवश वह आज हमारे बीच नहीं हैं , पर उनके लिखे गए और स्वयं के गढ़े गए पात्र के अभिनय में बोले गए संवाद आज भी कई कानों में घर बनाए हुए हैं। समसामयिक विषयों पर उस अपने गढ़े हुए पात्रों के मुँह से गलत-सलत अँग्रेजी, हिन्दी और भोजपुरी की मिलीजुली नयी भाषा में समसामयिक विषयों पर चुटीला प्रहार भी कर जाते थे , तो लगता था कि किसी ने ठिठोली करते हुए बस .. चिकोटियाँ भर काटी हैं। तब लोग टाँग-खिंचाई करते हुए उनके व्याकरण या वर्तनी को सुधारने में अपना वक्त बर्बाद कर अपनी गर्दन नहीं अकड़ाते थे , बल्कि उनकी कही गई बातों के भावों को समझने की कोशिश करते थे। उनकी बातों में आज के विरोधीजीवियों की मानिंद घायल करती मदान्ध कड़वी चोट करती-सी बातें नहीं हुआ करती थी .. शायद ...
दरअसल आजकल की इन व्यस्तता भरी ज़िन्दगानी के लिए तो यह रचना लम्बी होती जा रही है ; तो .. आज यहीं पर अर्द्धविराम लेते हैं और अगले "तसलवा तोर कि मोर - (भाग-२) ..." में उन व्यक्तिविशेष के बारे में यथासंभव विस्तार से बातें करते हैं। साथ ही उस में यह भी स्पष्ट हो जाएगा कि इस बतकही { आलेख/संस्मरण (?) } का शीर्षक किसी कहावत से क्यों चुराया गया है  .. बस यूँ ही ...