Saturday, October 12, 2019

प्रेम के तीन आयाम ...

स्नेह, प्रेम और श्रद्धा हैं
तीनों प्रेम के तीन आयाम
बचपन, जवानी और बुढ़ापा
हैं जैसे जीवन के तीन सोपान
या कठोपनिषद् के तथाकथित
पात्र नचिकेता का यमराज से
मानो मांगे गए तीन वरदान ...
है प्रेम आज भी गूढ़ और रहस्यमयी
आयतनरहित .. परिभाषा अनगिनत
मानो आत्मा के रहस्य वाला
नचिकेता का मांगा गया तीसरा वरदान

संज्ञान है विज्ञान का कि प्रेम है बस
तन की परखनली में पकता
साँसों की धौंकनी पर
तप्त रक्त के ताप से
चार रसायनों - टेस्टोस्टेरोन, डोपामाइन,
एड्रॉलिन और सेरोटॉनिन का कॉकटेल
और कॉकटेल का नशा कुछ ऐसा कि ...
शब्द "प्रेम" सुनते ही है होता
"कुछ-कुछ" या सच कहें तो
"बहुत कुछ" का विस्तार
मानो हो जैसे "ॐ" उच्चारने से
बदन में ऊर्जा का संचार

यूँ तो कभी पाना है प्रेम .. कभी खोना है प्रेम
कभी अपनाना है प्रेम .. तो
कभी मजबूरीवश ठुकराना है प्रेम
ऑनर किलिंग हो तो खतरा है प्रेम
या फिर डोपामाइन का क़तरा है प्रेम
किसी से लिपटना है प्रेम
या किसी से बिछुड़ना है प्रेम
कभी आग़ोश है प्रेम .. कभी बिछोह है प्रेम
कभी ऊर्जा है प्रेम तो ..  कभी वर्षा है प्रेम
युगों रहा है .. आगे भी रहेगा निरन्तर
कुछ अंधों का हाथी टटोलना जैसा ही प्रेम ...

भेद का पर्दा

पर्दा का उठना-गिरना ...
गिरना-उठना है एक
अनवरत सिलसिला
पलकों के उठने-गिरने ...
गिरने-उठने जैसा
मानो हो दिनचर्या का अंग
पर्दा है कभी क़ुदरती नियामत
मसलन -  नयनों की पलकें
सुरक्षा-कवच ... ओज़ोन की परत
मानव-तन पर त्वचा का आवरण ...

कभी होता है जरुरी हटना भी
पर पर्दे का कई बार
हो जो अगर पड़ा अक्ल पर
और समय से उठना भी
प्रदर्शन शुरु होने से पहले
किसी भी मंच पर
और हाँ !!! ...
हटा रहे मन से भी
हर एक भेद का पर्दा 
जो हो मन से मन का
रिश्ता कोई प्रगाढ़ अगर ...
लगते हैं नागवार भी
कई बार यही पर्दे
अगर अनचाहा हो घुँघट या
फिर ज़बरन थोपा गया
कोई मज़हबी बुर्क़े का चलन ...

सृजन के लिए भी
कभी भी .. कोई भी ... 
सृष्टी की कड़ी
होता है निहायत ज़रूरी
पर्दे का हटना हाल में हर
मसलन - अमूमन अंकुरण के लिए
हटना हो बीज का आवरण
या गर्भ की झिल्ली के फटने के
बाद हो मानव-अवतरण
या मानव-सृजन के बुनियाद के
पल भी उतरना हो रचयिता
नर-नारी युगल का वसन ...


Friday, October 11, 2019

बच्चे अब बड़े हो गए हैं !!!

एक शाम अर्धांगनी की उलाहना -
"बच्चे अब बड़े हो गए हैं !!!
आपको शर्म नहीं आती क्या !?"

मैं घायल मन से -
"शर्म ही आती, तो ये बच्चे नहीं आते,
और बच्चे बड़े हो भी गए तो बतलाओ भला !!
उनके बढ़ने और अपनी रुमानियत घटने का
कौन सा अनुपातिक सम्बन्ध है ..... बोलो भला !?

पप्पू के admission के वक्त दिखा ना था पिछले साल
अपने college के दिनों का गुलमोहर टहपोर लाल
आज भी मौसम में खिला करता है वैसा ही
जैसा खिला करता था उन दिनों .. हमारे ज़माने में
हमारे college के campus में

हाँ .. टहपोर चाँदनी भी तो आज भी उतनी ही खिलती है
जितनी खिला करती थी वर्षों पहले .. हर पूर्णिमा के रात
हम दोनों दूर अपने-अपने आँगन या छत से मिनटों
तयशुदा एक ही समय पर निहारते थे चाँद को अपलक
ये सोच कर कि हमारी नजरें टकरा रही है साथ-साथ

फिर हमारी रुमानियत क्यों कम होने लगी भला !?
और फिर हमारी रुमानियत को
किसी की नज़र भी तो नहीं लगी होगी
लगी भी है तो ... मिरचा, लहसुन,सरसों लेकर 'न्योछ' दो
नज़र उतर जायेगी

पर ये कह कर दिल मत तोड़ा करो यार ..
कि ...
"बच्चे अब बड़े हो गए हैं ।"

Thursday, October 10, 2019

बोगनवेलिया-सा ...

बोगनवेलिया की
शाखाओं की मानिंद
कतरी गईं हैं
हर बार .. बारम्बार ..
हमारी उम्मीदें .. आशाएं ..
संवेदनाएं .. ना जाने
कई-कई बार
पर हम भी ठहरे
ज़िद्दी इतने कि ..
हर बार .. बारम्बार
तुम्हारी यादों के बसंत
आते ही फिर से
पनपा ही लेते हैं
उम्मीदों की शाखाएं
फैला ही लेते हैं
अपनी बाँहें तुम्हारे लिए
ठीक बोगनवेलिया की
शाखाओं की मानिंद

माना कि ...
नहीं हैं पास हमारे
मनलुभावन दौलत .. रुतबे
या ओहदे के सुगन्ध प्यारे
पर मनमोहक .. मनभावन ..
प्यार का रंग तो है
जो तपती जेठ की
दुपहरी में भी
खिली-खिली रंगीन
बोगनवेलिया के फूलों की
पंखुड़ियों-सा दमकता है ...


कभी किया था जो
तुमसे प्यार और
हुआ था तुम्हारा मन से
हो ही नहीं पाते आज भी
किसी और के
ना मालों में गूंथा जाता हूँ
ना सजता हूँ
पूजा की थालियों में
ठीक बोगनवेलिया के
फूलों की तरह ... उपेक्षित-सा ...
और बोगनवेलिया की
शाखाओं की तरह
सिर को झुकाए
करता हूँ अनवरत
बस तुम्हारा इंतज़ार ...
केवल और केवल तुम्हारा इंतज़ार ...




Wednesday, October 9, 2019

अंतरंग रिश्ते के दो रंग ... ( दो रचनाएँ ).

(1)@

 बनकर गुलमोहर
 -------------------
सुगन्ध लुटाते
मुस्कुराते .. लुभाते
बलखाते .. बहुरंग बिखेरे
खिलते हैं यहाँ सुमन बहुतेरे
नर्म-नर्म गुनगुने धूप में
यौवन वाले खिले-खिले
जीवन-वसंत के
पर ... तन जलाती
चिलचिलाती धूप लिए
मुश्किल पलों से भरे
जीवन के जेठ-आषाढ़ में
शीतल छाँव किए
बनकर गुलमोहर
खिलूँगा मैं अनवरत
हो तत्पर तुम्हारे लिए ...

गेंदा .. गुलदाउदी ..
गुलाब होंगे ढेर सारे
संग तुम्हारे
आसान-से
दिन के उजियारे में
होंगीं बेली .. चमेली
मोगरा भी मस्ती भरे
चाँदनी रात वाले
चुंधियाते उजियारे में पर ...
मायूस .. सुनी ..
तन्हा रातों में
रहूँगा संग तुम्हारे
अनवरत हर बार
हरसिंगार की तरह
पूर्ण आत्मसमर्पण किए हुए ...

(2)@

कंदराओं में बुढ़ापे की
------------------------
आँगन में बचपन के
गलियारों में यौवन के
चहकते हैं सभी
चहकना .. महकना ..
मचलना .. मटकना ..
रूठना .. मनाना ..
चाहना .. चाहा जाना ..
ये सब तो करते हैं सभी
है ना सखी !?

पर आओ ना !!!
कंदराओं में बुढ़ापे की
तुम-हम चहकेंगे .. महकेंगे ..
मटकेंगे .. मचलेंगे ..
रुठेंगे .. मनाएंगे ..
चाहेंगे .. चाहे जाएंगे ..
टटोलेंगे अपनी कंपकंपाती
वृद्ध हथेलियों से
उग आई चेहरे पर
अनचाही झुर्रियों को
एक-दूसरे की
है ना सखी !?

और अपनी बुढ़ाई हुई
मोतियाबिंद वाली
धुंधलायी आँखों से
तलाशेंगे उनमें लांघी गई
कुछ सीधी-सीधी गलियां
रौंदी हुई कुछ
टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियां
हमारे-तुम्हारे जीवन की
है ना सखी !?

बैठ फ़ुर्सत में आमने-सामने
कभी एक-दूसरे की बाँहों में
बतिआया करेंगे हम-दोनों
पोपले मुँह से तोतली बोली
अपने बचपन-सी
और ढूँढ़ा करेंगे अक़्सर
चाँदी-से सफ़ेद बालों में
बर्फ़ीले पहाड़ों के
बर्फ़ की सफ़ेदी तो कभी ..
चमक पूर्णमासी की रात वाली
टहपोर चाँदनी की
आओ ना सखी !?

Monday, October 7, 2019

बेआवाज़ चीखें

दिखती हैं अक़्सर
फूलों की अर्थियां
दुकानों .. फुटपाथों
चौक-चौराहों पर
चीख़ते .. सुबकते
पड़े बेहाल ..
बेजान फूल ही
चढ़ते यहाँ
बेजान 'पत्थरों' पर ...

हम लोग तो हैं
श्रद्धा-सुमन से ही
अंजान .. बेख़बर
सिसकते हैं फूल भी
डाली से टूटकर
बेआवाज़ चीखें
मछलियों-सी इनकी
बलिवेदीयों पर कटती
गर्दनों से नहीं हैं इतर ...


Sunday, October 6, 2019

चलो ... बुत बन जाएं - चन्द पंक्तियाँ - (१९) - बस यूँ ही ...

(१)
पत्थर-दिल
हो गए हैं

मेरे शहर
के लोग ...

'पत्थरों' को
पूजते-पूजते

(२)
सुना है ...
अयोध्या में
'राम-मंदिर' बनवाने में
हैं अनगिनत अवरोध ...

'अयोध्या' बन जाएगा
हर गाँव-शहर
अगर ...
तू 'राम' बनने की सोच ...

(३)
शहर में इन दिनों
'पैरोडी' का शोर
है क्यों कर ...

शायद 'श्रद्धा'
जताने का हो
कोई नया चलन

यूँ 'प्यार' तो ये शहर 
ख़ामोशी से ही
जताता हैं अक़्सर ...

(४)
अपने शहर में ....
इन्सानों की भला
है अब क़द्र कहाँ !?

चलो... बुत बन जाएं
बुतों की हीं
है क़द्र अब यहाँ ...

(५)
त्योहारों के
मौसम में
विज्ञापनों के
होड़ ने
ग़रीब-सा
कर दिया

इतने भी तो
हम ना थे
कभी ग़रीब ......

(6)
हे तथाकथित
जग के पालनहार!
अख़बारों की
सिसकती
सुर्खियाँ


आए दिन
सुबह-सवेरे तेरी '
मौज़ूदगी' पर ही
एक सवाल-सी
उठाती है ...