पापा ! ...
वर्षों पहले तर्ज़ पर सुपुर्द-ए-ख़ाक के
आपके सुपुर्द-ए-राख होने पर भी,
आज भी वर्षों बाद जब कभी भी
फिनाईल की गोलियों के या फिर कभी
सराबोर सुगंध में 'ओडोनिल' के,
निकाले गए दीवान या ट्रंक से साल दर साल
कुछ दिनों के लिए ही सही पर हर साल
कनकनी वाली शीतलहरी के दिनों में,
दिन में आपके ऊनी पुराने दस्ताने और
सोते वक्त रात में पुरानी ऊनी जुराबें
पहनता हूँ जब कभी भी तो मुझे
इनकी गरमाहट यादों-सी आपकी आज भी
मानो सौगात लगती हैं ठिठुरती सर्दियों में।
पर पापा अक़्सर ..
होती है ऊहापोह-सी भी हर बार कि
मेरे रगों तक पहुँचने वाली
ये मखमली गरमाहट उन ऊनी पुरानी
जुराबों या दस्ताने के हैं या फिर
है उष्णता संचित उनमें आपके बदन की।
मानो कभी छुटपन में दस्ताने में दुबकी
आपकी जिस उष्ण तर्जनी को लपेट कर
अपनी नन्हीं उँगलियों से लांघे थे हमने
अपने नन्हें-नन्हें नर्म पगों वाले छोटे-छोटे
डगमगाते डगों से क्षेत्रफल अपने घर के
कमरे , आँगन और बरामदे के, जहाँ कहती हैं ..
स्नेह-उष्णता की आपकी कई सारी दास्तानें,
आज भी आपकी पुरानी जुराबें और दस्ताने .. बस यूँ ही ...