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Wednesday, May 27, 2020

जो थी सगी-सी ...

आज बस यूँ ही ... कुछ पुराने अखबारों की सहेजी कतरनों से और कुछेक साझा काव्य संकलन/प्रकाशन से :-
वैसे तो एक दिन हमने गत दिनों के साझा-काव्य-प्रकाशन से मिले अपने कुछ खट्टे-मीठे अनुभवों को यहाँ साझा किया ही था।

(१)
आज निम्नलिखित पहली रचना/विचारधारा सात रचनाकारों के साथ "सप्तसमिधा" नामक साझा काव्य संकलन में छपी मेरी पन्द्रह रचनाओं में से एक है। इस संकलन का विमोचन सारे रचनाकारों, सम्पादक महोदय, कुछ स्थानीय अतिथियों और कुछ श्रोताओं की उपस्थिति में बनारस (वाराणसी/काशी) शहर से होकर गुजरने वाली गंगा नदी के किनारे 21.06.2019 की शाम अस्सी घाट पर सम्पन्न हुआ था।
तो आइए देखते हैं कि जब कोई मनमीत (या मनमीता) कभी पास ना हो .. केवल उसके एहसास ही एहसास हों पास, तो .. हम अपने मन को कैसे तर्कों के साथ दिलासा देते हैं। कुछ ख़ास नहीं .. बस यूँ ही ...



कहाँ पास होता है ?
जाड़े के गुनगुने धूप
सुबह-सवेरे करते हैं जब कम
ठिठुरन हमारी अक़्सर,
तब भला सूरज कहाँ पास होता है ?

उमस भरी गर्मियों में
शाम को सुकून देती पुरवाई
और होती है चाँदनी भी अक़्सर,
तब भला चाँद कहाँ पास होता है ?

बिखेरती हैं जब-जब बारिश की बूँदें
गर्मियों की तपिश के बाद
सोंधी सुगंध तपी मिट्टीयों की,
तब भला बादल कहाँ पास होता है ?

मीठी कूकें कोयल की
छेड़ती हैं जब-जब वसंत में
क़ुदरती सरगम का राग,
तब भला कोयल का साथ कहाँ पास होता है ?

हर सुबह-शाम घी का दीप जलाए
आँखें मूंदें, हाथों को जोड़े
श्रद्धा से नतमस्तक होते हो जिनके
तब भला वह साक्षात् कहाँ पास होता है ?
                       ●★●

(२)
ये दूसरी रचना तो सचमुच में कलम से ही लिखी गयी है। हाँ ... मजाक नहीं कर रहा .. यक़ीन कीजिए ; क्योंकि तब मोबाइल या कंप्यूटर था ही नहीं ना।
ठीक-ठीक तो याद नहीं, पर शायद 1983-84 के दौरान लिखा होगा। किसी पतझड़ के मौसम में सुबह-सवेरे बिहार की राजधानी- पटना के अपने पुश्तैनी निवास से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर गाँधी मैदान में टहलते वक्त ये कविता कौंधी थी अचानक से।
तब से पीले पड़ गए कई पन्नों के बीच परिवार वालों की नज़रों में उपेक्षित पड़ी एक पुरानी-सी फ़ाइल में बस दुबकी-सी पड़ी रही यह रचना। फिर एक शाम सन् 2000 ईस्वी में पापा के द्वारा झारखंड के धनबाद में बनाए गए अपने निवास स्थान से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित दो-तीन दैनिक समाचार पत्रों के कार्यालयों में से एक दैनिक जागरण के कार्यालय हिम्मत कर के अपनी एक-दो रचना ले कर गया। फिर तो वर्षों तक यह सिलसिला जारी रहा। उन्हीं में से निम्नलिखित रचना/विचार एक है।
फिर बाद में दिसम्बर, 2019 में भी मेरे और संपादक (संपादिका) महोदया समेत पच्चीस रचनाकारों के साथ "विह्वल ह्रदय धारा" नामक एक साझा पद्य-मंजूषा में भी छपी मेरी चार रचनाओं में से यह एक रही है। कुछ ख़ास नहीं .. बस यूँ ही ...

प्रकृति-चक्र
वृक्ष की पत्ती
जो थी सगी-सी
पतझड़ के मौसम में
टूटकर अलग हो गयी
अपने वृक्ष हमदम से।

नन्हीं-सी जान को
मिला नहीं वक्त,
ले जाने के लिए दूर
उतावली थी
हवा भी कमबख़्त।

ना ही पत्ती को
रुकने की फ़ुर्सत शेष
ना वृक्ष को थी
मिलने की चाहत विशेष।

वृक्ष - जिससे पत्ती
बिछड़ी थी कभी,
खिल गया वो तो
पुनः वसंत आने पर,
पर ... पत्ती को दुबारा
मिल सका क्या कोई वृक्ष
उसके लाख चाहने पर ?
           ●★●