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Sunday, August 11, 2019

चन्द पंक्तियाँ - (८) - बस यूँ ही ...

(1)*
अब तक "मन के डेटिंग" पर
मिली हो जब भी तुम तो ....
कृत्रिम रासायनिक
सौंदर्य- प्रसाधनों और सुगंधों की
परतों में लिपटी
किसी सौंदर्य-प्रसाधन की
विज्ञापन- बाला की तरह
चकपक करती परिधानों में

कभी एक बार तो मिलो
कृत्रिम रासायनिक
सौंदर्य- प्रसाधनों और सुगंधों की
परतों से परे
पसीने से लथपथ
किसी कला-फ़िल्म की
साधारण सांवली नायिका की तरह
धूल-धुसरित सफ़ेद साड़ी में

ताकि भर सकूँ
तुम्हारे स्व-स्वेद का सुगंध
अपनी साँसों की झोली में
और पा सकूँ
शत्-प्रतिशत स्पर्श तुम्हारा
ठीक सागर और नदी के
निश्चल स्पर्श की तरह ....

इस तरह ... कभी एक बार तो मिलो ....


(2)*
निःसंदेह रह जाते
शब्द "प्रातःकाल" अधूरे
'सुप्रभातम्' वाले
प्रातःकाल की तरह
मेरे हर दिन के


जो ना ये चुराते
अपने "बिसर्ग" की
दोनों बिन्दुओं को
तुम्हारे चेहरे के
दोनों तिल से

एक है जो तुम्हारी
ऊपरी होंठ पर
आती-जाती दोनों
साँसों के बीच
और दूसरा तुम्हारी
चंचल बायीं नयन और
नाक के बीच में ....