ऐ आम औरतों ! .. एक अलग वर्ग-विशेष की ..
फ़ुर्सत के पलों में बैठ कर, अक़्सर तुम औरतों के गोल में हो बतियाती
और .. ऐ संभ्रांत महिलाओं ! .. कुछ ख़ास वर्ग-विशेष की ..
समय निकाल कर कविताओं या कहानियों के भूगोल में हो छेड़ती,
मन मसोसती .. बातें बारहा आर्थिक ग़ुलामी की अपनी ..
या बातें बचपन से लगाई गई या .. ताउम्र लगाई जाने वाली
पुरुषों की तुलना में तुम पर कुछ ज्यादा ही पाबंदियों की भी।
पर .. करती क्यों नहीं बातें खुल के कभी शारीरिक ग़ुलामी की
और बातें अपनी मानसिक ग़ुलामी की भी ? ..
आ-खि-र क्यों न-हीं ? ...
इसलिए कि .. लोगबाग बोलेंगे शायद .. इसे बात गन्दी ?
या फिर उठेंगे अनगिनत सवालात गरिमा पर ही तुम्हारी ?
भारत है ये .. और हैं भारत के एक स्वतन्त्र नागरिक हम सभी
भारत के संविधान ने दे रखी है हमें बोलने की आज़ादी।
तो बोलती क्यों नही तुम कि .. तुम जीती हो ताउम्र बनकर हिस्सा भर,
सेक्स-सर्वेक्षण के आंकड़े का किसी राष्ट्रीय पत्रिका की, कि ..
"चरम-सुख को 60 से 70% भारतीय महिलायें जानती ही नहीं ? "
जबकि पहली रात से ही .. हर रात .. दिन भर की थकी-हारी,
बिस्तर पर हो झेलती और होती जाती हो आदी-सी
किसी भी तम्बाकू की दुर्गन्ध की .. मुँह से उनके जो है आती ..
चाहे वो सिगरेट की हो या फिर खैनी की,
या फिर अल्कोहल की दुर्गन्ध .. हो चाहे देशी की या हो विदेशी की।
कहीं-कहीं तो वर्गानुसार केंदू के पत्ते से बनी बीड़ियों की भी
या फिर मौसमानुसार बजबजाती किण्वित नीरा रस* की।
भले ही की गई हो नाकाम कोशिश उनकी कभी-कभी,
किसी रात झाग वाले या किसी नमक वाले 'टूथपेस्ट' से या फिर
कभी 'मिंट' की गोलियों या 'च्युइंगम' से उन दुर्गन्धों को दबाने की।
फिर भी वो गंधाती है .. बदतर किसी पायरिया वाले दाँतों से भी।
इतना ही नहीं .. फिर उस सुहाग के स्खलनोपरांत,
रह जाती हो जागती .. अलसायी आँखों से निहारती,
खर्राटे भरते उनके खुलते-बंद होते मुँह को .. रात सारी की सारी
चिपकायी हुई मन में एक आस .. कसमसाते चरम-सुख की।
जिन सुहाग के नाम पर .. या धर्म के नाम पर तुम ..
अक़्सर उपवास हो करती .. भूख और प्यास हो त्यागती,
प्रतीक मानसिक ग़ुलामी का .. हो रोज माँग में टहटह चमकाती।
फिर भी जब .. उन पर कोई फ़र्क पड़ता ही नहीं,
भले ही हो इन नशाओं के बोतलों और पैकटों पर
मोटे-मोटे अक्षरों में लाख चिपकायी या लिखी,
कोई भी .. कैसी भी .. संवैधानिक चेतावनी।
तो भला ऐसे में अंतर क्या पड़ना है तुम पर भी,
बोलने वाली आज़ादी की .. भारतीय संविधान वाली।
सुन रखा है तुमने भी शायद बचपन से ही पुरखों की कही हुई, कि ...
"विधि का विधान जान, हानि लाभ सहिये,
जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिये।"
या ... जिन्दा हो मौन ये मान कर कि ..
"विधि -विधान किसी के मिटाए मिटता नहीं " ही है तुम्हारी नियति।
इन सब से इतर प्रताड़ित जीवन, आज भी कहीं-कहीं डायनों की ..
और ठिकाना गणिकाओं की, है बस्ती से दूर आज भी बसी ..
कैसे मान लें हम फिर भी कि .. हमने चाँद तक की है यात्रा की,
और मंगल पर भी जाने में है कामयाबी हासिल कर ली।
कुछ बोलो ना! .. मुँह खोलो ना ! .. ओ री बावरी ! ...
खुद को देखो ना ! .. तनिक चीखो ना ! .. अब तो जाग री ! ...
तोड़ कर चुप्पी अपनी .. कु-छ भी क्यों न-हीं हो बो-ल-ती ?
( * - किण्वित नीरा रस - Fermented Toddy Palm Juice - Palm Wine - ताड़ी .)
फ़ुर्सत के पलों में बैठ कर, अक़्सर तुम औरतों के गोल में हो बतियाती
और .. ऐ संभ्रांत महिलाओं ! .. कुछ ख़ास वर्ग-विशेष की ..
समय निकाल कर कविताओं या कहानियों के भूगोल में हो छेड़ती,
मन मसोसती .. बातें बारहा आर्थिक ग़ुलामी की अपनी ..
या बातें बचपन से लगाई गई या .. ताउम्र लगाई जाने वाली
पुरुषों की तुलना में तुम पर कुछ ज्यादा ही पाबंदियों की भी।
पर .. करती क्यों नहीं बातें खुल के कभी शारीरिक ग़ुलामी की
और बातें अपनी मानसिक ग़ुलामी की भी ? ..
आ-खि-र क्यों न-हीं ? ...
इसलिए कि .. लोगबाग बोलेंगे शायद .. इसे बात गन्दी ?
या फिर उठेंगे अनगिनत सवालात गरिमा पर ही तुम्हारी ?
भारत है ये .. और हैं भारत के एक स्वतन्त्र नागरिक हम सभी
भारत के संविधान ने दे रखी है हमें बोलने की आज़ादी।
तो बोलती क्यों नही तुम कि .. तुम जीती हो ताउम्र बनकर हिस्सा भर,
सेक्स-सर्वेक्षण के आंकड़े का किसी राष्ट्रीय पत्रिका की, कि ..
"चरम-सुख को 60 से 70% भारतीय महिलायें जानती ही नहीं ? "
जबकि पहली रात से ही .. हर रात .. दिन भर की थकी-हारी,
बिस्तर पर हो झेलती और होती जाती हो आदी-सी
किसी भी तम्बाकू की दुर्गन्ध की .. मुँह से उनके जो है आती ..
चाहे वो सिगरेट की हो या फिर खैनी की,
या फिर अल्कोहल की दुर्गन्ध .. हो चाहे देशी की या हो विदेशी की।
कहीं-कहीं तो वर्गानुसार केंदू के पत्ते से बनी बीड़ियों की भी
या फिर मौसमानुसार बजबजाती किण्वित नीरा रस* की।
भले ही की गई हो नाकाम कोशिश उनकी कभी-कभी,
किसी रात झाग वाले या किसी नमक वाले 'टूथपेस्ट' से या फिर
कभी 'मिंट' की गोलियों या 'च्युइंगम' से उन दुर्गन्धों को दबाने की।
फिर भी वो गंधाती है .. बदतर किसी पायरिया वाले दाँतों से भी।
इतना ही नहीं .. फिर उस सुहाग के स्खलनोपरांत,
रह जाती हो जागती .. अलसायी आँखों से निहारती,
खर्राटे भरते उनके खुलते-बंद होते मुँह को .. रात सारी की सारी
चिपकायी हुई मन में एक आस .. कसमसाते चरम-सुख की।
जिन सुहाग के नाम पर .. या धर्म के नाम पर तुम ..
अक़्सर उपवास हो करती .. भूख और प्यास हो त्यागती,
प्रतीक मानसिक ग़ुलामी का .. हो रोज माँग में टहटह चमकाती।
फिर भी जब .. उन पर कोई फ़र्क पड़ता ही नहीं,
भले ही हो इन नशाओं के बोतलों और पैकटों पर
मोटे-मोटे अक्षरों में लाख चिपकायी या लिखी,
कोई भी .. कैसी भी .. संवैधानिक चेतावनी।
तो भला ऐसे में अंतर क्या पड़ना है तुम पर भी,
बोलने वाली आज़ादी की .. भारतीय संविधान वाली।
सुन रखा है तुमने भी शायद बचपन से ही पुरखों की कही हुई, कि ...
"विधि का विधान जान, हानि लाभ सहिये,
जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिये।"
या ... जिन्दा हो मौन ये मान कर कि ..
"विधि -विधान किसी के मिटाए मिटता नहीं " ही है तुम्हारी नियति।
इन सब से इतर प्रताड़ित जीवन, आज भी कहीं-कहीं डायनों की ..
और ठिकाना गणिकाओं की, है बस्ती से दूर आज भी बसी ..
कैसे मान लें हम फिर भी कि .. हमने चाँद तक की है यात्रा की,
और मंगल पर भी जाने में है कामयाबी हासिल कर ली।
कुछ बोलो ना! .. मुँह खोलो ना ! .. ओ री बावरी ! ...
खुद को देखो ना ! .. तनिक चीखो ना ! .. अब तो जाग री ! ...
तोड़ कर चुप्पी अपनी .. कु-छ भी क्यों न-हीं हो बो-ल-ती ?
( * - किण्वित नीरा रस - Fermented Toddy Palm Juice - Palm Wine - ताड़ी .)