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Sunday, January 12, 2020

चोट ...

निकला करती थी टोलियां बचपन में जब कभी भी
हँसती, खेलती, अठखेलियां करती सहपाठियों की
सुनकर चपरासी की बजाई गई छुट्टियों की घंटी
हो जाया करता था मैं उदास और मायूस तब भी
देखता था जब-जब ताबड़तोड़ चोट करती हुई
टंगी घंटी पर चपरासी की मुट्ठी में कसी हथौड़ी ...

पता कहाँ था तब मेरे व्यथित मन को कि ...
जीवन में कई चोट है लगनी निज मन को ही
मिलने वाली कई-कई बार अपनों और सगों की
इस घंटी पर पड़ रहे चोट से भी ज्यादा गहरी
हाँ .. चोटें तो खाई अनेकों कई बार यूँ हम ने भी
पर परोसी रचनाएँ हर बार नई चोटिल होकर ही ...

क्यों कि सारी चोटें चोटिल कर ही जाएं हर को
ऐसा हो ही हर बार यहाँ होना जरुरी तो नहीं
कई बार गढ़ जाती हैं यही चोटें मूर्तियां कई
तबले हो या ढोल .. ड्रम, डफली या हो डमरू
हो जाते हैं लयबद्ध पड़ते ही चोट थाप की
चोट पड़ते ही तारें छेड़ने लगती हैं राग-रागिनी ...

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