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Friday, August 23, 2019

चन्द पंक्तियाँ - (११) - बस यूँ ही ...

(1)@

गाहे- बगाहे गले
मिल ही जाते हैं
साफिया की
अम्मी के
बावर्चीखाने से
बहकी ज़ाफ़रानी
जर्दा पुलाव की
भीनी ख़ुश्बू और .....
सिद्धार्थ के अम्मा के
चौके से
फैली चहुँओर
धनिया-पंजीरी की
सोंधी-सोंधी सुगन्ध ...

काश !!! मिल पाते
साफिया और
सिद्धार्थ भी
इन ख़ुश्बू और
सुगन्ध की तरह
धर्म-मज़हब से परे
गाहे-बगाहे...

(2)@

हरसिंगार के
शाखों पर
झाँकते
नारंगी-श्वेत
फूल के
स्वतन्त्र सुगंध सरीखे
चहकती तो हो
हर रोज़ कहीं दूर ....
आँखों से ओझल ...

पर... महका जाती हो
मेरी शुष्क साँसों को ...
और सहला जाती हो
अपने मौन मन से
मेरे मुखर मन को
चुपके से, हौले से
बिना शोर किए ....

(3)@

साहिब !
आपका अपनी
महफ़िल को
तारों से
सजाने का
शौक़ तो यूँ
लाज़िमी है ...
आप चाँद
जो ठहरे

हम एक
अदना-सा
बन्जारा ही
तो हैं ...
एक अदद
जुगनू भर से
अपनी शाम
सजा लेते हैं ...