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Thursday, December 2, 2021

अपनी ठठरी के भी बेचारे ...

इस सितम्बर-अक्टूबर महीने में अपनी वर्तमान नौकरी के कारणवश एक स्थानविशेष पर रह रहे किराए के मकान वाले अस्थायी निवास को कुछ अपरिहार्य कारणों से बदल कर एक अन्य नए किराए के मकान में सपरिवार स्थानांतरण करना पड़ा। 

उस समय तथाकथित पितृपक्ष (20 सितम्बर से 6 अक्टूबर) का दौर था। ऐसे में उस समय कुछ जान-पहचान वाले तथाकथित शुभचिन्तक सज्जनों का मुझे ये टोकना कि - "पितृपक्ष में घर नहीं बदला जाता है या कोई भी नया या शुभ काम नहीं किया जाता है। करने से अपशकुन होता है।" - अनायास ही मुझे संशय और अचरज से लबरेज़ कर गया था। 

हमको उनसे कहना पड़ा कि किसी भी इंसान या प्राणी के लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होता है, उसका जन्म और मरण। ऐसे में उसका जन्म लेने वाला दिन और उसका मृत्यु वाला दिन तो सब से ज्यादा महत्वपूर्ण होना चाहिए। जब उन दो महत्वपूर्ण दिनों के लिए कोई तथाकथित शुभ मुहूर्त तय ही नहीं है, तो फिर मकान बदलने या नए घर के गृह प्रवेश के लिए या फिर किसी की छट्ठी-सतैसा, शादी-विवाह के लिए शुभ मुहूर्त तय करने-करवाने का क्या औचित्य है भला ? सभी जन मेरे इस तर्क ( या तथाकथित कुतर्क ) को सुनकर हकलाते-से नजर आने लगे। 

फिर हमने कहा कि जब इंसान का मूल अस्थायी घर तो उसका शरीर है और पितृपक्ष में किसी के शरीर छुटने यानि मृत्यु के लिए तथाकथित पितृपक्ष या तथाकथित खरमास की समाप्ति की प्रतीक्षा नहीं करनी होती है या फिर नए शरीर में किसी शिशु को इस संसार में आने के लिए भी इन तथाकथित पितृपक्ष या तथाकथित खरमास की समाप्ति की प्रतीक्षा नहीं करनी होती है, तो फिर मकान बदलने के लिए पितृपक्ष की समाप्ति की प्रतीक्षा क्यों करनी भला ?

फ़िलहाल उन सज्जनों की बातों को तो जाने देते हैं, पर अगर आप को ये तथाकथित "मुहूर्त, अपशकुन, पितृपक्ष, खरमास" जैसे निष्प्राण चोंचलों के सार्थक औचित्य के कई या कोई भी उचित तर्क या कारण मालूम हो, तो मुझ मूढ़ को भी तनिक इस से अवगत कराने की कृपा किजिएगा .. प्रतीक्षारत - एक मूढ़ बुड़बक .. बस यूँ ही ...

फ़िलहाल उस दौरान मन में पनपे कुछ शब्दों को अपनी बतकही की शक्ल में आगे बढ़ाते हैं :-

(१) शुभ मुहूर्त :-

जन्म-मरण का जो कोई शुभ मुहूर्त होता किसी पत्रा में नहीं,

तो करना कोई भी शुभ काज कभी भी, होगा खतरा में नहीं।

(२) अपनी ठठरी के भी बेचारे ... :-

साहिब! अपनी बहुमंजिली इमारतों पर यूँ भी इतराया नहीं करते,

बननी है जो राख एक दिन या फिर खुद सोनी हो जमीन में गहरे।


यूँ तो पता बदल जाता है अक़्सर,  घर बदलते ही किराएदारों के,

पर बदलते हैं मकान मालिकों के भी, जब सोते श्मशान में पसरे।


"लादे फिरते हैं हम बंजारे की तरह सामान अपने कांधे पर लिए"-

-कहते वे हमें, जिन्हें जाना है एक दिन खुद चार कांधों पे अकड़े।


पल-पल गुजरते पल की तरह गुजरते बंजारे ही हैं यहाँ हम सारे,

आज नहीं तो कल गुजरना तय है, लाख हों ताले, लाख हों पहरे।


वहम पाले समझते हैं खुद को, मकान मालिक भला क्यों ये सारे,

हैं किराएदार खुद ही जो चंद वर्षों के, अपनी ठठरी के भी बेचारे।



Sunday, January 17, 2021

हम हो रहे ग़ाफ़िल ...


अब तथाकथित खरमास खत्म हो चुका है। पुरखों के कथनानुसार ही सही, आज भी बुद्धिजीवी लोग कहते हैं कि खरमास में शुभ कार्य नहीं करना चाहिए। अब पुरखों की बात तो माननी ही होगी, नहीं तो पाप लगेगा। ख़ैर ! ... बुद्धिजीवियों के हुजूम के रहते पाप-पुण्य तय करने वाले हम होते कौन हैं भला ? उनकी और पुरखों की बातें आँख मूँद कर मान लेने में ही अपनी भलाई है। नहीं तो अपना अनिष्ट हो जाएगा। तो इसीलिए हमने भी खरमास में लिखना बंद कर दिया था। अब लिखने से भी ज्यादा शुभ कार्य कोई हो सकता है क्या भला ? नहीं न ? पर .. अब सोच रहा हूँ कि खरमास ख़त्म, तो लिखने में कोई हर्ज़ नहीं होनी चाहिए  .. शायद ...

हम भले ही तथाकथित बड़ा आदमी बनने की फ़िराक़ में अपने-अपने स्कूल-कॉलेजों या कोचिंगों में अंक प्राप्ति का लक्ष्य लिए हुए अध्ययन किए गए विज्ञान-भूगोल की सारी बातें ... मसलन- सूरज आग का गोला है और सूरज के साथ-साथ धनु रेखा, मकर रेखा, कर्क रेखा, उत्तरायण, दक्षिणायन जैसे विषय को भूल कर तथाकथित स्वर्ग में स्थान-आरक्षण कराने वाले तोंदिले तिलकधारी यात्रा-अभिकर्ता (Travel Agent) द्वारा किये गए मार्गदर्शन से प्रेरित हो कर हम आस्थावान लोग तथाकथित स्वर्ग की कामना करते हुए सुसभ्य-सुसंस्कृत सनातनी बन कर मकर-संक्रांति के दिन चूड़ा, दही, गुड़, तिल, तिलकुट, खिचड़ी खाने से पहले अपनी-अपनी सुविधानुसार अपने-अपने शहर या गाँव से हो कर गुजरने वाली गंगा जैसी या उस से कमतर किसी बरसाती या पहाड़ी नदी में भी या फिर दो या तीन नदियों के संगम या फिर .. सीधे कुंभ वाले संगम में डुबकी लगाने में तल्लीन हो जाते हों ; परन्तु ... अपनी हर पाठ्यपुस्तक के आरम्भ में छपी हुई भूमिका / Preface वाली परम्परा को नहीं भूल पाते हैं। वो भी हर साल, हर वर्ग की हर पाठ्यपुस्तक के प्रारम्भ में छपी हुई भूमिका दिमाग में कुछ इस तरह पैठ गई है कि अपनी हर रचना के शुरू में भूमिका के नाम पर कुछ-कुछ बतकही करने के लिए हमारी उंगलियाँ अनायास मचल ही जाती हैं .. बस यूँ ही ...

हाँ, इसी संदर्भ में एक और बात बकबका ही दूँ कि ... तथाकथित स्वर्ग के लिए मन मचले भी क्यों नहीं भला ? ... दरअसल तथाकथित सुरा (सोमरस) और सुन्दरी (मेनका) से सुसज्जित स्वर्ग के शब्द-चित्रों को हमारे पुरखों में से उपलब्ध कुछ बुद्धिजीवियों ने बनाया ही इतना मनमोहक, लुभावना और सौंदर्यपूर्ण है .. है कि नहीं ? तो ऐसे में हम भी भला कहाँ चूकने वाले थे, हम भी अपने शहर से हो कर बहने वाली नालायुक्त गंगा के कंगन-घाट पर जाकर डुबकी लगा आये सपरिवार। अब मेनका के कारण अकेले स्वर्ग जाने का तो सोच भी नहीं सकते हैं न ? तो .. सपरिवार जाना पड़ा नहाने। बाक़ी .. उस क्रम में मंत्र-जाप, आरती-पूजन, स्वर्ग के तोंदिले यात्रा-अभिकर्ता और निराला जी के पेट पिचके हुए भिक्षुक यानि राजा राधिकारमण सिंह जी के दरिद्रनारायण को दान-पुण्य करने का निर्वाहन धर्मपत्नी द्वारा किया गया, क्योंकि इस मामले में मैं थोड़ा अनाड़ी या .. यूँ कह सकते हैं कि थोड़ा ज्यादा ही बेवकूफ़ हूँ .. शायद ...

अब अपनी बतकही (भूमिका) को विराम की चहारदीवारी में क़ैद करते हुए , आज की रचना का आरम्भ करने से पहले यह भी तो साझा करना स्वाभाविक ही है कि चूँकि प्रेम से ज्यादा शुभ कुछ हो ही नहीं सकता है .. शायद ... तो इसीलिए .. आज तथाकथित खरमास के बाद वाली शुभ शुरुआत की रचना प्रेम के ओत प्रोत ही होनी चाहिए और इसीलिए है भी आज की दोनों रचनाएँ रूमानी .. शायद ... तो क्यों न मिल कर तनिक रूमानी हुआ जाए .. बस यूँ ही ...

(१) हम हो रहे ग़ाफ़िल ...

मेरे रोजमर्रे के 

हर ढर्रे में 

क़िस्त-क़िस्त कर के,

हो गई हो 

कुछ इस 

क़दर तुम शामिल।


मैं तुझ में हूँ

या तुम 

मुझ में हो,

अब तो ये

समझ पाना

है शायद मुश्किल।


यूँ तो हैं

होशमंद 

हम दोनों ही,

फिर भी भला 

क्यों लग रहा कि

हम हो रहे ग़ाफ़िल।


(२) अक़्सर कविताएं ...

हर बार

वेब-पृष्ठों पर 

चहकने से 

पहले ,

मन की 

जिन तहों में

पनपती हैं 

अक़्सर कविताएं ...


हर पल, हर हाल में,

जानाँ .. 

मचलती रहती हो 

तुम भी वहीं,

चाहे दिन-दोपहरी हो 

या रात अँधेरी ,

या मौसम कोई भी, 

कभी भी आएं या जाएं ...