" नमस्कार ! .. आप कैसे/कैसी हैं ? " .. अरे-अरे .. आप से नहीं पूछ रहा हूँ मैं .. मैं तो बता रहा हूँ कि जब दो लोग, जान-पहचान वाले या मित्र/सहेली या फिर रिश्तेदार मिलते हैं आमने-सामने या फोन पर भी तो बहुधा औपचारिकतावश ही सही मगर .. दोनों में से कोई एक दूसरे सामने वाले से पहला सवाल यही करता या करती है कि- " आप कैसे/कैसी हैं ? " - है ना ?
वैसे भी अभी आप से, " आप कैसे/कैसी हैं ? ", पूछना तो बेमानी ही है; क्योंकि आप ठीक हैं, . . तभी तो ब्लॉग के मेरे इस पोस्ट पर बर्बाद .. च् - च् ... सॉरी ... बर्बाद तो नहीं कह सकता .. अपना क़ीमती समय साझा कर रहे/रही हैं। सही कह रहा हूँ ना ?
हाँ .. तो बात आगे बढ़ाते हैं। तभी झट से दूसरा सामने वाला/वाली उत्तर में, चाहे उसका हाल जैसा भी हो, औपचारिकतावश ही सही पर कहता/कहती हैं कि "हाँ .. आप की दुआ से सब ठीक ही है, बिंदास।" या "ऊपर वाले की दया से सब ठीक है, चकाचक।"
मुझे कुछ ज्यादा ही बकैती करने की .. कुछ ऊटपटाँग बकबक करते रहने की आदत-सी है। अब .. अभी क्या कर रहे हैं ? बकैती ही तो किए जा रहे तब से। है कि नहीं ? यही आदत तो मंच पर Standup Comedy ( इसके बारे में फिर कभी, फिलहाल मान लीजिए कि Open Mic की तरह ही एक विधा है ये , जिनमें मंच से कलाकार द्वारा दर्शकों/श्रोताओं को हँसाने की कोशिश की जाती है। ) करवा जाता है। इसी बतकही वाली आदत के तहत .. मुझ से अगर कोई मेरा हाल पूछे तो मेरा एक ही तकिया क़लाम वाला जवाब होता है - " आप की दुआ और दुश्मनों की बददुआ की मिली जुली असर से ठीक-ठाक हूँ। " ऐसा बोलने के पीछे भी एक मंशा है।
दरअसल लोग कहते हैं ना कि कॉकटेल ( Cocktail ) में नशा का असर ज्यादा होता है। अब .. अंग्रेजी वाले कॉकटेल के संधि विच्छेद का हिन्दी में मतलब .. मतलब मुर्गे की दुम की बात नहीं कर रहा हूँ मैं। अंग्रेज़ी वाले मुस्सलम कॉकटेल की बात कर रहा हूँ। कॉकटेल- मतलब दो शराबों का मिश्रण, जिसे संवैधानिक चेतावनी को भी नज़रअंदाज़ कर के पीने वाले बुद्धिजीवी वर्ग कहते हैं कि ऐसे ख़ास मिश्रण में नशा कुछ ज्यादा ही होता है। मेरे ऐसा कहने के पीछे भी यही मंशा होती है कि अपनों की दुआ और दुश्मनों की बददुआ की मिली जुली असर ज्यादा असरदार होती है।
अरे-रे- .. बकैती में एक भूल हो गई। अब बिहार में शराबबंदी है और हम हैं कि शराब की बात कर रहे हैं। खैर .. बात ही तो कर रहे केवल, शराबबंदी नहीं भी थी तो .. कौन-सा हम पीने वाले थे या पीने वाले हैं। कभी नहीं।
कई छेड़ने वाले यहाँ भी नहीं छोड़ते। खोद कर पूछ बैठेंगे कि अगर पीते नहीं हो तो इतना कैसे पता ? जवाब देने के बजाए हम भी सवाल कर बैठते हैं कि ताजमहल किसने बनवाया था, बतलाओ जरा। फ़ौरन अपनी गर्दन अकड़ाते हुए अगले का उत्तर होता है- "शाहजहाँ" ( इतिहास के पाठ्यक्रम की किताबों में भी तो ऐसा ही लिखा है। )। तब अगले को लपेटने की बारी हमारी होती है कि जब ताज़महल बनते हुए तुम देखे नहीं, फिर भी पता है कि ताजमहल शाहजहाँ ने बनवाया था। ठीक वैसे ही बिना पिए हमको मालूम है कि कॉकटेल में नशा ज्यादा होती है।
हाँ .. तो .. हमारे इन्सानी जीवन में भी कई दफ़ा कई अपने-से लगने वाले रिश्ते बस यूँ ही ... ताउम्र हालचाल पूछने और जवाब में " ठीक है " कहने जैसे औपचारिक ही गुजर जाते हैं और कई रिश्ते औपचारिक हो कर भी मन के ताखे पर हुमाद की लकड़ी की तरह सुलगते रहते हैं अनवरत, ताउम्र .. शायद ...
खैर .. छोड़िए इन बतकही में आप अपना क़ीमती समय नष्ट मत कीजिए और अब आज की मेरी निम्नलिखित रचना/विचार पर एक नज़र डालिए; जो कि वर्षों से कोने में उपेक्षित पड़ी फ़ाइल में दुबके पीले पड़ चुके पन्नों में से एक से ली हुई है .. बस यूँ ही ...
लगी शर्त्त ! ...
साजन-सजनी,
सगाई,
शहनाई,
बाराती-बारात।
सात फेरे,
सात वचन,
सिन्दूर,
सुहाग-सुहागन,
सुहाग रात।
तन का मिलन,
मन (?) का मिलन,
संग श्वसन-धड़कन,
नैसर्गिक सौगात।
एक घर,
एक कमरा,
एक छत्त,
एक गर्म बिस्तर,
एक परिवार,
साथ-साथ।
पल-क्षण,
सेकेंड-मिनट,
घंटा-दिन,
सप्ताह-महीना,
साल-दर-साल।
सात जन्मों तक,
जन्म-जन्मान्तर तक,
अक्षांश-देशान्तर तक,
प्यार का सौगात
या घात-प्रतिघात।
पर कितनी ?
सात प्रतिशत,
या फिर साठ प्रतिशत,
ना, ना, शत्-प्रतिशत।
है क्या कोई शक़ ?
तो फिर .. लगी शर्त्त !
मसलन ..
द्रौपदी लगी
जुए में दाँव,
हुई सीता की
अग्निपरीक्षा,
बीता यशोधरा का
एकाकी जीवन।
हैं आज भी
कैसे-कैसे
विचित्र सम्बन्ध,
जो दे जाते हैं
अक़्सर घाव अदृश्य,
कर के देखे-अनदेखे
कई-कई घात-प्रतिघात।
वैसे भी अभी आप से, " आप कैसे/कैसी हैं ? ", पूछना तो बेमानी ही है; क्योंकि आप ठीक हैं, . . तभी तो ब्लॉग के मेरे इस पोस्ट पर बर्बाद .. च् - च् ... सॉरी ... बर्बाद तो नहीं कह सकता .. अपना क़ीमती समय साझा कर रहे/रही हैं। सही कह रहा हूँ ना ?
हाँ .. तो बात आगे बढ़ाते हैं। तभी झट से दूसरा सामने वाला/वाली उत्तर में, चाहे उसका हाल जैसा भी हो, औपचारिकतावश ही सही पर कहता/कहती हैं कि "हाँ .. आप की दुआ से सब ठीक ही है, बिंदास।" या "ऊपर वाले की दया से सब ठीक है, चकाचक।"
मुझे कुछ ज्यादा ही बकैती करने की .. कुछ ऊटपटाँग बकबक करते रहने की आदत-सी है। अब .. अभी क्या कर रहे हैं ? बकैती ही तो किए जा रहे तब से। है कि नहीं ? यही आदत तो मंच पर Standup Comedy ( इसके बारे में फिर कभी, फिलहाल मान लीजिए कि Open Mic की तरह ही एक विधा है ये , जिनमें मंच से कलाकार द्वारा दर्शकों/श्रोताओं को हँसाने की कोशिश की जाती है। ) करवा जाता है। इसी बतकही वाली आदत के तहत .. मुझ से अगर कोई मेरा हाल पूछे तो मेरा एक ही तकिया क़लाम वाला जवाब होता है - " आप की दुआ और दुश्मनों की बददुआ की मिली जुली असर से ठीक-ठाक हूँ। " ऐसा बोलने के पीछे भी एक मंशा है।
दरअसल लोग कहते हैं ना कि कॉकटेल ( Cocktail ) में नशा का असर ज्यादा होता है। अब .. अंग्रेजी वाले कॉकटेल के संधि विच्छेद का हिन्दी में मतलब .. मतलब मुर्गे की दुम की बात नहीं कर रहा हूँ मैं। अंग्रेज़ी वाले मुस्सलम कॉकटेल की बात कर रहा हूँ। कॉकटेल- मतलब दो शराबों का मिश्रण, जिसे संवैधानिक चेतावनी को भी नज़रअंदाज़ कर के पीने वाले बुद्धिजीवी वर्ग कहते हैं कि ऐसे ख़ास मिश्रण में नशा कुछ ज्यादा ही होता है। मेरे ऐसा कहने के पीछे भी यही मंशा होती है कि अपनों की दुआ और दुश्मनों की बददुआ की मिली जुली असर ज्यादा असरदार होती है।
अरे-रे- .. बकैती में एक भूल हो गई। अब बिहार में शराबबंदी है और हम हैं कि शराब की बात कर रहे हैं। खैर .. बात ही तो कर रहे केवल, शराबबंदी नहीं भी थी तो .. कौन-सा हम पीने वाले थे या पीने वाले हैं। कभी नहीं।
कई छेड़ने वाले यहाँ भी नहीं छोड़ते। खोद कर पूछ बैठेंगे कि अगर पीते नहीं हो तो इतना कैसे पता ? जवाब देने के बजाए हम भी सवाल कर बैठते हैं कि ताजमहल किसने बनवाया था, बतलाओ जरा। फ़ौरन अपनी गर्दन अकड़ाते हुए अगले का उत्तर होता है- "शाहजहाँ" ( इतिहास के पाठ्यक्रम की किताबों में भी तो ऐसा ही लिखा है। )। तब अगले को लपेटने की बारी हमारी होती है कि जब ताज़महल बनते हुए तुम देखे नहीं, फिर भी पता है कि ताजमहल शाहजहाँ ने बनवाया था। ठीक वैसे ही बिना पिए हमको मालूम है कि कॉकटेल में नशा ज्यादा होती है।
हाँ .. तो .. हमारे इन्सानी जीवन में भी कई दफ़ा कई अपने-से लगने वाले रिश्ते बस यूँ ही ... ताउम्र हालचाल पूछने और जवाब में " ठीक है " कहने जैसे औपचारिक ही गुजर जाते हैं और कई रिश्ते औपचारिक हो कर भी मन के ताखे पर हुमाद की लकड़ी की तरह सुलगते रहते हैं अनवरत, ताउम्र .. शायद ...
खैर .. छोड़िए इन बतकही में आप अपना क़ीमती समय नष्ट मत कीजिए और अब आज की मेरी निम्नलिखित रचना/विचार पर एक नज़र डालिए; जो कि वर्षों से कोने में उपेक्षित पड़ी फ़ाइल में दुबके पीले पड़ चुके पन्नों में से एक से ली हुई है .. बस यूँ ही ...
लगी शर्त्त ! ...
साजन-सजनी,
सगाई,
शहनाई,
बाराती-बारात।
सात फेरे,
सात वचन,
सिन्दूर,
सुहाग-सुहागन,
सुहाग रात।
तन का मिलन,
मन (?) का मिलन,
संग श्वसन-धड़कन,
नैसर्गिक सौगात।
एक घर,
एक कमरा,
एक छत्त,
एक गर्म बिस्तर,
एक परिवार,
साथ-साथ।
पल-क्षण,
सेकेंड-मिनट,
घंटा-दिन,
सप्ताह-महीना,
साल-दर-साल।
सात जन्मों तक,
जन्म-जन्मान्तर तक,
अक्षांश-देशान्तर तक,
प्यार का सौगात
या घात-प्रतिघात।
पर कितनी ?
सात प्रतिशत,
या फिर साठ प्रतिशत,
ना, ना, शत्-प्रतिशत।
है क्या कोई शक़ ?
तो फिर .. लगी शर्त्त !
मसलन ..
द्रौपदी लगी
जुए में दाँव,
हुई सीता की
अग्निपरीक्षा,
बीता यशोधरा का
एकाकी जीवन।
हैं आज भी
कैसे-कैसे
विचित्र सम्बन्ध,
जो दे जाते हैं
अक़्सर घाव अदृश्य,
कर के देखे-अनदेखे
कई-कई घात-प्रतिघात।