पालथी मरवाए या कभी
करवा कर खड़े कतारों में,
हाथों को दोनों जुड़वाए,
आँखें भी दोनों मूँदवाए,
बचपन से ही बच्चों को अपने,
स्कूलों - पाठशालाओं में उनके,
हम सभी ने ही तो ..
समवेत स्वरों में कभी पढ़वाए,
तो कभी लयबद्ध गववाये ...
" त्वमेव माता च पिता त्वमेव,
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या च द्रविणं त्वमेव,
त्वमेव सर्वम् मम देवदेवं। " .. बस यूँ ही ...
बड़े होकर तभी तो वही बच्चे,
आज भी या फिर ताउम्र मूंदे,
हमारी तरह ही अपनी-अपनी आँखें ,
झुंड में ही अक़्सर सारे के सारे ;
वही सब बतलाए गए .. समझाए गए,
ज़बरन पहचान करवाए गए,
उन्हीं "माता-पिता" विशेष और
"बंधु-सखा" विशेष के आगे,
आए दिन कतारबद्ध हैं नज़र आते।
वो भी .. भेज कर अनाथ आश्रम
आजकल जैविक "माता-पिता" को ये अपने।
धरा के "बंधु-सखा" को भी ये अपने
अक़्सर ही तो इन दिनों हैं ठुकराते .. शायद ...
बौद्धिक क्षमता के बलबूते पर अपने,
संग सहयोग से योग्य शिक्षकों के,
देख कर चहुँओर की बहुरंगी दुनिया भी
और पढ़ कर पुस्तकों को सारे,
ये यूँ "विद्या" तो हैं, पा ही लेते।
पर "द्रविणं" का अर्थ ..
ठीक से .. शायद ...
समझाया नहीं इनको हम सब ने।
तभी तो पड़े हैं धोकर हाथ ये सारे,
आज तक सब कुछ ठुकराये,
सब कुछ बिसराये,
बस और बस .. केवल ..
"द्रविणं" के आगे-पीछे .. शायद ...
परे .. इस धरती और उस ब्रह्माण्ड के,
धरती के इंसानों और प्राणियों से भी परे,
छोड़ कर इन प्रत्यक्ष संसार को,
जो हैं ख़ुद ही भरे-पूरे,
ज़बरन फिर इन्हें .. अबोध मासूमों को,
एक अनदेखी दुनिया को,
भला क्यों ... दिखलायी हमने ?
काश ! .. कि हम कभी इन्हें,
संग-संग इन तथाकथित प्रार्थनाओं के ही
या फिर इन सब के बदले में,
केवल इंसान और इंसानियत के,
संग-संग अच्छी नीयत के भी ..
कभी-कभार ही सही ..
पर .. पाठ पढ़ाते .. बस यूँ ही ...