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Wednesday, March 18, 2020

बस यूँ ही ...

गत वर्ष 2019 में 14 फ़रवरी को पुलवामा की आतंकी हमला में शहीद हुए शहीदों के नाम पर सोशल मिडिया पर या चौक चौराहों पर घड़ियाली आँसू बहाने वाले लोग गत वर्ष कुछ पहले से ही 21 मार्च की होली से सम्बंधित अपनी सेल्फियाँ चमका रहे थे।
तब 20 मार्च को होलिका दहन यानी होली की पूर्व सन्ध्या पर ये मन रोया था और ये कविता मन में कुंहकी थी। हू-ब-हू उस दिन की मन की प्रतिक्रिया/रचना/विचार आज copy-paste कर रहा हूँ ...
(ये मत कहिएगा कि " हँसुआ के बिआह, आ खुरपी के गीत " गा रहे हम ...)

बस यूँ ही ...

होली
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बारूदों के राखों से कुछ गुलाल चुरा लाऊँ
या शहीदों के बहे लहू से पिचकारी भर लाऊँ
कहो ना ! होली का त्योहार भला किस तरह मनाऊँ !?

तिरंगे में लिपटे ताबूतों की होलिका जलाऊँ
या उनकी बेवा की चीत्कारों से फगुआ-राग सजाऊँ
कहो ना ! होली का त्योहार भला किस तरह मनाऊँ !?

निर्भया के रूह पर लगे दाग किस उबटन से छुड़ाऊं
या आसिफा के दागदार बदन को किस पानी से नहलाऊँ
कहो ना ! होली का त्योहार भला किस तरह मनाऊँ !?

अपनों के 'जाने' का गम या मिले मुआवज़े का जश्न मनाऊँ
या 'सच' के करेले को 'झूठ' की चाशनी में पुए-पकवान बनाऊँ
कहो ना ! होली का त्योहार भला किस तरह मनाऊँ !?



(14 फरवरी को अगर हम Social Media पर आँसू बहाते और जलते मोमबत्तियों के मोम पिघलाते Selfie को post कर रहे थे ... और ... आज हम होलियों वाले Selfie डाल रहे हैं।

"उनका" परिवार भी इस साल होली का त्योहार मना रहा होगा क्या !?!?!????????

Social Media पर हम भी ना real life की तरह दोहरी ज़िन्दगी खूब जीते हैं । "उन्हें" शायद 'समानुभूति' की जरूरत है ना कि 'सहानुभूति' की ... वो भी ढोंगी social media वाली .... आप क्या कहते/सोचते हैं !?!?!?)

Thursday, February 20, 2020

मुखौटा (लघुकथा).


14 फ़रवरी, 2020 को रात के लगभग पौने नौ बज रहे थे। पैंतालीस वर्षीय सक्सेना जी भोजन तैयार होने की प्रतीक्षा में बस यूँ ही अपने शयन-कक्ष के बिस्तर पर अधलेटे-से गाव-तकिया के सहारे टिक कर अपने 'स्मार्ट मोबाइल फ़ोन' में 'फेसबुक' पर पुलवामा के शहीदों की बरसी पर श्रद्धांजलि-सन्देश प्रेषित कर स्वयं के एक जिम्मेवार भारतीय नागरिक होने का परिचय देने में तल्लीन थे।
तभी 'मोबाइल' में किसी 'व्हाट्सएप्प' की 'नोटिफिकेशन-ट्यून्' बजते ही वे 'फेसबुक' से 'व्हाट्सएप्प' पर कूद पड़े। कई साहित्यिक 'व्हाट्सएप्प ग्रुप' में से, जिनके वे सदस्य थे, एक 'ग्रुप' में एक 'मेसेज' दिखा - " एक दुःखद समाचार - मिश्रा जी के ससुर जी गुजर गए। "
तत्क्षण उन्होंने भी अपनी तत्परता दिखाते हुए शोक प्रगट किया -
"  ओह, दुःखद । मन बहुत ही व्यथित हुआ। ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति दें । "
इधर उनकी यंत्रवत शोक-प्रतिक्रिया पूर्ण हुई और संयोगवश उसी वक्त चौके से उनकी धर्मपत्नी की आवाज़ आई - " आइए जी बाहर .. खाना लगा रहे हैं। टी वी भी चालू कर दिए हैं। पिछले साल का पुलवामा वाला दिखा रहा है। आइए ना ... "
" आ गए भाग्यवान ! बस खाना खाने से पहले वाली 'शुगर' की दवा तो खा लेने दो।" फिर वाश-बेसिन में 'लिक्विड-शॉप' से हाथ धोते हुए बोले -" वैसे 'जिंजर-लेमन' तंदूरी 'चिकेन' की बड़ी अच्छी ख़ुश्बू आ रही है तुम्हारे 'किचेन' से .. आज एक -दो रोटी ज्यादा बना ली हो ना ? "
" हाँ जी! ये भी कहने की बात है क्या ? " - लाड़ जता कर बोलते हुए धर्मपत्नी चौके से अपने दोनों हाथों में दो थालियों में खाना लिए निकलीं .. एक सक्सेना जी के लिए और दूसरी अपने लिए। रात का भोजन प्रायः दोनों साथ ही करते हैं।
'डाइनिंग हॉल' अब तक दोनों के ठहाके और गर्मागर्म मुर्गे-रोटी की सोंधी ख़ुश्बू से महमह करने लगा था।