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Sunday, August 15, 2021

एक मीरा नहीं, कईं मीराएँ ...

कुछ लोगों का मानना है, कि आज स्वतंत्रता दिवस है, तो हमें ज़श्न मनाना चाहिए, उसकी सालगिरह मनानी चाहिए। सच भी है, अगर कोई बुद्धिजीवी यह बात बोल रहे / रहीं हैं, तो बातें गलत हो भी कैसे सकती है भला ! है ना ? तो .. हमें एक दूसरे को सुबह-सुबह सबको शुभकामनाओं की फ़ुहार में सराबोर कर ही देनी चाहिए। इनमें कोई बुराई भी तो नहीं। 'गूगल' पर या 'व्हाट्सएप्प' पर कई सारी 'कॉपी-पेस्ट' वाली शुभकामनाओं की भी, 'रेडीमेड' कपड़ों की तरह, लम्बी और अनगिनत फ़ेहरिस्त 'रेडीमेड' तैयार हैं। बस .. 'कॉपी' कर के चिपका कर, आगे 'फॉरवर्ड' भर कर देना है। वो सारे सामने वाले भी खुश, आप भी खुश .. शायद ...
पर एक अदना-सा सवाल, उन बुद्धिजीवियों से, कि .. एक ही दिन अगर एक भाई का जन्मदिन हो और उसी दिन उसके दूसरे भाई की हत्या कर के उसकी इहलीला समाप्त कर दी गई हो, तो उस दूसरे भाई की पुण्यतिथि के मातम को नज़रअंदाज़ करते हुए, एक भाई का जन्मदिन मनाना कितना उचित है, दूसरे की पुण्यतिथि के अवसर पर ही ?? फिर .. अगर पहले का हम जन्मदिन मना भी रहे हैं, पर वह रुग्णावस्था में है, तो उस समय शायद मेरी प्राथमिकता होनी चाहिए, उसे उसके स्वास्थ्य को पुनः वापस दिलाने की। ताकि जब उसका जन्मदिन मनाया जाए, तो घर-परिवार के लोग और स्वयं वह भी अपने स्वस्थ शरीर के साथ खुल कर ख़ुशी मना सकें। अब ये क्या .. कि वह 'वेंटिलेटर' पर 'ऑक्सीजन सिलेंडर' के रहमोकरम पर आश्रित होकर, अपनी ठहरी साँसों को घसीट रहा हो और हम उसे सालगिरह की मुबारक़बाद दे रहे हों।
ऐसे में देने वाले भी हम, लेने वाले भी हम, कहने वाले भी हम, सुनने वाले भी हम ही, केक काटने वाले भी हम, खाने वाले भी हम। हम जिसके लिए जश्न मनाने की बात कर रहे हैं, वह तो मरणावस्था में बेसुध पड़ा है। अब ऐसे में भी कोई बुद्धिजीवी ये तर्क देते / देती हैं, कि किसी के जन्मदिन पर तो उसे मुबारक़बाद देनी चाहिए, ज़श्न मनानी चाहिए, उसकी बुराइयों यानि बुरी बीमारियों को नज़रअंदाज़ कर देनी चाहिए। उसी दिन उसके सगे भाई की, की गयी निर्मम हत्या वाली मौत के मंज़र भुल कर, झटक देनी चाहिए। तब तो .. साहिबान !!!  .. उन बुद्धिजीवियों की मर्ज़ी .. वैसे भी आज स्वतंत्र लोकतांत्रिक भारत का स्वतंत्रता दिवस है .. कुछ भी करने की सभी को आज़ादी है .. बस यूँ ही ...
वैसे हमारी ही चंद पंजीकृत बेमुरव्वत ? ... ", " क्या सच में पगला गया हूँ मैं !????????", " गणतंत्र दिवस के बहाने - चन्द पंक्तियाँ - (२२) - बस यूँ ही ...  ", "बस यूँ ही ... ", " अनचाहा डी. एन. ए.", और " काला पानी की काली स्याही " जैसी पुरानी बतकहियाँ .. हमें आज .. आप सभी क्या .. किसी को भी अपने मोबाइल के 'क्वर्टी की-बोर्ड' पर अपनी उंगलियों को टपटपा कर "स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाइयाँ" बाँट कर एक जिम्मेवार सभ्य भारतीय नागरिक बनने से रोकती-सी .. शायद .. एक रुआँसी गुहार लगा रही है .. बस यूँ ही ...
इसीलिए ऐसे में तो ...हमारे जैसे मंद बुद्धि वाले लोग, आज के दिन तो .. "हँसुआ के बिआह में खुरपी के गीत" वाली बात को ही चरितार्थ करने की 'स्टुपिडपना' करेंगे .. तो .. आज .. किसी आधुनिक 'टीनएजर' प्रेमी-प्रेमिका के क्षणिक छिछोरे आवेशित प्रेम की तरह, आज वाले उपजे एकदिवसीय देशप्रेम को त्याग कर, आइए ना !! .. कुछ और ही राग अलापते हैं .. बस यूँ ही ...

(१) एक मीरा नहीं, कईं मीराएँ ...

सुना है कि .. कभी ..
हुई थी एक मीरा भी ...
बनी दिवानी, 
किसी कान्हा की,
थिरकाती नर्म 
उंगलियाँ अपनी,
बजाती इकतारा,
भटकती फिरती गली-गली,
गाती, पुकारती, विरहनी-सी, 
कान्हा को अपने,
बनी प्रेम दीवानी 
किसी कान्हा की .. शायद ...

यूँ तो .. ग़ुम रह जाती हैं ..
आज भी गुमनाम, ना जाने .. 
एक मीरा नहीं, कईं मीराएँ,
अनगिनत कामकाजी मीराएँ,
थिरकाती हुईं,
'शेप' में बढ़ाए हुए,
रंगे 'नेलपॉलिश' से
अपने नाखूनों वाली 
टपटपाती उंगलियाँ,
किसी दफ़्तर के 
'कंप्यूटर' वाले
'क्वर्टी की-बोर्ड' पर ही।
कुछ कुशल गृहिणी मीराएँ,
बटलोही के खदकते चावल 
या कड़ाही में सिंझती 
सब्जी के दौरान,
गैस-चूल्हे वाले चबूतरे पर 
रसोईघर के अपने अक़्सर,
चटकाती रहती हैं कभी, 
तो कभी .. 
थपथपाती हैं उंगलियाँ अपनी,
गुनगुनाती-सी कुछ भी,
कभी बारहमासा, कभी कजरी,
कभी भजन, या कभी गीत कोई फ़िल्मी .. बस यूँ ही ...

भटकती तो हैं .. अब ये नहीं, 
गलियों में किसी, वरन् नापती हैं,
रोजाना की अपनी-अपनी तय दूरियाँ, 
उपलब्ध बसों, मेट्रो जैसे 
'पब्लिक ट्रांस्पोटों' में।
हाँ ! .. वैसे तो .. वो .. खुलकर,
बस .. मन बहलाने को भी,
गा भी तो नहीं पातीं,
कि ... कहीं मान ना बैठे इस
सभ्य समाज का कोई 
सभ्य सज्जन पुरुष 
उसे बदचलन या मनचली। 
चिहुँकी भी रहती हैं, हर क्षण कि ..
'ऑटो' में बैठा पास कोई,
चरित्रवान एक चरित्र कहीं,
बरपाने ना लगे क़हर
कूल्हे पर उसके 
केहुनी अपनी रगड़ कर,
किसी माचिस की डिबिया पर,
तिल्ली के घर्षण की मानिंद।
तो .. इस डर से .. बस .. गुनगुना भर लेती हैं,
नग़में रूमानी कोई मन ही मन,
वो भी .. फ़िल्मी कोई नए या 
पुराने भी कभी-कभी .. बस यूँ ही ...


(२) एक मीरा नहीं, कईं मीराएँ ...

ना तो कोई भजन, ना ही गीत,
कान्हा के लिए किसी, 
बल्कि लिखती हैं इनमें से तो कई बारहा,
शुरू होने से ख़त्म होने तक के अन्तराल,
गैस-सिलेंडर के और ..
दूध वाले या अख़बार वाले के 
नागे वाले दिनें, कैलेंडरों में घेर कर।
लिखती हैं, कभी काटती हैं, 
सूची लम्बी-लम्बी,
महीने भर के 'बजट' के अनुसार,
ताकि आ सके महीने भर के राशन
मुहल्ले-शहर की दुकान से या फिर 'ऑनलाइन',
ताकि घर-परिवार के साथ-साथ
निबाहे जा सकें आए-गए भी। 
या फिर लिखती हैं कई, लिए गए बढ़े-घटे,
साप्ताहिक नियमित माप,
'फास्टिंग' या 'पी पी' वाले,
'शुगर लेबल' के कभी मधुमेह से 
पीड़ित धर्मपति के अपने
या कोई बढ़े-घटे माप, स्वयं के रक्तचाप के,
कभी-कभार तो .. दोनों ही के,
अब तो .. 'ऑक्सीजन लेबल' भी,
कोई-कोई लेटी हैं अपने थुलथुले बदन के 
वज़न और .. माप बदन के तापमान के भी .. बस यूँ ही ...

काम से इतर तो ये अब 
भटक भी नहीं सकतीं,
डर है कि कहीं .....
क्या कहा आपने ? .. 
क्या ?? .. बलात्कार का डर ?
अरे ! ना, ना .. साहिब ! 
होते थे बलात्कार तो तब भी,
बात-बात में बलात्कार,
अजी साहिबान ! ..
होती थीं तब भी अपहरणें भी,
पर आज की तरह तब
जलायी नहीं जाती थीं
बलात्कृत अबलाएँ।
हाँ .. तब जलायी जाती होंगीं, 
सतियाँ .. हो सकता है .. बेशक़, 
पत्थर भी बना दी जाती होंगीं,
तथाकथित दिव्य श्रापों से वे, पर ...
पर अब तो आजकल ..
बलात्कार के बाद ..
जला भी दी जाती हैं बेचारी।
कर दी जाती हैं तब्दील फ़ौरन,
राख और कंकाल में,
कभी तेज़ाब से या फिर कभी माचिस से,
नहला कर धारों से पेट्रोल की .. बस यूँ ही ...

ईमानदारी के साथ, मीराएँ आज की,
निभाना अपने काम को ही,
पावन पूजा हैं मानती, 
मानती हैं फ़िज़ूल,
फटकना या भटकना मंदिरों में कहीं-कभी।
काश ! .. जो इस दफ़ा,
कोई कान्हा ही रच लेता,
इन मीराओं की पीड़ाओं के गीत,
और गाता फिरता भटकता हुआ, 
संग 'स्पेनिश गिटारों' के,
गलियों में, सड़कों पे,
पर .. तलाश में कतई नहीं अपनी मीरा की,
वरन् रखवाली की ख़ातिर उनकी ही, जो ...
एक मीरा नहीं, कईं मीराएँ ...
लोकतांत्रिक स्वतन्त्र भारतीय
चौक-सड़कों पर हैं, आज भी असुरक्षित-सी .. शायद ...