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Wednesday, May 13, 2020

महज़ एक इंसान ...

मैं हूँ तो इंसान ही। मेरे पास भी है ही ना एक मानव मन। वह भी वैसा इंसान ( कम से कम मेरा मानना है ) जिसने दिखावे के लिए कभी संजीदगी के पैरहन नहीं लादे अपने ऊपर, बल्कि आज तक, अभी तक अपने बचपना को मरने नहीं दिया। बच्चों की तरह जो मन में, वही मुँह पर।
अब बच्चा-मन मतलब साहित्यिक भाषा में कहें तो बालसुलभ मन कभी-कभी अपनी प्रशंसा सुनकर चहकने लगता है। या फिर कभी-कभी कोई भी पात्र सामने से किसी कारणवश या अकारण ( सामने वाले को शायद इस प्रक्रिया से कुछ आत्मतुष्टि मिलने की आशा हो ) अपमानित या उपेक्षित करता है , तो मन क्षणिक मलिन भी होता है।
अब ऐसे दोनों ही - सकारात्मक और नकारात्मक पलों - को एक बिन्दु पर केन्द्रित करने के ख़्याल से ही ये दो पंक्तियाँ मन में उपजी थीं कभी , जो आज भी मन में ऐसे पलों में दुहरा लूँ तो .. मन पल में सागर से झील बन जाता है।
प्रशंसा से चहकने वाले पलों में अपने लिए और .. अपमान या उपेक्षा वाले मलिन पलों में सामने वाले के लिए यही भाव उभारता हूँ ...

श्मशान टहल आएं ...
आज कुछ
अभिमान-सा
होने लगा है
शायद ..
चलो ना जरा
पास किसी
श्मशान या
फिर किसी
कब्रिस्तान तक
टहल आएं ...

                                     



हम सभी जानते हैं, पर मानते नहीं कि हमारे अपने जन्म के दिन से ही जीवन के अटल सत्य - मृत्यु का टैग - हमारे साथ चिपका रहता है। फिर भी हम इस की चर्चा करने से चिढ़ते हैं, चर्चा करने में झिझकते हैं, चर्चा करने को बुरा मानते हैं। मैं भी कभी चर्चा करूँ तो सौ बातें घर-परिवार के बीच सुनने के लिए मिलती है। प्रायः इसे मनहूस, फ़ालतू, बेकार की बात कह कर झिड़क कर शांत कर दिया जाता है।
जीते जी हम अपनी मृत्यु की कोई योजना नहीं बनाते, क्योंकि मृत्यु के अटल-सत्य होते हुए भी हम इसके उत्सव मनाने की बात कभी नहीं सोचते।
हमारे जीवन के सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण दो पहलूएं .. दो छोरें - जन्म और मृत्यु - जिनका हमारे लिए तथाकथित "पतरा" देखकर तयशुदा कोई भी तथाकथित मुहूर्त नहीं होता। बाकी तो हम बीच के संस्कारों वाले दिनों के, उत्सवों वाले पलों के दसों मुहूर्त तथाकथित पंडितों से ऑन लाइन या ऑफ लाइन पतरा में टटोलवा कर पता करते रहते हैं।
मसलन - छट्ठी के, मुंडन के, शादी के, गृह-प्रवेश के, किसी व्यापार या अन्य महत्वपूर्ण कार्यों के आरम्भ के, किसी प्रतिष्ठान के उदघाट्न के, मतलब कई मौकों के लिए मुहूर्त निकलवा कर ही काम सम्पादित करते हैं हम।
ऐसी कई भौंचक्का कर देने वाली बातें, घटनाएँ, सोचें हैं , जिसे हम बड़े आराम से और आसानी से आडम्बर और विडंबना की चाशनी के साथ ताउम्र चाटते रहते हैं .. आत्मसात करते रहते हैं।
खैर .. फ़िलहाल तो ये मनन करते हैं कि जीवन भर हिन्दू-मुस्लमान जैसे जाति-धर्म और उपजाति जैसे पचड़े से बचने की कोशिश करने वाला कोई भी इंसान .. कैसे भला स्वयं के मृत शरीर को क़ब्रिस्तान या श्मशान के मार्ग में जाने से रोक कर .. मरने के बाद भी हिन्दू और मुस्लमान नहीं बनना चाहता हो तो फिर क्या करे वो ? आइए .. इस प्रश्न का हल निम्नलिखित चंद पंक्तियों में तलाशने की कोशिश करते हैं ...

महज़ एक इंसान
क्यों भला हमलोग जीते जी
हिन्दू- मुस्लमान करते हैं ?
कोई अल्लाह ..
तो कोई भगवान कहते हैं
एक ही धरती की
किसी ज़मीन को हिन्दुस्तान ..
तो कहीं पाकिस्तान करते हैं

मर कर भी चैन
नहीं मिलता हमको
तभी तो कुछ श्मशान
तो कुछ क़ब्रिस्तान ढूँढ़ते हैं ...

मिटाते क्यों नहीं
हम लोग आपस का
झगड़ा जीते जी
महज़ एक इंसान बनकर
और मर कर भी औरों के
काम आ जाएं हमलोग
क्यों नहीं भला हमलोग
देहदान करते हैं ...

आज का बकबक बस इतना ही ... शेष बतकही अगली बार ...
                                         



Thursday, February 27, 2020

इतर इन सब से

जब तुम हिन्दू बनोगे
तब वो मुसलमान बनेंगें
पर दोनों ही साँसें लोगे .. एक ही हवा में 

जब तुम अवतार कहोगे
तब वो पैगम्बर कहेंगें
पर दोनों ना दिखे हैं अब तक .. इस जहाँ में

जब तुम धर्म कहोगे
तब वो मज़हब कहेंगें
पर दोनों ही सिर झुका कर .. आँखें मूंदोगे

तुम बलि में 'झटका' मारोगे
वो क़ुर्बानी में 'हलाल' करेंगें
पर दोनों ही समान निरीह का ही .. क़त्ल करोगे

कभी तुम मंदिर में जाओगे
कभी वो मस्ज़िद में जाएंगें
पर दोनों इमारतों में एक-सी ही .. ईंट जोड़ोगे

जब तुम पूजा करोगे
तब वो ईबादत करेंगे
पर दोनों ही अपने दोनों हाथ .. ऊपर करोगे

तुम श्मशान का रुख़ करोगे
वो कब्रिस्तान का रुख़ करेंगे
पर दोनों ही एक दिन .. इसी मिट्टी में मिलोगे

दोनों ही मिलकर इतर इन सब से
धरती पर जब यहाँ इंसान बनेंगे
एक ही क़ुदरत से मिली सौगात .. तभी तो जिओगे

'लुटेरे', 'दंगाई', 'दमनकारी', 'बलात्कारी' ...
हर युग में ये सारे .. कभी नहीं इंसान बनेंगे
नागवार गुजरेगा इन्हें अगर जो तुम इनको कहोगे ..
कि ...
" मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना ..."