एक किसी दिन
आधी रात को
एक अजनबी शहर से
अपने शहर और फिर
शहर से घर तक की
दूरी तय करते हुए
सारे रास्ते गोलार्द्ध चाँद
आकाश के गोद से
नन्हे बच्चे-सा उचकता
मुलुर-मुलुर ताकता
एक सवाल मानो पूछता रहा
अनवरत .... कि ....
मेरे रौशन पक्ष केवल देखकर
एक वहम क्यों पाल लेते हो भला
कभी ईद का बहाना तो कभी
करवा चौथ मान लेते हो क्यों भला
मैं तो सदियों से जैसा था
रोज वही रहता हूँ
उजाले के साथ अँधेरे हिस्से को भी
मेरे किस्से से जोड़ो तो जरा
रोज ही मुकम्मल रहता हूँ मैं
मैं तो वही रहता हूँ ...
तुम ही वहम पाल लेते हो ...
आधी रात को
एक अजनबी शहर से
अपने शहर और फिर
शहर से घर तक की
दूरी तय करते हुए
सारे रास्ते गोलार्द्ध चाँद
आकाश के गोद से
नन्हे बच्चे-सा उचकता
मुलुर-मुलुर ताकता
एक सवाल मानो पूछता रहा
अनवरत .... कि ....
मेरे रौशन पक्ष केवल देखकर
एक वहम क्यों पाल लेते हो भला
कभी ईद का बहाना तो कभी
करवा चौथ मान लेते हो क्यों भला
मैं तो सदियों से जैसा था
रोज वही रहता हूँ
उजाले के साथ अँधेरे हिस्से को भी
मेरे किस्से से जोड़ो तो जरा
रोज ही मुकम्मल रहता हूँ मैं
मैं तो वही रहता हूँ ...
तुम ही वहम पाल लेते हो ...