जानाँ ! ...
तीसी मेरी चाहत की
और दाल तुम्हारी हामी की
मिलजुल कर संग-संग ,
समय के सिल-बट्टे पर
दरदरे पीसे हुए , रंगे एक रंग ,
सपनों की परतों पर पसरे
घाम में हालात के
हौले-हौले खोकर
रुमानियत की नमी
हम दोनों की ;
बनी जो सूखी हुईं ..
मिलन के हमारे
छोटे-छोटे लम्हों-सी
छोटी-छोटी .. कुरकुरी ..
तीसीऔड़ियाँ।
हैं सहेजे हुए
धरोहर-सी आज भी
यादों के कनस्तर में ,
जो फ़ुर्सत में ..
जब कभी भी
सोचों की आँच पर
नयनों से विरह वाले
रिसते तेल में
लगा कर डुबकी
सीझते हैं मानो
तिलमिलाते हुए।
जीभ पर तभी ज़ेहन के
है हो जाता
अक़्सर आबाद
एक करारा .. कुरकुरा ..
सोंधा-सा स्वाद .. बस यूँ ही ...