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Sunday, June 9, 2019

चन्द पंक्तियाँ (२)... - बस यूँ ही ...

(1)

बेशक़ एक ही दिन
वर्ष भर में सुहागन
करती होगी सुहाग की
लम्बी उम्र की खातिर
उमंग से वट-सावित्री पूजा

पर उसका क्या जो
हर दिन, हर पल तुम्हारे
कुँवारे मन का अदृश्य
कच्चा धागा मेरे मन के
बरगद से लिपटता ही रहा

पल-पल हो जाना तुम्हारा
मेरे "मन की अर्धाङ्गिनी"
क्या मतलब फिर इन
सुहागन, अर्धाङ्गिनी,
ब्याहता जैसे शब्दों का ....

तनिक बोलो तो मनमीता !!!

(2)

साल भर में बस एक शाम
टुकड़े भर चाँद देख
एक-दूसरे के गले मिलकर
ईद की खुशियों में
माना कि हम सब बस ...
सराबोर हो जाते हैं

पर उनके ईद का क्या
जो रोज-रोज, पल-पल,
अपने पूरे चाँद को
नजर भर निहार कर
उसी से गले भी मिलते ह

'सोचों' में ही सही .....

(3)

सुबह-सुबह आज ... ये क्या !!..
बासी मुँह .... पर ...
स्वाद मीठा-मीठा
उनींदा शरीर ... पर ...
इत्र-सा महकता हुआ
अरे हाँ .. कल रात ..
सुबह होने तक
गले लगकर संग मेरे तुम
ईद मनाती रही और ...
मैं तुम्हारी मीठी-सोंधी
साँसों की सेवइयां और ...
होठों के ज़ाफ़रानी जर्दा पुलाव
चखता रहा तल्लीन होकर....
मीठा- मीठा सुगंधित असर
है ये शायद ... उसी का

भला कैसे कहें कि ...
ये बस एक सपना था ....

चित्र - स्वयं लेंसबध (साभार- पटना संग्रहालय).