(1)#
उस शाम
गाँधी-घाट पर
दो दीयों से
वंचित रह गई
गंगा-आरती
जो थी नहीं
उस भीड़ में
कौतूहल भरी
तुम्हारी दो आँखें
मुझे निहारती
(2)#
एक चाह कि ...
बन स्वेद
तुम्हारी
रोमछिद्रों से
निकलूँ मैं
और
पसर जाऊँ
बदन पर
तुम्हारे
ओस के बूँदों
की तरह .....
(3)#
बूँद- बूँद
नेह तुम्हारे
हर पल
हर रोज
हो जाते हैं
विलीन
रेत-से पसरे
मन की
प्यास में मेरे
और ... मैं ....
तिल-तिल तुम में....
(4)#
रही होगी तुम्हारी
कोई मज़बूरी
हमारा तो बस ...
था पक्का प्यार ही
बतलाते रहे हैं
जमाने को अक़्सर ...
जिसे आज तक
उम्र की नादानी
(5)#
सारी-सारी रात
खामोश
हरी दूब-सा
तुम्हारा मन ...
तुम संग
आग़ोश में तुम्हारे
ओस की बूँदों-सा
मेरा मन ...
उस शाम
गाँधी-घाट पर
दो दीयों से
वंचित रह गई
गंगा-आरती
जो थी नहीं
उस भीड़ में
कौतूहल भरी
तुम्हारी दो आँखें
मुझे निहारती
(2)#
एक चाह कि ...
बन स्वेद
तुम्हारी
रोमछिद्रों से
निकलूँ मैं
और
पसर जाऊँ
बदन पर
तुम्हारे
ओस के बूँदों
की तरह .....
(3)#
बूँद- बूँद
नेह तुम्हारे
हर पल
हर रोज
हो जाते हैं
विलीन
रेत-से पसरे
मन की
प्यास में मेरे
और ... मैं ....
तिल-तिल तुम में....
(4)#
रही होगी तुम्हारी
कोई मज़बूरी
हमारा तो बस ...
था पक्का प्यार ही
बतलाते रहे हैं
जमाने को अक़्सर ...
जिसे आज तक
उम्र की नादानी
(5)#
सारी-सारी रात
खामोश
हरी दूब-सा
तुम्हारा मन ...
तुम संग
आग़ोश में तुम्हारे
ओस की बूँदों-सा
मेरा मन ...