लॉकडाउन की इस अवधि में खंगाले गए धूल फांकते कुछ पुराने पीले पन्नों से :-
आपादमस्तक बेचारगी के दलदल में
ख़ुशी का हर गीत चमत्कार-सा लगे ।
उधार हँसी की बैसाखी लिए सूखे होंठ
जीवन हरदम अपाहिज लाचार-सा लगे ।
चहुँओर नैतिकता की लावारिस लाश
फिर भी उसके आने का आसार-सा लगे ।
है ये मरघट मौन मुर्दों का हर दिन वर्ना
क्यों गिद्धों को हर दिन त्योहार-सा लगे ?
हो संवेदनशील कोई आदमी जो अगर
कहते हैं लोगबाग़ कि वह बेकार-सा लगे।
सम्बन्धों से सजा घर-आँगन भी अपना
संवेदनशून्य नीलामी बाजार-सा लगे।
इन लुटेरों की बस्ती में कोई तो हो
जो कलियुग का अवतार-सा लगे।
देखूँ जब कभी आईना तो अपना भी चेहरा
भला क्यों शालीन गुनाहगार-सा लगे ?