प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- पुंश्चली .. (१) से पुंश्चली .. (११) तक के बाद पुनः प्रस्तुत है आज आपके समक्ष पुंश्चली .. (१२) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) .. बस यूँ ही ... :-
गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-
चारों ओर पहाड़ों और उनकी चोटियों पर बर्फ़ की सफ़ेदी सभी को भा रही थी। वहाँ पर इलायची दाना के अलावा चौलाई की लाई भी प्रसाद के लिए उपलब्ध था। यथोचित पूजा-अर्चना के बाद एक-दो घन्टे वहाँ बिताने पर .. अब वापसी की बात होने लगी थी। किसी को भी वहाँ से लौटने का मन नहीं कर रहा था। सभी सोच रहे थे .. काश ! .. यहीं एक घर बसा लेते .. पर ठंड से सिहरन भी हो रही थी .. शायद ...
गतांक से आगे :-
पूजा-अर्चना .. भोजन-विश्राम के पश्चात अन्ततः अंजलि का त्रिसदस्यी परिवार केदारनाथ मन्दिर से वापसी के लिए अब तक प्रस्थान कर चुका था। वापसी में बेस कैम्प, रूद्रा पॉइंट, छानी कैम्प, लिनचोली और छोटा लिनचोली होते हुए रामबाड़ा में सभी लोगों के प्रवेश करते-करते काफ़ी रात हो गयी थी। केदारनाथ मन्दिर से ही साथ-साथ चल रहे अन्य परिवारों के जत्थे रास्ते में ही रामबाड़ा में रात्रि विश्राम का मन बना रहे थे, तो अंजलि और उसके माँ-बाबूजी भी रात भर वहीं रुकने के लिए राजी हो गये थे।
सभी लोग थक कर चूर हो चुके थे, फिर भी .. फ़िलहाल तो मान्यताओं के अनुसार हिंदुओं के पवित्र चार धामों में से एक माना जाने वाला धाम और हिंदू धार्मिक ग्रंथों में उल्लिखित बारह ज्योतिर्लिंगों में से सबसे ऊँचाई पर अवस्थित एक जाना जाने वाला ज्योतिर्लिंग- केदारनाथ की धार्मिक पावन यात्रा की अनुभूति से ऊपजी ख़ुशी-उमंग ने उनकी थकान को मानो छूमंतर करके रफ़ूचक्कर कर दिया था।
वहाँ की दुकानों में रात के भोजन के लिए उपलब्ध चंद विकल्पों में से अपनी इच्छानुसार सभी खा-खा कर, कुछ लोग लेट कर सोने की चेष्टा करने लगे थे, ताकि अगली सुबह तरोताज़ा होकर आगे का सफ़र तय किया जा सके और कुछ लोग मंदाकिनी नदी के किनारे प्राकृतिक सौन्दर्य का अवलोकन करने बैठ गए थे। ऐसे में अंजलि की माँ तो सोने चली गयीं थीं और वह अपने बाबूजी के साथ मंदाकिनी के पास बैठी नदी की धार को कभी गौर से निहार रही थी, तो कभी आकाश में चमकती बिजलियों की तेज रोशनी में घुमड़ते बादलों पर नज़र दौड़ा रही थी। हालांकि कुछ लोग मिलकर समवेत स्वर में वहीं पर भजन-जाप भी कर रहे थे।
तभी अचानक मूसलाधार बरसात शुरू हो गयी थी। सभी को जहाँ कहीं भी मौका मिला .. सिर छुपाने की ओट मिली .. आधे सूखे, आधे भींगे .. छुपते चले जा रहे थे। कुछ ही देर बाद अचानक किसी पटरी पर किसी दौड़ती खाली मालगाड़ी में लगायी गयी आपातकालीन विराम (इमरजेंसी ब्रेक/Emergency Break) के बाद मालगाड़ी के डिब्बों से होने वाली भयानक-सी आवाज़ और धड़धड़ाती-सी कम्पन की तरह अचानक पास बह रही नदी से और आसपास की चट्टानों से बहुत ही तीव्र आवाज़ सुनायी पड़ने लगी थी। नदी की तीव्र धार और .. धार के साथ-साथ ऊपर की ओर से बहती आ रही बड़ी-बड़ी चट्टान .. आसपास बैठे इंसानों को भागने का मौका दिए बिना ही अपनी विनाशलीला के रौद्र रूप का प्रदर्शन करते हुए .. ना जाने कितने इंसानों की इहलीला अपने में समेटे अनंत यात्रा की ओर बावली बनी बही जा रही थी।
अंजलि की आँखों के सामने से उसके बाबूजी पलक झपकते ही ओझल हो गए थे। वह थोड़ी ही दूरी पर एक चट्टान की ओट में खड़ी थी और अपने बहते बाबूजी की ओर उन्हें बचाने लपकी तो थी, पर एक अज़नबी, जो स्वयं को धार की बहाव से बचाने के लिए पास के एक विशाल पेड़ के तना से मजबूती के साथ बलपूर्वक चिपका हुआ था, जल्दबाज़ी में उसके फ्रॉक का एक छोर कस कर पकड़ लिया था। वह बिलख-बिलख कर रोती रही .. पर उस वीभत्स आवाज़ में उसकी चीख़-पुकार सुनने वाला, उसके फ्रॉक के छोर को थामने वाले उस अज़नबी इंसान के सिवाय, वहाँ कोई भी नहीं था। ना तो कोई दूसरा इंसान था .. और ना ही .. कोई भगवान .. माँ का तो उसे उस वक्त कुछ भी नहीं पता था, जो तेज बहाव में बिस्तर समेत कब की बह चुकीं थीं।
दरअसल प्रकृति के वीभत्स रूप के इस छोटे-से नज़ारे को दिखाने वाली उस रात की तारीख़ थी- सोलह जून .. वर्ष था- 2013 .. उस वक्त अंजलि तेरह वर्ष की किशोरी थी। उस वक्त तो उसे इस घटना की निर्ममता की .. ना तो वजह की जानकारी थी और ना ही उससे होने वाले भयावह परिणाम की। आज तो वह तेईस साल की हो चुकी है। एक तीन वर्षीय बेटे की माँ और विधवा भी। वर्ष 2019 में रंजन के साथ प्रेम विवाह करने के बाद जल्द ही गर्भवती हो गयी थी। वर्ष 2020 में कोरोना के शुरूआती दौर में ही, ठीक 'लॉकडाउन' लगने के कुछ ही दिन पहले उसके रंजन की अंतिम और अनमोल निशानी- अम्मू का जन्म हुआ था और वर्ष 2021 में .. तो .. कोरोना की दूसरी लहर में, वर्ष 2013 की बहाव में बह गये माँ-बाबूजी की तरह ही, रंजन भी अंजलि को दोबारा अनाथ कर उससे दूर चला गया था। इसे वह संयोग माने या समाज की तरह क़िस्मत मान कर अपने मन को बहला ले .. यह तय कर पाना आज भी मुश्किल है अंजलि के लिए ...
वर्ष 2013 से वर्ष 2023 के मध्य उस भयावह हादसे में संयोगवश शेष जीवित बचे लोगों के बयानों और अवशेष बचे उपलब्ध साक्ष्यों पर आधारित जानकारियों के आधार पर अंजलि को यही ज्ञात हो पाया है, कि उस रात औसत से ज्यादा बारिश होने के कारण मंदाकिनी और सरस्वती नदी का जलस्तर अत्यधिक बढ़ गया था और केदारनाथ धाम के पीछे मौजूद चोराबारी (चौराबाड़ी/चोराबाड़ी) हिमनद (ग्लेशियर/Glacier) के ऊपर बादल फटने के फलस्वरूप उस हिमनद में बनी पुरानी चोराबारी झील में इतना पानी भर गया था, कि उसकी दीवारें टूटने से पूरी की पूरी झील का पानी चंद मिनटों में खाली हो गया था। परिणामस्वरूप प्रकृति ने झील से बहने वाले पानी के आकस्मिक बहाव में होने वाले तमाम निर्मम हिमस्खलन (एवलांच/Avalanche) और भूस्खलन (लैंडस्लाइड/Landslide) के हवनकुंड में अनगिनत निर्दोष प्राणों की आहुति डाल दी थी।
लोग बतलाते हैं, कि उस दुर्घटना के बाद भारतीय सेना के लगभग दस हजार जवान, नौसेना के पैंतालीस गोताखोर और वायुसेना के तैंतालीस विमान के अलावा ग्यारह हेलिकॉप्टर वहाँ फँसे जीवित यात्रियों को बचाने में जुट गए थे। तब लगभग बीस हजार लोगों को वायुसेना ने विमान उत्थापक (एयरलिफ़्ट/Airlift) किया था। परन्तु इन सब के बावजूद भी इस आकस्मिक आपदा में मरने वालों की गिनती पाँच अंकों में होने का अनुमान लगाया गया था और .. साथ ही .. कई सारे लापता लोगों की संख्या चार अंकों में आँकी गयी थी। अधमरे घायलों की कराह की ऊर्मियों से सारा वातावरण मरघट प्रतीत होने लगा था। बाद में वहाँ से पानी उतरने के बाद तो वहाँ के चट्टानों में फँसे नर-नारी (?) कंकाल किसी अस्थि बाज़ार में सजे प्रदर्शित बिकाऊ सामान जैसे दिख रहे थे। कई जगह तो दो कंकाल आपस में आलिंगनबद्ध एक-दूसरे से ऐसे गुँथे हुए थे .. मानो मरते वक्त भी एक-दूसरे का साथ नहीं छोड़ना चाह रहे थे। ना जाने किस रिश्ते का यह अटूट बंधन रहा होगा .. पति-पत्नी का .. भाई-बहन का .. माँ-बेटे का .. पिता-पुत्री का .. दादा-पोते का .. प्रेमी-प्रेमिका का .. गौर वर्ण वालों का या श्याम वर्ण वालों का .. किसी अमीर का या किसी ग़रीब का .. किसी प्रोफ़ेसर साहब का या चपरासी का .. किसी श्रीवास्तव जी का या किसी पासवान जी का ... कहना मुश्किल था शायद .. अब अस्थियों वाले कंकाल पर तो कोई 'नेमप्लेट' लगा नहीं होता ना .. जिन पर अपना पद और जातिसूचक उपनाम चमकाया जा सके .. इन सबके अलावा चारों तरफ वर्णनातीत मलबे, कीचड़, सड़े-गले माँसों की सड़ाँध .. किसी मरघट से भी बदतर दृश्य .. शायद ...
इन आपदा जनित विपदा में भी कई लोगों को एक दैवीय चमत्कार भी नज़र आया था। दरअसल उस भयावह रात को संयोगवश केदारनाथ मंदिर के ठीक पीछे ऊपर से तेज बहाव में बहकर या लुढ़क कर आयी हुई काफ़ी बड़ी एक चट्टान किसी ढाल की तरह उस मंदिर के पास ठहर गया था। इस भौगोलिक और वैज्ञानिक संयोगों के सम्मिश्रण वाली घटना को दैवीय चमत्कार मानने वालों का वर्ग आज उस चट्टान को भीम शिला के नाम से बुलाते हैं और श्रद्धा से उसके समक्ष नतमस्तक भी होते हैं। परन्तु अंजलि आज भी उस दिन को याद कर इस तथाकथित दैवीय चमत्कार को कोसती हुई सोचती है, कि ये चट्टान वाला दैवीय चमत्कार केवल पत्थरों के बने मन्दिर और शिवलिंग के लिए ही उस रात क्यों हुआ था भला .. क्योंकि वह चट्टान भी एक पत्थर था या है .. यानि पत्थर ने पत्थर को बचाया .. मतलब यहाँ भी नस्लवाद .. हद हो गयी ! .. ये दैवीय चमत्कार हाड़-माँस के पुतले जैसे हम इंसानों के लिए भी उस रात क्यों नहीं हुई थी ? .. क्या उस रात आकस्मिक मौत मरने वाले सभी के सभी पापी थे ? .. और .. अपने किसी ना किसी कुकर्मों का फल भुगत रहे थे ? ...
【 आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को .. "पुंश्चली .. (१३) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में .. बस यूँ ही ,... 】