सर्वविदित है कि 21 मार्च को पूरे विश्व में "विश्व कविता दिवस" (World Poetry Day) के साथ-साथ ही नस्लीय भेदभाव को मिटाने के लिए इस के विरोध में "अंतर्राष्ट्रीय नस्लीय भेदभाव उन्मूलन दिवस" (International Day for the Elimination of Racial Discrimination) भी मनाया जाता है, जिन्हें मनाने के लिए इस दिनांक विशेष की घोषणा "यूनेस्को" यानि "संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन" (UNESCO - United Nations Educational, Scientific and Cultural Organization) द्वारा क्रमशः 1999 और 1966 में की गई थी। यूँ तो रस्म-अदायगी के नाम पर रचनाकारों (कवि/कवयित्री) की तो आज के दिन Social Media पर मानो बाढ़-सी आ जाती है, पर नस्लीय भेदभाव उन्मूलन के मामले में वही ढाक के तीन पात वाले मुहावरे को चरितार्थ होते पाया जाता है .. शायद ...
यह भी सर्वविदित ही है कि किसी व्यक्ति या समुदाय से उसकी जाति, रंग, नस्ल इत्यादि के आधार पर घृणा करना या उसे सामान्य मानवीय अधिकारों से वंचित करना ही नस्लीय भेदभाव कहलाता है।
हमारे देश में रंगभेद की जगह/तरह जातिभेद ज्यादा प्रभावी है। साथ ही उपजातिभेद भी और इन सब से भी ऊपर हावी है सम्प्रदायभेद। ऐसा नहीं कि रंगभेद का असर नहीं है .. है ही न ! .. पर प्रत्यक्ष रूप से कम और परोक्ष रूप से ज्यादा। तभी तो काली लड़कियों या काले लड़कों से शादी करने में लोगबाग प्रायः परहेज़ करते हैं या कतराते हुए नज़र आते हैं। नहीं क्या !? वैसे भी इस रंगभेद को हमारे यहाँ ज्यादा हवा देते हैं .. गोरेपन के क्रीम वाले विज्ञापनों की भरमार।
रही बात जातिभेद की तो हमारे पुरखों के काल में छुआछूत जैसी भावनाओं के कारण कई जातिविशेष लोगों के तत्कालीन पुरखों को प्रताड़ित होना पड़ता था और कमोबेश कई सामाजिक परिवेश में आज भी यह परिदृश्य देखने के लिए अक़्सर मिल ही जाता है। आज इस से विपरीत अन्य कई दूसरी जातिविशेष के लोगों को आरक्षण के दंश झेलने पड़ रहे हैं। मतलब जातिभेद का रूप भर बदला है, परन्तु समाप्त नहीं हुआ है। आरक्षण से जातिभेद को तो हवा मिल ही रही है और साथ ही हमारे देश भर से प्रतिभा पलायन (Brain Drain) की मूलभूत समस्या जस का तस सिर उठाए खड़ी है। दूसरी तरफ देश में जातिगत आरक्षण के नाम पर बेहतर प्रतिभा को पीछे धकेलते हुए कमतर प्रतिभा को आगे बढ़ाने से देश को यथोचित प्रतिभा के स्थान पर कमतर और स्तरहीन प्रतिभा वाली नींव कमज़ोर निर्माण गढ़ रही है। साथ ही आरक्षण की आड़ में कई दशकों से उपेक्षित की गई प्रतिभाओं के मन में कुंठा घर बनाती जा रही है .. शायद ...
जब तक हम अपने या अपनी अगली संतति के नाम के आगे जातिसूचक या उपजातिसूचक उपनाम (Surname) चिपकाने की सिलसिला को सीलबंद कर उसे विराम नहीं देंगे, तब तक ये जातिभेद, उपजातिभेद या फिर सम्प्रदायभेद का विषैला नाग अपना फन फैलाए हमारे तथाकथित समाज को डँसता रहेगा।
मानव इतिहास की बातें अगर मानें तो कभी उनके काम/रोज़गार के आधार पर मानव समाज का वर्गीकरण किया गया था, जो कालान्तर में हमारे तथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा तथाकथित समाज में वंशानुगत जातीयता के रूप को धारण कर लिया गया। जिस से हमें हमारी स्वघोषणा करती जातिसूचक उपनाम पर जोर देकर बोलने की और उस पर गर्दन अकड़ाने की भी प्रदूषित परम्परा की अनर्गल रूप से आदत-सी पड़ती चली गई और .. सच कहने में अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए कि आज तो हम पूर्णरूपेण आपादमस्तक इसके दलदल के दमघोंटू माहौल में फंसे होने के बाद भी उस से निकलने के बजाय उसी में मुस्कुराते हुए साँसें ही नहीं ले रहे हैं ; बल्कि स्वयं को गौरवान्वित भी महसूस कर रहे हैं। .. नहीं क्या !? ..
अगर आपस में पहली बार परिचय करते समय सामने से किसी के नाम पूछे जाने पर उपनाम रहित केवल नाम बतलाने पर सामने वाला पूरा नाम बतलाने पर जोर देता है। नहीं बतलाने पर या सच में उपनाम नहीं रहने पर सामने वाला अजीब-सा मुँह बनाता है। कहीं पर Form भरते समय भी उपनाम नहीं भरने पर उस Form को अधूरा माना जाता है। जनगणना भी हमारे देश में जातिगत करायी जाती है। हमारा नाम तो अभिभावक द्वारा तय किया गया था, परन्तु हमने अपने पुत्र का नाम अभिभावक होने के नाते अपनी इच्छा से जातिसूचक उपनामरहित केवल "शुभम्" रखा तो कई दफ़ा कई जगह पर Form भरते समय उसको परेशानी का सामना करना पड़ा और परिणामस्वरूप उसकी खीझ की प्रतिक्रिया मुझे झेलनी पड़ी। कहीं पर नाम के दुहराव से उपनाम का रिक्त स्थान भरा गया, कहीं पर किसी और विकल्प से। अब वह इससे अभ्यस्त हो गया है और शायद मेरी मानसिकता समझने भी लगा है, तो अब नहीं खीझता। पर भला आज भी कितने अभिभावक हैं जो जातिसूचक उपनाम नहीं लगाते अपने बच्चों के नाम के आगे या जातिसूचक की जगह कुछ और संज्ञा जोड़ते हैं किसी रचनाकार के नाम के आगे लगे तख़ल्लुस की तरह !?
ऐसे में जातिगत, उपजातिगत या धर्म-सम्प्रदायगत भेदभाव भला कैसे शून्य कर पाएगा हमारा तथाकथित बुद्धिजीवी समाज !? .. और तो और .. किसी ठोस कारणवश या अधिकतर तो अकारण ही राज्य के आधार पर, भाषा के आधार पर, खान-पान के आधार पर, पहनावा के आधार पर .. हम सभी मानव-मानव में भेदभाव करते हैं। इतना ही नहीं अपने से इतर राज्य, भाषा, खान-पान या पहनावा वाले इंसान या समाज को अपने से कमतर आँकने में या कमतर समझने-बोलने में और ख़ुद के लिए गर्दन अकड़ाने में हम तनिक भी गुरेज़ नहीं करते .. शायद ...
अगर बीते कल और आज के साथ-साथ आने वाले कल यानि 22 मार्च की भी बात कर ही लें तो कल "विश्व जल दिवस" (World Day for Water) है, जिसे भी 1993 से यूनेस्को द्वारा मनाए जाने की घोषणा के बाद से हर साल मनाया जा रहा है।
ऐसे में .. कम-से-कम हमारी अपनी-अपनी आँखों में इतना पानी (जल) को तो होना ही चाहिए साहिब/साहिबा ! , ताकि नस्लीय भेदभाव का कीड़ा उस के चुल्लू भर पानी में या तो डूब कर मर जाए या फिर पानी-पानी हो कर अचेत हो जाए .. ताकि अतीत या वर्तमान की तरह कम-से-कम हमारे भावी तथाकथित मानवीय समाज में वह पानी में आग ना लगा पाए। वैसे भी किसी दिवस विशेष के एक बूँद की मिठास हमारे समाज के साग़र की विसंगतियों और कुरीतियों के खारापन को दूर करने में सक्षम हो ही नहीं सकती, जब तक कि दिनचर्या की सतत् मीठी धार से इसे दूर करने की निरन्तर कोशिश मन से ना की जाए .. शायद ...
तो आइए स्वयं से ही शुरू करते हैं और आज कविता Post करने के बदले अपने जातिसूचक उपनाम पर अपनी गर्दन अकड़ाने की जगह ( वह भी तब .. जब कि हजार साल पूर्व के अपने पुरख़े के बारे में कुछ भी ज्ञात ना हो ) ; उसका बहिष्कार करते हैं ताकि हमें ना सही .. पर अपनी भावी पीढ़ी को तो कम से कम भेदभाव मुक्त समाज मिल सके। अगर भविष्य में भेद हो भी तो प्राचीन काल की तरह काम या बुद्धिमत्ता के आधार पर, ना कि नस्ल या जाति के आधार पर। आज मिलकर हम सभी क्यों ना .. भेदभाव से मुक्त मानवता के राग वाले सरगम की तान छेड़ें ..पर हाँ .. केवल शाब्दिक नहीं .. बल्कि .. सच्ची-मुच्ची .. बस यूँ ही ...