सर्वविदित है कि आज, 14 जून को, विश्व रक्तदान दिवस या विश्व रक्तदाता दिवस है, जिसे विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा 2004 में 14 जून को इस रूप में मनाने का उद्देश्य पूरे विश्व में रक्त, रक्त उत्पादों की आवश्यकता के बारे में जागरूकता बढ़ाना और सुरक्षित जीवन रक्षक रक्त के दान करने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करते हुए उन्हें आभार व्यक्त करना था। वैसे 1970 से प्रतिवर्ष जनवरी महीने को राष्ट्रीय रक्तदाता माह के रूप में भी मनाया जाता है।
इसको दिनचर्या में शामिल नहीं कर सकते क्योंकि स्वास्थ्य विज्ञान के अनुसार कोई भी स्वस्थ इंसान लगभग तीन महीने में एक ही बार अपना रक्त दे सकता है। एक औसत व्यक्ति के शरीर में 10 यूनिट यानि 5-6 लीटर रक्त होता है और रक्तदान में केवल 1 यूनिट रक्त यानि 1 पिंट या 450 मिली या कभी-कभी 400-525 मिली लीटर तक ही लिया जाता है। जिसकी भरपाई शरीर लगभग 24 घन्टे में कर लेता है। अलग-अलग इंसान की क्षमता भी उनके स्वास्थ्य के अनुसार भिन्न-भिन्न होती है।
आज की रचना के पहले इतनी सर्वविदित बात के लिए भी बकबक करने और इसको पढ़ने में आपका समय नष्ट करवाने का बस एक ही मक़सद है कि अगर हो सके तो हमारे द्वारा, जैसा कि निजी तौर पर मेरा सोचना भी है, रक्तदान को "रक्तसाझा" कहा जाए तो बेहतर अनुभव होता .. शायद ...। कारण, ये दान जुड़ा हुआ शब्द हमारे सुसभ्य और सुसंस्कृत समाज के कन्यादान शब्द जैसा कान को चुभता है। आपको नहीं क्या ???...नाराज़ मत होइएगा, आपसे पूछ भर लिया .. बस यूँ ही ...
खैर ... सोचने के लिए तो बुद्धिजीवी लोगों की भीड़ हैं ही यहाँ पर, हमें क्या करना .. चलिए .. आज की रचना/विचार की ओर ...
दायरे की त्रिज्या ...
"जमूरे!"
"हाँ, उस्ताद!"
"जमूरे ! चल बतला जरा, स्वतंत्र हुए हमें हो गए कितने साल ?"
"भला मुझे क्या पता उस्ताद, मेरा तो तूने कर रखा है बुरा हाल,
माना, मेरी दाल-रोटी है चलाता, साथ चलाता तो है तू अपनी दुकान,
स्वतंत्र भारत में, कर परतंत्र मुझे, कर रखा है जीना मेरा मुहाल"
"जमूरे! कमोबेश .. सबकी है यहाँ यही हाल, बात दाल-रोटी की
कर-कर के दूसरे की, सब चलाते हैं बस अपनी ही दुकान"
"उस्ताद!, स्वतंत्र तो हैं इधर-उधर टहलने वाले यहाँ के कुत्ते सारे,
गली के लावारिस हों वो या फिर पालतू विदेशी भिन्न-भिन्न नस्ल वाले,
सुबह-शाम सड़कों पर, कचरों पर, सार्वजनिक पार्कों में हगने वाले"
"जमूरे! चुप .. ठहर, अनर्गल बातें मत कर, दिखता नहीं तुझे बदकार
तमाशबीन जुटे हैं यहाँ सारे सभ्य, पढ़े-लिखे, बुद्धिजीवी, साहित्यकार,
कुत्ते के हगने जैसी बात करने पर, कर देंगे विद्वजन तेरा बहिष्कार,
बोलने के लिए तू स्वतंत्र है, पर संविधान का इतना भी नहीं अधिकार,
हो कर उकड़ू श्वान और श्वानी करते हैं जो विष्ठा का त्याग इधर-उधर,
हैं सच में स्वतंत्र वही यहाँ, ऐसी सभ्य भाषा बोलनी होती है ना यार?"
"क्या जाने ये भाषा-वाषा, ना हम बुद्धिजीवी और ना ही साहित्यकार"
"जमूरे!, श्वान भी भला स्वतंत्र होता कहाँ, हो वो पालतू या गली का,
गली वाले का तय होता है मुहल्ला, इंसानों के राज्य या देश के जैसा।
पालतू के गले का सिक्कड़ या पट्टा होता है, उसके दायरे की त्रिज्या,
ठीक जैसे जिसे जन्म से पहले, माँ के गर्भ ही में दिया जाता है पहना,
गले में इंसान के धर्म, जाति-उपजाति का अनचाहा अदृश्य एक पट्टा।
दुनिया में आने से पहले नौ माह तक कैद था, तू अपनी माँ के गर्भ में,
आने से पहले ही धरती पर, बन गया परतंत्र जाति-धर्म के सन्दर्भ में।"
"उस्ताद! मुझे बस दाल-रोटी चाहिए, जाति-धर्म का क्या करना ?"
"हाँ.. वैसे तो कहीं भी थूकने के लिए, मूतने के लिए तू स्वतंत्र है यहाँ,
जिन्दाबाद, मुर्दाबाद के लिए कहीं भी, कभी भी तू स्वतंत्र है यहाँ,
उपवास, रोज़ा, भूख हड़ताल या अनशन के लिए तू स्वतंत्र हैं यहाँ,
धर्मों और त्योहारों के नाम पर शोर करने के लिए तू स्वतंत्र है यहाँ
और शादी के नाम पर दहेज देने-लेने के लिए भी तू स्वतंत्र है यहाँ,
पर स्वतंत्र हो कर भी ऑनर किलिंग को कभी मत जमूरे तू भूलना।
चाहे लड़की हो या लड़का कोई, कितना भी हो स्वतंत्र वो यहाँ,
पर शादी के लिए स्वदेश में, अपनी जाति-धर्म में ही पड़ता है ढूँढ़ना।"
"अच्छा!!! .. पर मैंने तो सुना है कि ..."
"अब बातें मत करने लगना तुम, बड़े नेता या किसी सिने-स्टार की,
देवताओं या ऋषियों को भी आती थी कभी तिकड़म बलात्कार की।"
"छिः, छिः, उस्ताद! देवी, देवताओं के लिए ऐसी बातें नहीं करते,
नहीं तो, लाख उपकार कर के भी नर्क जाओगे, जब तुम मरोगे।"
"जमूरे! तू निरा मूर्ख ही रह जाएगा .. अगर ऐसी ही बात है तो हम
कल ही सत्यनारायण स्वामी की कथा हैं करवाते, शंख हैं बजवाते,
या चलो किसी देवी का नाम लेकर किसी पहाड़ पर हैं चढ़ जाते,
या फिर किसी पादरी के सामने चल कर 'कन्फ़ेस' हैं कर आते,
या रियायती 'हज़-सब्सिडी' पर मिलकर हम हज़ हैं कर आते"
"चलो, चलते हैं उस्ताद, खाने और घूमने में बड़ा ही मजा आएगा,
.. है ना ?"
"पर नहीं, इतने भी स्वतंत्र नहीं जमूरे, जो हम सारे जगहों पर जाएँ।
किसी एक ही जगह जाना होगा, धर्म-मज़हब के अनुसार ही अपने,
फिर किए गए अपने पापों से हो जाएंगे हम स्वतंत्र, तय है ये जमूरे!"
"तो, उस्ताद! ..."
"बोल, जमूरे! ..."
"आज मदारी यहीं खत्म करते हैं, पाप मिटाने हम तीर्थ पर चलते हैं।"
"हाँ जमूरे!, .. तो बच्चे लोग बजाओ ताली, बोलो सब हाली-हाली,
जय काली, कलकत्ते वाली, तेरा वचन जाए ना खाली।
जो देगा उसका भला, जो ना देगा उसका भी भला।
फ़िलहाल .. करने स्वतंत्र देश को कोरोना से .. टालने बला ..
जमूरा और .. मैं मन्दिर चला।"
इसको दिनचर्या में शामिल नहीं कर सकते क्योंकि स्वास्थ्य विज्ञान के अनुसार कोई भी स्वस्थ इंसान लगभग तीन महीने में एक ही बार अपना रक्त दे सकता है। एक औसत व्यक्ति के शरीर में 10 यूनिट यानि 5-6 लीटर रक्त होता है और रक्तदान में केवल 1 यूनिट रक्त यानि 1 पिंट या 450 मिली या कभी-कभी 400-525 मिली लीटर तक ही लिया जाता है। जिसकी भरपाई शरीर लगभग 24 घन्टे में कर लेता है। अलग-अलग इंसान की क्षमता भी उनके स्वास्थ्य के अनुसार भिन्न-भिन्न होती है।
आज की रचना के पहले इतनी सर्वविदित बात के लिए भी बकबक करने और इसको पढ़ने में आपका समय नष्ट करवाने का बस एक ही मक़सद है कि अगर हो सके तो हमारे द्वारा, जैसा कि निजी तौर पर मेरा सोचना भी है, रक्तदान को "रक्तसाझा" कहा जाए तो बेहतर अनुभव होता .. शायद ...। कारण, ये दान जुड़ा हुआ शब्द हमारे सुसभ्य और सुसंस्कृत समाज के कन्यादान शब्द जैसा कान को चुभता है। आपको नहीं क्या ???...नाराज़ मत होइएगा, आपसे पूछ भर लिया .. बस यूँ ही ...
खैर ... सोचने के लिए तो बुद्धिजीवी लोगों की भीड़ हैं ही यहाँ पर, हमें क्या करना .. चलिए .. आज की रचना/विचार की ओर ...
दायरे की त्रिज्या ...
"जमूरे!"
"हाँ, उस्ताद!"
"जमूरे ! चल बतला जरा, स्वतंत्र हुए हमें हो गए कितने साल ?"
"भला मुझे क्या पता उस्ताद, मेरा तो तूने कर रखा है बुरा हाल,
माना, मेरी दाल-रोटी है चलाता, साथ चलाता तो है तू अपनी दुकान,
स्वतंत्र भारत में, कर परतंत्र मुझे, कर रखा है जीना मेरा मुहाल"
"जमूरे! कमोबेश .. सबकी है यहाँ यही हाल, बात दाल-रोटी की
कर-कर के दूसरे की, सब चलाते हैं बस अपनी ही दुकान"
"उस्ताद!, स्वतंत्र तो हैं इधर-उधर टहलने वाले यहाँ के कुत्ते सारे,
गली के लावारिस हों वो या फिर पालतू विदेशी भिन्न-भिन्न नस्ल वाले,
सुबह-शाम सड़कों पर, कचरों पर, सार्वजनिक पार्कों में हगने वाले"
"जमूरे! चुप .. ठहर, अनर्गल बातें मत कर, दिखता नहीं तुझे बदकार
तमाशबीन जुटे हैं यहाँ सारे सभ्य, पढ़े-लिखे, बुद्धिजीवी, साहित्यकार,
कुत्ते के हगने जैसी बात करने पर, कर देंगे विद्वजन तेरा बहिष्कार,
बोलने के लिए तू स्वतंत्र है, पर संविधान का इतना भी नहीं अधिकार,
हो कर उकड़ू श्वान और श्वानी करते हैं जो विष्ठा का त्याग इधर-उधर,
हैं सच में स्वतंत्र वही यहाँ, ऐसी सभ्य भाषा बोलनी होती है ना यार?"
"क्या जाने ये भाषा-वाषा, ना हम बुद्धिजीवी और ना ही साहित्यकार"
"जमूरे!, श्वान भी भला स्वतंत्र होता कहाँ, हो वो पालतू या गली का,
गली वाले का तय होता है मुहल्ला, इंसानों के राज्य या देश के जैसा।
पालतू के गले का सिक्कड़ या पट्टा होता है, उसके दायरे की त्रिज्या,
ठीक जैसे जिसे जन्म से पहले, माँ के गर्भ ही में दिया जाता है पहना,
गले में इंसान के धर्म, जाति-उपजाति का अनचाहा अदृश्य एक पट्टा।
दुनिया में आने से पहले नौ माह तक कैद था, तू अपनी माँ के गर्भ में,
आने से पहले ही धरती पर, बन गया परतंत्र जाति-धर्म के सन्दर्भ में।"
"उस्ताद! मुझे बस दाल-रोटी चाहिए, जाति-धर्म का क्या करना ?"
"हाँ.. वैसे तो कहीं भी थूकने के लिए, मूतने के लिए तू स्वतंत्र है यहाँ,
जिन्दाबाद, मुर्दाबाद के लिए कहीं भी, कभी भी तू स्वतंत्र है यहाँ,
उपवास, रोज़ा, भूख हड़ताल या अनशन के लिए तू स्वतंत्र हैं यहाँ,
धर्मों और त्योहारों के नाम पर शोर करने के लिए तू स्वतंत्र है यहाँ
और शादी के नाम पर दहेज देने-लेने के लिए भी तू स्वतंत्र है यहाँ,
पर स्वतंत्र हो कर भी ऑनर किलिंग को कभी मत जमूरे तू भूलना।
चाहे लड़की हो या लड़का कोई, कितना भी हो स्वतंत्र वो यहाँ,
पर शादी के लिए स्वदेश में, अपनी जाति-धर्म में ही पड़ता है ढूँढ़ना।"
"अच्छा!!! .. पर मैंने तो सुना है कि ..."
"अब बातें मत करने लगना तुम, बड़े नेता या किसी सिने-स्टार की,
देवताओं या ऋषियों को भी आती थी कभी तिकड़म बलात्कार की।"
"छिः, छिः, उस्ताद! देवी, देवताओं के लिए ऐसी बातें नहीं करते,
नहीं तो, लाख उपकार कर के भी नर्क जाओगे, जब तुम मरोगे।"
"जमूरे! तू निरा मूर्ख ही रह जाएगा .. अगर ऐसी ही बात है तो हम
कल ही सत्यनारायण स्वामी की कथा हैं करवाते, शंख हैं बजवाते,
या चलो किसी देवी का नाम लेकर किसी पहाड़ पर हैं चढ़ जाते,
या फिर किसी पादरी के सामने चल कर 'कन्फ़ेस' हैं कर आते,
या रियायती 'हज़-सब्सिडी' पर मिलकर हम हज़ हैं कर आते"
"चलो, चलते हैं उस्ताद, खाने और घूमने में बड़ा ही मजा आएगा,
.. है ना ?"
"पर नहीं, इतने भी स्वतंत्र नहीं जमूरे, जो हम सारे जगहों पर जाएँ।
किसी एक ही जगह जाना होगा, धर्म-मज़हब के अनुसार ही अपने,
फिर किए गए अपने पापों से हो जाएंगे हम स्वतंत्र, तय है ये जमूरे!"
"तो, उस्ताद! ..."
"बोल, जमूरे! ..."
"आज मदारी यहीं खत्म करते हैं, पाप मिटाने हम तीर्थ पर चलते हैं।"
"हाँ जमूरे!, .. तो बच्चे लोग बजाओ ताली, बोलो सब हाली-हाली,
जय काली, कलकत्ते वाली, तेरा वचन जाए ना खाली।
जो देगा उसका भला, जो ना देगा उसका भी भला।
फ़िलहाल .. करने स्वतंत्र देश को कोरोना से .. टालने बला ..
जमूरा और .. मैं मन्दिर चला।"