Thursday, July 27, 2023

पुष्पा नहीं, सुसवा ...

आपको भी शायद याद होंगे ही तेलुगु भाषी भारतीय अभिनेता- अल्लू अर्जुन की फ़िल्म "पुष्पा: द राइज" के सबसे ज्यादा बहुचर्चित और लोकप्रिय दोनों संवाद जिसे 'बॉलीवुड' के श्रेयस तलपड़े ने हिंदी में 'डबिंग' किया है। पहला संवाद जिसमें वह कहते हैं- "मैं पुष्पा... पुष्पराज... मैं झुकेगा नहीं स्स्साला .." और दूसरे संवाद में बोलते हैं- “पुष्पा नाम सुन के फ्लावर समझे क्या... फ्लावर नहीं, फायर है। ” .. याद है ना .. ये दोनों संवाद ? ...


उसी फ़िल्मी संवाद के तर्ज़ पर अभी-अभी किसी की सोंधी-सी फ़ुसफ़ुसाहट ने हमारे कर्णपटल पर दस्तक दी है- "सुसवा नाम सुन के फूल समझे क्या ? फूल नहीं, साग है। " .. आप सब भी ऐसा सुन पा रहे हैं क्या ? .. नहीं ? ..  नहीं क्या ? ...


ख़ैर ! .. कोई बात नहीं .. हो सकता है आपके आसपास की ध्वनि के प्रदूषण में आपको नहीं सुनायी दे रही हो ये सोंधी-सी फुसफुसाहट .. कई दफ़ा तो एक ही छत के नीचे गहरी नीरवता में अपनों के क़रीब रह कर भी हम एक-दूसरे के मन की मीठी बातों को भी सुन-समझ नहीं ही पाते हैं .. है ना ? ... 


फ़िलहाल अभी हम चर्चा कर रहे हैं "सुसवा साग" का, जो उत्तराखंड की एक विशेष पहचान है। जैसे मैदानी क्षेत्रों में लोकप्रिय है "नोनी" या "नोनिया" का साग। सुसवा साग एक मौसमी उपज है, जो समस्त उत्तराखंड के विभिन्न स्थानों पर बहते पानी के प्राकृतिक स्रोतों में और उसके आसपास स्वतः उग आता है, ठीक "कर्मी साग" के पैदावार की तरह। प्रायः सुसवा का साग अक्टूबर के आसपास उपजता है और अमूमन मार्च-अप्रैल तक उपलब्ध रहता है।  


उत्तराखंड की राजधानी देहरादून के आसपास के इलाकों में भी अब से पहले यह प्राकृतिक रूप से एक नदी विशेष की उपज हुआ करता था। स्थानीय जानकार वृद्ध-वयस्क जन बतलाते हैं कि इस नदी में उपजने वाले सुसवा साग के कारण ही इस नदी विशेष को "सुसवा नदी" के नाम से बुलाया जाता था या है भी। तब कुछ गरीब तबक़े के लोग इस निःशुल्क प्रकृति-प्रदत्त साग को शहरी क्षेत्रों में बसे हुए हम जैसे साग प्रेमियों से बेच कर अपने परिवार का जीवनयापन करते थे। 


हालांकि उत्तर प्रदेश से विभाजित होकर बनने वाले नए राज्य- उत्तराखंड की राजधानी- देहरादून बनने के बाद, पहले से ही मनमोहक स्वच्छ आबोहवा और मनोरम प्राकृतिक सौन्दर्य के आकर्षण की वज़ह से अन्य राज्यों से यहाँ आकर स्थायी-अस्थायी बसने वालों की लगी हुई होड़ के कारण यहाँ की जनसंख्या ताबड़तोड़ बढ़ती गयी है। जिसके फलस्वरूप उसी अनुपात में प्रदूषण भी बढ़ता गया है। नतीजन अब प्रदूषित सुसवा नदी में सुसवा साग का नामोनिशान तक नहीं मिलता है। परन्तु .. चूँकि ये साग और नदी, दोनों ही हमनाम हैं और अतीत में ही सही, दोनों के गहरे सम्बन्ध रहे हैं तो साग के साथ-साथ प्रसंगवश नदी की भी कुछ तो चर्चा करनी जायज़ ठहरती है .. शायद ...


दरअसल सुसवा नदी गंगा की सहायक नदियों में से एक है, जो उत्तराखंड के दक्षिणी शिवालिक पर्वत श्रृंखला से निकलती है और देहरादून की घाटियों से गुजरती हुई सौंग नदी की सहायक नदी बन कर मैदानी क्षेत्र के रास्ते गंगा नदी में जा मिलती है। जैसे हमारे अभिभावक होते हैं और हमारे अभिभावक के भी अभिभावक होते हैं, उसी प्रकार गंगा की सहायक नदी सुसवा की भी सहायक नदियाँ हैं। वो सब भी अब निष्प्राण-सी ही दिखती हैं। उन सहायक नदियों के भी नामभर के लिए ही नाम शेष बचे हैं-  बिंदाल नदी और रिस्पना नदी। स्थानीय जानकार जन बतलाते हैं कि रिस्पना नाम दरअसल ऋषिपर्णा नाम का अपभ्रंश स्वरुप है और यही अपभ्रंश नाम ही वर्तमान में प्रचलित भी है।


कहते हैं कि सुसवा नदी कभी अपने पौष्टिक व स्वादिष्ट सुसवा साग और मछलियों के साथ-साथ देहरादून में उपजने वाले अपने विशेष सुगंध के कारण विश्व भर में लोकप्रिय बासमती चावल के खेतों में अपने पानी की सिंचाई से उस चावल विशेष में सुगंध भरने के लिए जानी जाती थी। वही सुसवा नदी की स्वच्छ धार आज हम बुद्धिजीवियों के तथाकथित विकास की बलिवेदी पर चढ़ कर, अल्पज्ञानियों की बढ़ती जनसंख्या की तीक्ष्ण धार वाली भुजाली से क्षत-विक्षत हो कर सिसकी लेने लायक भी शेष नहीं बची है .. शायद ...


फलतः बासमती चावल में सुगंध भरने वाली नदी आज स्वयं ही दुर्गन्धयुक्त हो गयी है। लगभग निष्प्राण हो चुकी इस नदी में बरसात की शुरुआत में पानी भरने के क्रम के साथ-साथ शहर भर की गंदगियों सहित मिलने वाले बड़े-बड़े नालों ('सीवर') के हानिकारक 'प्लास्टिक', 'थर्माकोल' समेत 'मैग्नीशियम', 'कैल्शियम' और अन्य कई विषैले रसायन .. मसलन- 'क्रोमियम', 'जिंक', 'आयरन', शीशा, 'मैंगनीज़', 'ग्रीस', तेल इत्यादि बहुतायत मात्रा में आकर मिलते हैं। नतीजन इसके पानी के उपयोग से या सम्पर्क में आने से भी कैंसर, विशेष कर बड़ी आँत का कैंसर, चर्म रोग, 'कोमा', 'गॉल ब्लैडर', गुर्दे की पथरी, 'हाइपर टेंशन', हृदयघात या मोटापा जैसी खतरनाक बीमारी होने की प्रबल सम्भावना रहती है। इसके साथ ही इसमें कचरे के रूप में मिले हानिकारक तत्व वाले पानी से सिंचाई करने पर अनाज की गुणवत्ता भी प्रभावित होती हैं, जो परोक्ष रूप से हमारे स्वास्थ्य के लिए खतरनाक साबित होते हैं .. शायद ... 


इसीलिए इन दिनों देहरादून के आसपास के इलाकों में सुसवा साग प्रेमी लोगों के लिए कहीं-कहीं अपने जीवकोपार्जन के लिए कुछ लोगों द्वारा सुनियोजित ढंग से इसकी खेती की जाती है। अक्तूबर के आसपास इसे रोपा जाता है, जो लगभग डेढ़ माह में काटने लायक हो जाता है। अक्तूबर से मार्च-अप्रैल तक इसे खेती करने वाले लोगों द्वारा छः-सात बार काटा जाता है। हर बार काटने के बाद यह बरसीम चारा की तरह तेजी से पनप भी जाता है। चूँकि इसकी पैदावार केवल पानी पर निर्भर करती है, वो भी बहते हुए पानी पर, तो खेतों में ठीक उसी तरह की बहते पानी जैसी व्यवस्था करनी होती है, जैसी नदियों में होती है। खेतों में पानी रुकने से सुसवा की उपज को खराब होने की आशंका रहती है। हालांकि उत्तराखंड के सुदूर पहाड़ी इलाकों में जहाँ अभी तक शहरी प्रदूषण की पैठ नहीं हुई है, वहाँ अभी भी प्राकृतिक रूप से बिना खेती किये हुए ही बहते पानी के स्रोतों में और उसके आसपास यह मौसमानुसार स्वतः उपजता है और स्थानीय सुसवा प्रेमियों को अपना सोंधापन निछावर करता रहता है।


उत्तराखंडी लोगों को मालूम है, कि सुसवा साग बहुत ही स्वादिष्ट एवं पौष्टिक होता है। इसमें 'विटामिन सी', 'प्रोटीन' और 'आयरन' जैसे महत्वपूर्ण पोषक तत्व प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। इसमें कैलोरी बहुत ही कम होती है, पर भरपूर मात्रा में 'एंटीऑक्सीडेंट' होते हैं, जो हृदय रोग और कई प्रकार के कैंसर से बचने में सहायता करते हैं। यह अन्य कई खनिजों का भी एक अच्छा स्रोत है, जो हमारी हड्डियों की रक्षा करता है। अन्य स्रोतों के साभार से यह पता चलता है कि विदेशों में भी कई जगहों पर इसको Water Cress (जलकुम्भी) के नाम से बुलाते हैं। वहाँ पर यह ज्यादातर सलाद की तरह उपभोग किया जाता है।


आइए ! .. मिलकर एक बार सुसवा वाले संवाद को अपनी ज़ुबान से बोल कर आज की बतकही की इतिश्री करते हैं .. बस यूँ ही ... - "सुसवा नाम सुन के फूल समझे क्या ? फूल नहीं, साग है। "

















सुसवा के लिए यथोचित मौसम में देहरादून की स्थानीय सब्जी मंडी-बाज़ारों में बेचने के लिए वर्तमान में भी प्रायः गरीब लोग ही टोकरी में लेकर बैठते या बैठती हैं या फिर कुछ पुरुष लोग अपनी साइकिल पर लादे कॉलोनीयों-मुहल्लों में घूम घूम कर फेरी लगाते नज़र आ जाते हैं। इस वर्ष पुनः प्रतीक्षारत हैं हम सुसवा के मौसम के आगमन के .. बस यूँ ही ...

पुंश्चली .. (३) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

पुंश्चली .. (१) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) और पुंश्चली .. (२) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) के बाद अपने कथनानुसार आज एक सप्ताह बाद पुनः वृहष्पतिवार को प्रस्तुत है पुंश्चली .. (३) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) .. बस यूँ ही ... :-

परबतिया लगभग झेंपती हुई अपने स्थान से उठकर गली-चौक की सफ़ाई के लिए नगर-निगम द्वारा दिए गये लम्बे डंडे लगे नारियल के झाड़ू को लेकर गली-मुहल्ले की शेष बची सफ़ाई करने चल पड़ी है। 

उधर मेहता जी और सक्सेना जी भी आपसी तर्क-वितर्क को बेतुकी बहस और बेतुकी बहस को वाक्-युद्ध तक का रूप देकर, यहाँ से अपने-अपने घर की ओर रुख़ कर चुके हैं। सभी को अपने-अपने काम-धंधे पर घर से निकलने के पहले घर की कुछ दैनिक नितान्त आवश्यक आवश्यकताओं को पूरी करनी होती है और अपना नहाना-धोना और साफ़-सफ़ाई भी। 

परबतिया के जाते ही भूरा और चाँद 'केचप' की फैक्ट्री वाली अपनी बातों को फिर से छेड़ना चाह रहे हैं, जिसे मन्टू बेतुकी बातें कह के उन्हें चुप करा देने की कोशिश भर कर रहा है।

अभी चाँद कुछ कहता, उससे पहले ही मेहता जी और सक्सेना जी की जगह पर मुहल्ले के ही एक 'पी जी' में रहने वाले दो विद्यार्थी युवा मित्र- मयंक और शशांक आ कर बैठ गये हैं। वे दोनों ही सुबह-सवेरे रोज की तरह रसिक चाय दुकान पर आकर रसिकवा को अलग से थोड़ी ज्यादा कड़क चाय बनाने की ताकीद करते हुए मेहता जी और सक्सेना जी की थोड़ी देर पहले हो रही तथाकथित राजनीति वाली  बेतुकी बहस को पास ही खड़े सुन रहे थे और मुस्कुरा भी रहे थे।

हालांकि उनके 'पी जी' में भी सुबह के नाश्ते के साथ चाय मिलती है, पर रसिक चाय दुकान के जैसी नहीं मिलती है। पाउडर वाले दूध में बनी, कम चाय पत्ती डाली हुई खौले पानी-सी पतली चाय मिलती है। हाँ .. चीनी की कमी नहीं रहती है। पर रसिकवा की चाय पीकर प्रायः उन दोनों की रात भर जाग कर प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करने से उपजी थकान छूमंतर हो जाती है। दोनों ही अलग-अलग राज्यों से हैं और अलग-अलग भाषाभाषी भी हैं, पर दोनों में गहरी मित्रता है।

इन दोनों को वहाँ उस बेंच पर बैठते देखकर चाँद 'केचप' की फैक्ट्री वाली बात छेड़ते-छेड़ते रुक जाता है। वह और भूरा दोनों एक-दूसरे की ओर ताकने लगते हैं। ऐसे में मन्टू इन दोनों को मयंक और शशांक के कारण सकपकाता हुआ देख कर मुस्कुराने लगा है। 

मुहल्ले में सभी लोग 'पी जी' के सभी किराएदारों को सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। उनमें भी इन दोनों मित्रों को कुछ ज्यादा ही इज़्ज़त करते हैं। भला करें भी क्यों ना ! .. स्कूल में पढ़ने वाले मुहल्ले भर के बच्चों के लिए दोनों ही किसी के लिए भईया, किसी के लिए अंकल तो किसी के लिए 'सर' हैं। विशेषकर गरीब परिवार के बच्चों और उनके अभिभावकों की नज़र में तो दोनों ही किसी मसीहा से कम नहीं हैं। 

उसकी भी वजह है .. हर रविवार को सारे जरूरतमंद बच्चों को कभी पास के ही पार्क में या कभी अपने 'पी जी' के छत पर ही बैठा कर उन सभी के द्वारा पूछे गए पाठ्यक्रम के कठिन प्रश्नों को उन सभी की सरल बाल मानसिकता के अनुरूप समझा कर उनके चेहरों पर मुस्कान तैराने का काम करते हैं दोनों, वो भी निःशुल्क। पर हाँ .. बच्चों की परीक्षा के दिनों में साप्ताहिक रविवार को होने वाली 'क्लास' की पाबन्दी नहीं रह पाती, जिसको जिस समय, जो भी विषय समझ में ना आए, आ सकता है।  सभी बच्चों को इनके द्वारा मनोरंजक ढंग से पढ़ाने पर उन बच्चों के लिए नीरस विषय भी दिलचस्प बन जाता है। 

इसके अलावा ये दोनों एक-दो घन्टे किसी अमीर घर के 'इंग्लिश मीडियम' से किसी तथाकथित 'प्राइवेट स्कूल' में पढ़ने वाले बच्चों को 'ट्यूशन' पढ़ा कर अपने अतिरिक्त जेबख़र्च के लिए अर्जित पैसों से जरूरत पड़ने पर कभी-कभी किसी तंगहाल अभिभावक के बच्चों के लिए कॉपी, तो कभी पेंसिल, तो कभी-कभी किताबें, 'स्कूल बैग' या 'स्कूल ड्रेस' तक भी खरीद देते हैं। पाठ्यक्रम की पढ़ाई के साथ-साथ जिस बच्चे में जो भी छिपी हुई कलात्मक या खेल-कूद सम्बन्धित पाठ्येतर गतिविधियों वाली प्रतिभा होती है, उसे बाहर लाने के लिए भी उन्हें ये दोनों प्रेरित करते रहते हैं। 

बदले में इन्हें मुहल्ले भर का प्यार और सम्मान मुफ़्त में मिलता रहता है। जिस किसी भी धर्म-सम्प्रदाय वाले बच्चे के घर में त्योहारों के नाम पर विशेष सीझने वाले व्यंजनों में इन दोनों मित्रों का भी हिस्सा पकता है। कभी कोई बच्चा एक कटोरी में अपनी पुरानी 'रफ' कॉपी के पन्ने से ढक कर 'रूम' में ही पहुँचा जाता है या फिर कभी कोई अपने घर ही बुला कर ले जाता है - " मंक छल (मयंक सर)  .. छछांक छल (शशांक सर)  .. आपको मम्मी बुला लही (रही) है। मम्मी बोलीं है कि तुलत (तुरंत) वापच् (वापस) आ जाइएगा .. आपकी पलाई (पढ़ाई) दिसतलब ('डिस्टर्ब') नहीं होगी .. " 

अगर अवकाश रहा तो दोनों सहर्ष उस बच्चे के साथ ही उसके घर चले जाते हैं या व्यस्त रहने पर कुछ देर में आने की बात कह कर उस बच्चे को उसके घर भेज देते हैं। जिस शाम भी किसी बच्चे के घर से बुलाहट आने पर, वहाँ से लौटने के बाद दोनों को ही उस शाम 'पी जी' के औपचारिक भोजन से छुटकारा मिल जाती है।

ख़ैर ! .. अभी फ़िलहाल दोनों के लिए रसिकवा के हाथों से बनी कड़क चाय अब तक दोनों के हाथों में 'डिस्पोजेबल कप' पर सवार हो कर आ चुकी है। चाय की चुस्की के साथ ही रोज की तरह पढ़ाई से इतर किसी भी ज्वलंत मुद्दा पर दोनों की परिचर्चा शुरू हो गयी है। इसी बहाने आसपास और देश-विदेश की जानकारी भी हो जाती है, जो अध्ययन के अतिरिक्त आवश्यक भी है और साथ ही 'कॉम्पेटेटिव् एग्जाम' के लिए 'करेन्ट अफेयर्स' की भी जानकारी बढ़ जाती है। मतलब .. "आम के आम और गुठलियों के दाम" वाली कहावत चरितार्थ हो जाती है .. शायद ...

दोनों की आज की बातचीत की शुरूआत होती है कुछ ही देर पहले मेहता जी और सक्सेना की हो रही बेतुकी बकझक से ...

मयंक - " विपक्ष के सांसद और विधायक भी किसी सत्तापक्ष के सांसद और विधायक के तरह ही वेतन और मोटी रक़म वाले भत्ते पाते हैं। यहाँ तक कि किसी अनुचित हरक़तों के लिए कुछ दिनों के लिए राज्य सभा या लोक सभा से इन्हें निलम्बित भी कर दिया जाए तो इनके वेतन से कोई कटौती नहीं होती है। जैसे हमारे देश की किसी हारी हुई क्रिकेट टीम की भी कमाई होती ही है। " - कड़क चाय की एक घूँट से अपनी ग्रीवा को तर करते हुए पुनः मयंक - " और हम हैं कि पक्ष और विपक्ष के नाम पर आपस में ख़ामख़ाह लड़ते रहते हैं। "

शशांक - " हमारा काम केवल पक्ष-विपक्ष के नाम पर 'सोशल मीडिया' को रंगना भर है। हम अपने घर-परिवार से किसी को विधायक-सांसद बनाने की बात नहीं करेंगे .. हमें तो बस .. सरकारी नौकर चाहिए या फिर डॉक्टर, इंजीनियर, वक़ील, प्रोफेसर, टीचर चाहिए .. हमने कभी अपने देश में विधायक-सांसद बनने के लिए किसी 'सिलेबस' की या 'कोचिंग सेंटर' खोलने की तो बातें नहीं सोची कभी .. पर दो गुटों में बँट कर आपस में तू तू मैं मैं कर के अपनी-अपनी गर्दन अकड़ाने से बाज नहीं आते हैं। हद है इनकी सोच की ..."

मयंक - " कभी टमाटर, कभी मणिपुर .. बिना विषय को गम्भीरता से जानेसमझे बस किसी फिसड्डी नेता की तरह लोगों में छाए रहने के लिए कुछ भी बकते रहना इनका काम है। शर्मनाक और मार्मिक घटनाओं पर भी कविताओं, दोहों, लेखों और स्लोगनों की स्रोत फूट पड़ती हैं इनकी तरफ से, किसी 'न्यूज़ चैनल' वाले की 'टी आर पी' की तरह अपनी 'कमेंट्स' और 'लाइक' की चाह में। .. नहीं क्या ?इनकी माँ-बहनों के साथ ये सब घटित हो तो भी ये लोग ऐसे-ऐसे क़सीदे पढ़ेंगे क्या ? "

शशांक - " किसी बलात्कृत बाला या महिला से रिश्ते जोड़ने की बात उठेगी तो इनकी नानी-दादी सब बेहोश हो जाएंगी। किसी ऐसी घटना की अगर गवाही देने की नौबत आ पड़ी तो अपने माँद में दुबक कर अपने डाइनिंग टेबल पर मुर्गे के शोरबे में पराठे बोर-बोर कर मुर्गे और टी वी पर आ रहे समाचार, दोनों के चटखारे लेंगे, फिर अगले दिन या उसी रात एक शगूफ़ा 'सोशल मीडिया' पर चिपका भर देंगे और तो और पीछे से 'लाइक' और 'कमेंट्स' की गिनती में मशग़ूल हो जायेंगे सारे .. बात करते हैं सा..."

मयंक - " कूल डाउन यार .." 

शशांक - " इनकी बेतुकी बातों से रक्त वाहिनियों में क़माल पाशा दौड़ने लगते हैं यार .. "

मयंक - " तुम सही कह रहे हो .. अभी देखो ना .. लोग सीमा और अँजू की बातें करते अघा नहीं रहे हैं। कोई सीमा की तो कोई अँजू की, तो कोई दोनों की तारीफ़ करते थक नहीं रहे हैं। पर हम उनसे एक ही बात पूछते हैं दोस्त कि .. अगर यही क़दम उन क़सीदे पढ़ने वाले लोगों की धर्मपत्नी या बेटी, बहन उठाये तो भी क्या वो लोग ऐसी ही प्रतिक्रिया देंगे, जैसी अभी दे रहे हैं दोनों की तारीफ़ में ? .. बोलो तो भला !!! ..."

शशांक - " मीडिया भी .. जिधर देखो उधर .. इन दोनों को 'सेलिब्रिटी' बनाने का कोई मौका नहीं छोड़ रही, लोग भी दिन रात चटखारे ले-ले कर देख-सुन और पढ़ रहे हैं .. सोते-जागते हर वक्त .. हम लोग युवा पीढ़ी के लिए कैसी प्रेरणास्रोत वाली प्रतिमान स्थापित करना चाह रहे हैं .. हम स्वयं ही तय नहीं कर पाते .. दूसरे की पत्नी, कोई अपने बच्चों के साथ, तो कोई अपने बच्चों को छोड़ कर अपने-अपने तथाकथित प्रेमी के पास भाग आयी या गयी तो सब उसे नायिका बनाने पर तुले हुए हैं .. कोई तो इसे इतिहास रचना बता रहे हैं .. हद हो गयी यार ... "

मयंक - " हमलोग बेकार की बातों में ही ज्यादा उलझे रहते हैं .. जिनसे समाज में होने वाले छोटे-छोटे, पर महत्वपूर्ण सकारात्मक बदलाव हम दरकिनार करते जाते हैं । जिसे 'मीडिया' भी 'कवर' नहीं करती। वो तो बस वही सब परोसने में दिलचस्पी रखती है, जिनसे उनकी 'टी आर पी' बढ़ती रहे। उन्हें समाज कल्याण या उत्थान से क्या लेना-देना भला ... !? " - जैसे-जैसे चाय की चुस्कियों की क्रमवार गिनती बढ़ती जा रही है , वैसे-वैसे 'डिस्पोजेबल कप' में चाय की मात्रा घटती जा रही है। - " हमारे समाज के चंद सकारात्मक बदलाव भले ही किसी हिन्दू पूजनोपरांत बँटने वाले प्रसाद में तुलसी दल की तरह मात्रा में नगण्य हों, पर होते महत्वपूर्ण हैं। उन्हें नयी पीढ़ी के समक्ष एक यथोचित प्रतिमान बनाने के लिए हम सभी को आगे आना होगा। केवल 'मीडिया' के भरोसे हम नहीं बैठ सकते। हम अक़्सर भूल जाते हैं कि 'मीडिया' जिन विज्ञापनों के सहारे चलती है, वे सारे विज्ञापन हमारी बदौलत चल पाते हैं। "

शशांक - " किसी छोटे-छोटे पर .. महत्वपूर्ण सकारात्मक बदलाव से तुम्हारा क्या मतलब है ? .. "

【 शेष .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (४) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】