सारा दिन संजीदा लाख रहे मोहतरमा संजीदगी के पैरहन में
मीन-सी ख़्वाहिशें मन की, शाम के साये में मचलती है बारहा
निगहबानी परिंदे की है मिली इन दिनों जिस भी शख़्स को
ख़ुश्बू से ही सिंझते माँस की, उसकी लार टपकती है बारहा
सोते हैं चैन की नींद होटलों में जूठन भरी प्लेटें छोड़ने वाले
खलिहानों के रखवालों की पेड़ों पे बेबसी लटकती है बारहा
मुन्ने के बाप का नाम स्कूल-फॉर्म में लिखवाए भी भला क्या
धंधे में बेबस माँ बेचारी हर रात हमबिस्तर बदलती है बारहा
पा ही जाते हैं मंज़िल दिन-रात साथ सफ़र करते मुसाफ़िर
पर यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ रेल बेचारी भटकती है बारहा
आवारापन की खुज़ली चिपकाए बदन पर हमारे शहर की
हरेक शख़्सियत संजीदगी के लिबास में टहलती है बारहा