(1) बस यूँ ही ...
अक़्सर हम आँसूओं की लड़ियों से
हथेलियों पर कुछ लकीर बनाते हैं
आहों की कतरनों से भर कर रंग
जिनमें उनकी ही तस्वीर सजाते हैं ..
बस यूँ ही गज़लों में तो बयां करता है
दर्द यहाँ तो सारा का सारा ज़माना
सागर किनारे रेत पर हम तो अपनी
कसमसाहट की तहरीर उगाते हैं ...
(2) मन की मीन
ऐ ! मेरे मन की मीन
मत दूर आसमां के
चमकते तारे तू गिन ..
हक़ीकत की दरिया का
पानी ही दुनिया तेरी
बाक़ी सब तमाशबीन ...
(3) काश ! जान जाते ...
कब का गला घोंट देते
तेरा हम .. ऐ! ईमान-ओ-धर्म
काश ! जान जाते कि हमारा ही
घर ज़माने में सबसे गरीब होगा ..
हो जाते हम भी जमाने के
इस दौर में बस यूँ ही शामिल
काश ! जान पाते कि यहाँ हर
मसीहे के लिए टँगा सलीब होगा ..
तेरे ठुकराने से पहले ही
छोड़ देते हम शायद तुमको
काश ! जान जाते कि मुझसे भी
हसीन-बेहतर मेरा वो रक़ीब होगा ..
तरसता रहा मैं तो जीवन भर
ऐ दोस्त ! महज़ एक कंधे के लिए
काश ! जान पाते कि मर कर
बस यूँ ही चार कंधा नसीब होगा ...