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Thursday, April 6, 2023

फूलदेई

 

        ( चित्र साभार - उत्तराखंड के "धाद" नामक संस्था से)

फूलदेई

थका-हारा हुआ-सा 

धरे हुए हर आदमी,

अपने-अपने काँधे पर 

अपनी-अपनी धारणाओं की लाठी,

बँधी हुई है जिनमें भारी-सी 

उनके पूर्वजों की 

पैबंद लगी एक गठरी,

है जिनमें सहेजे हुए अनेकों

परम्पराओं, प्रथाओं

और रीति रिवाजों की पोटली।


हर परम्परा, 

रीति रिवाज, प्रथा,

जो बने किसी की व्यथा

या हो फिर वो

किसी की भी हंता,

बिसरानी ही चाहिए 

शायद उन्हें, जैसे छोड़ी या 

छुड़ाई गयी थी सती प्रथा कभी,

और छोड़नी चाहिए आज ही 

परम्परा हमें बलि या क़ुर्बानी की भी।


है भला ये यहाँ विडंबना कैसी 

उत्तराखंड के पहाड़ों में भी ?

करते तो हैं यूँ बच्चे कृत 

पुष्पों के हनन का,

पर कहते हैं सभी कि ..

है फूलदेई* बाल पर्व सृजन का।

हनन को सृजन कहने की,

है भला ये परम्परा भी कैसी ?

बल्कि समझाना चाहिए बच्चों को, 

कि लगते हैं सारे पुष्प भले डाली पर ही।


माना .. ब्याही जाती हैं बेटियाँ 

भरी आँखों से ख़ुशी-ख़ुशी, 

पर है क्यों भला ये 

परम्परा कन्यादान की ?

गोया वो बेटियाँ ना हुईं, 

हो गईं निर्जीव वस्तु कोई 

या फिर कोई निरीह पशु-पंछी।

बेहतर हो अगर रक्तदान को भी

मिल कर कहें रक्तदान नहीं, 

बल्कि कहें .. रक्तसाझा हम सभी।


मिथक है या मिथ्या कोई, कि

है जुड़ा दान से तथाकथित पुण्य सारा।

कहें ना क्यों हम, हर दान को साझा

और हर साझा हो कर्तव्य हमारा।

सुलगा कर सारी परम्पराएँ पैबंद लगी 

ये दफ़न या दाह संस्कार जैसी,

करने चाहिए मृत शरीर या अंग साझा

ताकि मिले किसी को जीवन या

मिले किसी दृष्टिहीन को आँखों की रोशनी।

साहिब !!! कहिए ना देहसाझा, देहदान को भी .. बस यूँ ही ...

[ फूलदेई* - ब्रह्माण्ड में होने वाली तमाम ज्ञात-अज्ञात भौगोलिक घटनाओं में से एक है - संक्रांति; जिसके तहत कृषि, प्रकृति और ऋतु परिवर्तन का मुख्य कारक - सूरज हर महीने अपना स्थान बदल कर खगोलीय या ज्योतिषीय मानक के अनुसार तय बारह राशियों में से, एक राशि से दूसरे राशि में प्रवेश कर जाता है। यूँ तो सर्वविदित है, कि सौर पथ वाले खगोलीय गोले को बारह समान भागों यानि बारह राशियों में बाँटा गया है और सालों भर इन्हीं राशियों, जिनमें सूर्य प्रवेश करता है, उन्हीं के नाम के आधार पर ही बारह संक्रांतियों का नामकरण किया गया है।

हिन्दू धर्म के लोगों द्वारा संक्रांति को वैदिक उत्सव के रूप में भारत के कई इलाकों में बहुत ही धूम-धाम के साथ मनाया जाता है। यूँ तो पौराणिक मान्यताओं के आधार पर संक्रांति के अलावा भी कई अन्य भौगोलिक घटनाओं .. मसलन - ग्रहण, पूर्णिमा, अमावस्या या एकादशी जैसी तिथियों को भी स्नान-ध्यान, पूजा-अर्चना, दान-पुण्य, मोक्ष-धर्म इत्यादि से जोड़ा गया है।

इन बारह संक्रांतियों में से जनवरी माह में 14 या 15 तारीख़ को पूरे भारत में त्योहार की तरह "मकर संक्रांति" मनाया जाता है, जिसे बिहार-झारखण्ड में "दही-चूड़ा" के नाम से भी जाना जाता है। इसके एक दिन पहले पँजाब-हरियाणा में या अन्य स्थानों पर भी बसे सिखों द्वारा लोहड़ी नाम से त्योहार मनाया जाता है। साथ ही 14 या 15 तारीख़ को ही अप्रैल महीने में "मेष संक्रांति" को भी त्योहार के रूप में मनाया जाता है। जिसे पंजाब में बैसाखी, उड़ीसा में पाना या महाबिशुबा संक्रांति, बंगाल में पोहेला बोइशाख, बिहार-झारखण्ड में सतुआनी जैसे प्रचलित नामों से जाना जाता है।

इन दो प्रमुख संक्रांतियों के अलावा 14 या 15 तारीख़ को ही जून महीने में "मिथुन संक्रांति" को भारत के पूर्वी और पूर्वोत्तर राज्यों में धार्मिक मान्यताओं के आधार पर पृथ्वी को एक माँ के रूप में मानते हुए, उनके वार्षिक मासिक धर्म चरण के रूप में मनाया जाता है, जिसे राजा पारबा या अंबुबाची मेला के नाम से भी जानते हैं और प्रायः 16 जुलाई को "कर्क संक्रांति" भी कहीं-कहीं मनाया जाता है। 

साथ ही प्रायः 16 दिसम्बर को पड़ोसी हिन्दू देश दक्षिणी भूटान और नेपाल में "धनु संक्रांति" को बड़े ही धूम-धाम से मनाते हैं।

परन्तु इन सब से अलग "मीन संक्रांति" को त्योहार के रूप में मनाए जाने की प्रथा के बारे में उत्तराखंड के देहरादून में रहने के दौरान इसी वर्ष अपने जीवन में पहली बार जानने का मौका मिला है। इस दिन फूलदेई, फूल सग्यान, फूल संग्रात या फूल संक्रांति नाम से स्थानीय त्योहार मनाया जाता है। चैत्र माह के आने से सम्पूर्ण उत्तराखंड में अनेक पहाड़ी पुष्प खिल जाते हैं, मसलन - प्योंली, लाई, ग्वीर्याल, किनगोड़, हिसर, बुराँस। 

यूँ तो देहरादून के शहरी माहौल में यह त्योहार लुप्तप्राय हो चुका है, परन्तु सुदूर पहाड़ों में इसे आज भी मनाया जाता है। इसे मुख्य रूप से बच्चे मनाते हैं, उन बच्चों को फुलारी कहते हैं। सुबह-सुबह अपने-अपने घरों से टोली में निकले बच्चे खिले फूलों को तोड़ कर एकत्रित करते हैं और घर-घर जाकर दरवाजे पर वर्ष भर की मंगल कामना करते हुए वो तोड़े पुष्पों को रखते जाते हैं। इसमें बड़ों का भी योगदान रहता है। बड़े लोग बच्चों को आशीर्वाद के साथ-साथ त्योहारी के रूप में कुछ उपहार भी देते हैं। इन सारी पारम्परिक प्रक्रियाओं के दौरान फुलारी बच्चे फूल डालते हुए कुमाउँनी में गाते हैं–

फूलदेई छम्मा देई ,

   दैणी द्वार भर भकार.

   यो देली सो बारम्बार ..

   फूलदेई छम्मा देई

   जातुके देला ,उतुके सई .."

  और गढ़वाली में गाते हैं –

" ओ फुलारी घौर.

   झै माता का भौंर .

   क्यौलिदिदी फुलकंडी गौर .

   डंडी बिराली छौ निकोर.

   चला छौरो फुल्लू को.

   खांतड़ि मुतड़ी चुल्लू को.

   हम छौरो की द्वार पटेली.

   तुम घौरों की जिब कटेली... "

सनातनी परम्पराओं, प्रथाओं और रीति रिवाज़ों की तरह ही इस भौगोलिक घटना - मीन संक्रांति को भी तथाकथित पौराणिक शिव-पार्वती, नंदी और शिव गणों जैसे पात्रों से जोड़ दिया गया है। एक अन्य मान्यता के मुताबिक इस त्योहार को एक स्थानीय लोककथा के आधार पर प्योंली नामक एक वनकन्या से भी जोड़ कर देखा जाता है। यहाँ विस्तार से इन पौराणिक या लोककथा को लिखना समय की बर्बादी ही होगी .. शायद ... क्योंकि इन सारी मान्यताओं के महिमामंडन का विस्तारपूर्वक उल्लेख गूगल पर उपलब्ध है। ]


  

Wednesday, June 16, 2021

चौथा कंधा ...

लगभग दो साल पहले :-

सन् 2019 ईस्वी। अप्रैल का महीना। शाम का लगभग सात-साढ़े सात बजे का समय। अवनीश अपने घर में शयन कक्ष से इतर एक अन्य कमरे के एक कोने में जमीन पर ही बिछे हुए दरी-चादर वाले बिछौने पर लेटे हुए थे। कुछ ही घन्टे पहले अपने चंद रिश्तेदारों और कुछ पड़ोसियों-दोस्तों के साथ मिलकर "बाँस-घाट" (पटना में गंगा नदी के किनारे एक श्मशान घाट) पर अपने पापा का दाह-संस्कार कर के घर लौटे थे। दाह-संस्कार के क्रम में हुई भाग-दौड़ से ऊपजी शारीरिक थकान और अपने पापा के खोने की पीड़ा से ऊपजी मानसिक थकान के मिलेजुले कारणों से अनायास ऊपजी अवनीश की गहरी नींद की कोख़ से कुछ ही देर में खर्राटों की आवाज़ जन्म लेने लगी थी, जो घर में पसरी हुई बोझिल ख़ामोशी वाले रिक्त स्थानों को भर रही थी।

अचानक उनके पास ही 'एक्सटेंशन बोर्ड/कॉर्ड' में चार्ज हो रहे उनके और उनकी धर्मपत्नी अवनि के फोन में से एक फोन के बजने से उनकी नींद टूट गई और खर्राटों की आवाज़ की जगह 'मोबाइल' की 'रिंग टोन' ने ले ली थी। वह 'मोबाइल' बिना देखे, अपनी आँखें बन्द किये हुए ही, बस इतनी ही जोर से बोले, ताकि अंदर के कमरे में मम्मी के पास उपस्थित उनकी अवनि उनकी आवाज़ सुन सके और फोन ले जाए - "अव्वी ! .. तुम्हारा फोन .."

 अक़्सर दोनों ही एक-दूसरे को प्यार भरे इसी नाम से सम्बोधित करते हैं। मतलब, अवनीश के लिए अवनि- अव्वी और अवनि के लिए अवनीश भी- अव्वी, यानी अवनीश भी अव्वी और अवनि भी अव्वी .. दोनों ही एक दूसरे के लिए "अव्वी"। यूँ तो दोनों के फोनों के अलग-अलग 'रिंग टोन' होने के कारण, वे दोनों ही फोन आने पर, बिना फोन देखे ही दूर से समझ जाते हैं, कि किसके फ़ोन पर फ़ोन आया है। साथ ही .. एक बात और कि .. आपसी अच्छी तालमेल होने के कारण कोई भी फोन आने पर उत्सुकतावश या जासूसीवश एक दूसरे के मोबाइल के 'स्क्रीन' पर आपस में कोई भी ताकता या झाँकता तक नहीं है और ना ही पूछता भी है, कि किसका फोन आया था या उस से क्या बातें हो रही थी।
अवनि चार्ज होते फोन को चुपचाप निकालकर, कॉल रिसीव कर के धीरे से - "हेल्लो" कहते हुए दूसरे कमरे में चली गई। ताकि उसकी फोन पर बातें करने से अवनीश की नींद ना खराब हो जाए।
फिर पाँच-दस मिनट के बाद ही अवनि वापस आकर अपना मोबाइल फिर से उसी जगह पर चार्ज में लगाने लगी। तभी बस यूँ ही अवनीश ने पूछ भर लिया कि - "किसका फोन था ?"
"मँझले मामा जी का था।"
"क्या कह रहे थे ?"
"कह रहे थे कि एक ही शहर में, पास में ही रह कर, वे पापा जी के दाह संस्कार में शामिल नहीं हो सके हैं, इसका उनको बहुत ही खेद है।"
"कोई बात नहीं, समय नहीं मिल पाया होगा शायद !"
"ना ! ना-ना, बोल रहे थे, कि अभी ढाई महीने पहले ही तो सरिता का कन्यादान किए हैं। इसी कारण से वे लोग अपने सामाजिक रस्म-रिवाज़ वाले नियम-कायदे से बंधे हैं। मज़बूरी है, वर्ना आते जरूर। ये भी बोले कि मेरी तरफ से माफ़ी माँग लेना अवनि बेटा।"
"ओ ! .. कोई बात नहीं। पर बड़े होकर माफ़ी माँगने वाली बात तो .. अच्छी नहीं है। है ना ?"
"बाद में आएंगे मिलने मम्मी जी से .. ऐसा भी बोले हैं।"
"अच्छा ! ठीक है, आने दो, जब उनके समाज के बनाए रस्म-रिवाज उनको आने की अनुमति दे दें, तो आ जाएं, किसने रोका है भला। है कि नहीं।"
सरिता- अवनि के मंझले मामा जी की तीन बेटियों- सरिता, मनीषा और समीरा में से उनकी बड़ी बेटी यानी अवनि की ममेरी बहन है।अभी ढाई माह पहले ही जनवरी महीने वाले शादी के शुभ मुहूर्त में, इसी शहर के एक अच्छे मैरिज हॉल से उसकी शादी हुई थी, जहाँ अवनीश और अवनि भी सपरिवार निमंत्रित थे। तब अवनीश के मम्मी-पापा यानी अवनि की मम्मी जी और पापा जी भी गए थे। पापा जी .. जो अभी कुछ घन्टे पहले ही सनातनी विचारधारा के अनुसार पंच तत्वों में विलीन हो चुके थे।
यह तो सर्वविदित है कि हमारे हिन्दू धर्म में एक लोक(अंध)परम्परा है, जिसके अनुसार जो कोई भी किसी लड़की की शादी में कन्यादान करते हैं या फिर लड़के की शादी करने पर भी, शादी के बाद साल भर तक, किसी के यहाँ भी किसी के मरने पर नहीं जाते हैं। जब तक मृतक के परिवार को "छुतका" (सूतक) रहता है, तब तक उस के यहाँ जाना वर्जित है। हमारे हिन्दू समाज की एक मान्यता है कि अगर ऐसी परिस्थिति में भूले से भी, जो कोई भी, शादी करवाने वाले अभिभावक या नवविवाहित दम्पति जाते हैं, तो उनके साथ कुछ भी अपशकुन घटित हो सकता है। तथाकथित भगवान जी नाराज़ हो जाते हैं .. शायद ...
अभी इस दुःखद घड़ी में भी मंझले मामा जी के आए हुए फोन से, केवल अपनी भगनी- अवनि से बातें होना और अवनीश या उनकी मम्मी से आज की दुःखद घटना के बारे में कोई भी बात ना करना; आपको-हमको शायद अटपटी बात लगे, पर अवनीश के लिए यह कोई भी आश्चर्य का विषय नहीं है। वह अपनी शादी के अब तक के दो-तीन सालों में, अपने ससुराल वालों के इस अलग अंदाज़ वाली आदत से अच्छी तरह वाकिफ़ हो चुके हैं; कि किसी भी तरह के दुःख या ख़ुशी के मौके पर, अवनि के मायके से किसी का भी फोन प्रायः अवनि को ही आता है। और तो और .. यहाँ तक कि उनकी शादी की सालगिरह की शुभकामनाएं भी अवनि के मायके वाले अकेले अवनि से ही साझा करके उस दिन की औपचारिकता की इतिश्री कर देते हैं हर बार।
वैसे तो अवनीश बचपन से अपने घर-परिवार में ये चलन देखते हुए आए हैं, कि अगर किसी बुआ जी, मौसी जी या किसी भी 'कजिन' दीदी लोगों के ससुराल में किसी ख़ास आयोजन के मौके पर आमन्त्रित करने के लिए या किसी अवसर पर शुभकामनाएं देने के लिए या फिर दुःख की घड़ी में शोक प्रकट करने के लिए उन लोगों के अलावा तदनुसार फूफा जी, मौसा जी या जीजा जी या फिर उनके मम्मी-पापा से बातें की जाती रहीं हैं। हो सकता है यह पुरुष-प्रधान समाज होने के कारण ऐसा होता हो। पर अवनीश करें भी तो क्या भला .. अवनि का मायका इस मामले में है ही कुछ अलग-सा। वैसे तो अवनीश को इन में भी सकारात्मकता नज़र आती है, कि यह पुरुष-प्रधान समाज को चुनौती देती हुई, किसी महिला-प्रधान समाज को गढ़ने की प्रक्रिया वाली शायद कोई चलन या जुगत हो।

इसी साल :-

सन् 2021 ईस्वी। अप्रैल का महीना। अवनीश अपनी सुबह की दिनचर्या निपटाने के बाद रोज़ाना की तरह ही 'वाश रूम' के पास वाले 'वाश-बेसिन' के ऊपर टंगे आइने में अपनी छवि निहारते हुए, अपने 'मैक-थ्री' के 'ट्रिपल ब्लेड' वाले 'शेविंग रेज़र' से दाढ़ी बना रहे थे। वह मंगलवार, बृहस्पतिवार या शनिवार को दाढ़ी नहीं बनाने और ना ही बाल कटवाने से अपशकुन होने जैसी मान्यता या परम्परा को एक दक़ियानूसी सोच की या एक बेबुनियाद ढकोसला की पैदावार भर मानते हैं। उनकी सोच के अनुसार, अगर ऐसा हो रहा होता तो रत्न टाटा, बिरला, अंबानी, अडानी .. ये सब के सब रोज ही 'शेव' करने वाले लोग इतने बड़े आदमी नहीं होते।

तभी पास ही मेज पर पड़े फोन के बजने पर, रसोईघर में नाश्ता की तैयारी कर रही अवनि को उन्होंने आवाज़ दी कि- "अव्वी ! तुम्हारा फोन .."
"आ रही हूँ ..."
"अपने पास ही क्यों नहीं रखती हो, ताकि कोई फोन आए तो तुमको पता चल सके।"
"अच्छा बाबा ! सुबह-सुबह इतना गुस्सा मत होओ।"
"मोबाइल की फिर जरूरत ही क्या है भला .. ऐसे में एक 'लैंड लाइन' फोन लगवा लो।"
"तुम्हारे बकबक में ना ... फोन भी कट गई।"
अवनि फोन लेकर वापस रसोईघर में चली गई। 'कॉल' आए हुए 'नंबर' पर 'कॉल बैक' कर के बातें करने लगी - "प्रणाम मामा जी !,  मामी जी कैसी हैं ? ..." कुछ ही देर में बातें खत्म करते हुए - "अच्छा, प्रणाम मामा जी ... जी, जी, हाँ-हाँ, ठीक है। जी ! बोल दूँगी "इनको"। हाँ, हाँ, समझ रही हूँ। समझा भी दूँगी इनको। अब रखती हूँ। जी, मामा जी। जी, प्रणाम मामा जी।"
अब तक अवनीश 'शेव' करने के बाद अपने गालों पर 'सुथॉल एंटीसेप्टिक लिक्विड' मलते हुए, नाश्ते के लिए 'डाइनिंग टेबल' तक आ चुके थे। पिछले साल की तरह ही, इन दिनों भी 'लॉकडाउन' के तहत 'वर्क फ्रॉम होम' के अंतर्गत वह घर से ही अपने 'ऑफिस' का काम निपटा रहे थे। अतः नियत समय पर 'ऑफिस' पहुँचने की उन्हें कोई हड़बड़ी नहीं होती है। इसी कारण से नाश्ता आने तक आज का अख़बार खोल कर पन्नों पर छपे समाचारों पर अपनी नज़रें फिराने लगे।
तभी अवनि गर्मागर्म नाश्ता ले कर आ गई। लगभग आठ बजने वाले थे। अवनि नाश्ता की थाली मेज पर रख कर, 'टीवी' चालू कर के, 'इंडिया टीवी चैनल' पर बाबा राम देव के रोजाना आने वाले लगभग चालीस-पैंतालीस मिनट के कार्यक्रम को 'रिमोट' से चला कर गौर से देखने लगी। मम्मी जी भी मनोयोग से योग वाला कार्यक्रम देखने के लिए आ कर साथ में बैठ गईं। कुछ देर में नाश्ता, अख़बार और योग का कार्यक्रम सब कुछ ख़त्म होने के बाद सभी अपने-अपने काम में लगने के लिए वहाँ से  उठ गए। मम्मी अपने कमरे में लेटने चली गईं, अवनीश अपने काम के मेज पर 'कंप्यूटर' के सामने और अवनि रसोईघर में सभी के लिए काढ़ा बनाने।
पर जाने से पहले, पहले मम्मी जी के जाने के बाद, अवनि .. अवनीश के पास बैठ कर कहने लगी कि- "सुबह उस समय मँझले मामा जी का फोन आया था। कह रहे थे कि परसों उनकी मँझली बेटी- मनीषा की शादी है। पर अभी 'लॉकडाउन' में सरकार के दिशानिर्देश के अनुसार अधिकतम पचास लोग ही शादी के आयोजन में शामिल हो सकते हैं। इसी कारण से वे इस शादी में हमलोगों को नहीं बुला पा रहे हैं।"
"वैसे भी तो .. अभी कोरोना के समय भीड़-भाड़ वाले जगहों में जाने से बचना ही चाहिए। अच्छा हुआ जो निमन्त्रण नहीं आया। आता भी तो शायद नहीं जा पाते हमलोग।"
"कह रहे थे कि उनके गोतिया लोग और लड़के वालों का परिवार मिला कर ही पचास से ज्यादा लोग हो जा रहे हैं। तो गोतिया में से ही कई लोगों को आने से रोका जा रहा है। बाहर से या मुहल्ले से किसी को भी नहीं बुलाया गया है।"
"स्वाभाविक है .. वैसे भी सरकारी दिशानिर्देशों को मानने में हम आम लोगों की ही भलाई है। हमारी रक्षा-सुरक्षा के लिए ही तो बनाए जाते हैं तमाम नियम-क़ानून। है कि नहीं ?"
"एक छोटे-से 'कम्युनिटी हॉल' में सब कुछ सम्पन्न हो रहा है। कोई धूम-धड़ाका नहीं होगा। दरअसल लड़के की माँ बीमार रहती हैं, तो उनकी ज़िद्द से, सरिता की शादी के समय ही ये तय की हुई शादी, जल्दी में निपटायी जा रही है। बोल रहे थे, कि बाद में वे लोग मिलने आ जायेंगे या हमलोग जा कर मिल लेंगें।"
"कोई बात नहीं। चलो .. फ़िलहाल अभी तो 'किचेन' में जल्दी से जा कर अपने इन हाथों से एक 'कप' अदरख़-तेजपत्ता वाली कड़क चाय बना कर लाओ। फिर काम करने बैठूं। काढ़ा दोपहर में पिला देना।"
"ठीक है .. अभी आयी ..."

आज :-

सन् 2021 ईस्वी का जून महीना। तेरह तारीख़, दिन-रविवार। सुबह लगभग साढ़े पाँच बजे का समय।
"अव्वी !" - अवनि लगभग झकझोरते हुए अवनीश को जगा रही है।
"अरे ! .. क्या हुआ ?.. इतनी क्यों चीख़ रही हो। आज 'सन्डे' है। आज तो कम से कम आराम से सोने दो ना अव्वी ! .. 'प्लीज़' .. अभी सोने दो ..."
"अव्वी, अभी-अभी मंझले मामा जी की छोटी वाली बेटी- समीरा का फ़ोन आया था। मामी जी भी बात कीं। रो -रो के बुरा हाल है दोनों का"
"अरे ! .. क्या हुआ ? .. क्या हो गया सुबह-सुबह ?"- अवनीश घबरा कर बिस्तर पर उठ बैठे।
" मंझले मामा जी नहीं रहे अव्वी।" - अवनि रुआँसी हो गयी।
"मामी जी कह रही थीं, कि कल रात ठीक ही थे। समय से खा-पीकर और कल शनिवार को रात दस बजे आने वाले रजत शर्मा की "आपकी अदालत" 'इंडिया टीवी' पर देख कर देर से सोए थे।"
"फिर ? .. अचानक ?.."
"समीरा बतला रही थी, कि सुबह चार-सवा चार बजे अचानक अपने सीने में दर्द कहते हुए उठे। मामी जी और समीरा को आवाज़ दिए। मामी जी तो पास में ही सोयी थीं, आवाज़ पा कर जाग गईं और समीरा भी बगल वाले कमरे से जाग कर फ़ौरन आयी।"
"बहुत ही दुःखद बात है .."
"अंत समय में .. समीरा के हाथ को कस के पकड़ लिए थे और रोने लगे थे। कहने लगे .. बेटा माफ़ कर देना। तुम्हारी शादी नहीं ... कहते-कहते उनकी जुबान लड़खड़ा गयी। शरीर निढाल हो गया। समीरा के हाथ को पकड़े हुए उनके हाथ की पकड़ ढिली पड़ गयी।"
"ओह ! ..."
"फोन कर के पास वाले डॉक्टर अंकल को बुलाया गया था। वह आकर जाँच कर के बतलाए कि मामा जी अब नहीं रहे। उनको 'मैसिव हार्ट अटैक' आया था। डॉक्टर अंकल बोल रहे थे, कि समय पर इलाज मिल पाता तो .. शायद ..." - अवनि बोलते-बोलते रो पड़ी -
"पर इतनी जल्दी में सारा कुछ हो गया, कि किसी को कुछ भी करने का मौका ही नहीं मिला .."
अब तक अवनीश नींद की गिरफ़्त से पूर्णतः बाहर आ चुके थे। बिस्तर से उठ कर, तेजी से 'वाश रूम' की ओर भागते हुए अवनि को बोले -"तुम भी जल्दी से 'फ़्रेश' होकर तैयार हो जाओ। हम भी आ रहे हैं। हम दोनों को फ़ौरन वहाँ जाना चाहिए।"
आधे घन्टे में दोनों झटपट मामी जी के घर जाने के लिए तैयार हो गए। पर .. अवनि से नहीं रहा गया। वह अपने मन की एक ऊहापोह मिटाने के लिए अवनीश से सवाल पूछ ही बैठी, कि - "अव्वी, पापा जी के वक्त मामा जी, जिस किसी भी कारण से हो, एक शहर में रह कर भी नहीं आए थे। मंझली बेटी की शादी में, जिस किसी भी कारण से हो, बुलाये भी नहीं।"
"तो ?"
"तो फिर ..  अव्वी .. आप कैसे बिना बुलाए उनके यहाँ जाने के लिए अपने मन से तैयार हो गए ?"
"देखो (सुनो) अव्वी, मामा जी उस वक्त नहीं आए, ये उनकी सोच पर आधारित उनका फैसला था। वैसे भी तो ... तुम गौर से देखोगी, कि हमारे समाज की अधिकांश परम्पराएं सभ्यता-संस्कृति के नाम पर सदियों से चली आ रही अंधपरम्पराएँ हैं। जिनमें समय के अनुसार परिवर्त्तन की आवश्यकता है। सोचो ना जरा .. कोई भी परम्परा इंसान की सुविधा के लिए होनी चाहिए, ना कि बाधा बनने के लिए।"
"हाँ ... वो तो है ..."
"आज देखो कि दो माह पहले ही शादी किए हैं मनीषा की और स्वयं ही चले गए। ऐसे में धाराशायी हो गयी ना सूतक मानने वाली अंधपरम्परा और हाँ .. एक और बात, कि किसी के घर उसकी ख़ुशी में शरीक़ होने ना भी जाओ, तो कम से कम और जरूर से जरूर उसकी विपदा की घड़ी में उसके क़रीब जाना चाहिए। ऐसे मौकों पर कोई बुलाता नहीं अव्वी, बल्कि मानवता के नाते हमें जाना होता है या यूँ कहो कि जाना ही चाहिए।"
"हम तो तैयार ही हैं .. बस यूँ ही ... मन में एक बात आयी तो, पूछ लिया आपसे।"
"फिर .. इस शहर में हमलोगों के सिवाय उनका नजदीकी रिश्तेदार कोई है भी तो नहीं। उनके किसी भी रिश्तेदार को अन्य शहर से यहाँ आने में कम से कम सात से आठ घण्टे लगेगें। हो सकता है कि इस कोरोनाकाल में कोरोना के डर से कई लोग आएं भी ना।"
"हाँ, सही कह रहे आप। ऐसा हो सकता है।"
मम्मी को इस दुःखद घटना की जानकारी देकर, दोनों अपनी 'बाइक' पर अपने घर से मात्र लगभग सात किलोमीटर दूर मामा जी के घर के लिए निकल पड़े हैं।

आज ही मामा जी के घर पर :-

घर में प्रवेश करते ही मामी जी और समीरा अवनि से लिपट कर रोने लगीं- "पापा हम को छोड़ के चले गए दीदी। अब हम अनाथ हो गए।"
अवनि ने दोनों को सम्भाला- "ऐसा नहीं बोलते। अभी मामी जी हैं। और हमलोग भी तो हैं ही ना .. ऐसा क्यों सोचती हो तुम।"
अवनीश एक टक से अतिथि कक्ष में जमीन पर एक बिछाए चादर पर पड़े हुए मामा जी के शव को निहार रहे थे। लग रहा था मानो अभी सोए हुए हों। बस .. जाग कर उठ बैठेंगे। पास ही आठ-दस अगरबत्तियाँ सुलग रही हैं। अवनीश के दिमाग में चल रहा है, कि जिस बाँस के सहारे अभी अगरबत्तियाँ सुलग रही हैं, उसी बाँस की अर्थी पर सवार हो कर हम इंसानों का शरीर भी सुलग कर .. ना, ना, धधक-धधक कर जल कर राख हो जाता है।
थोड़ा सामान्य होने पर समीरा से पता चला कि रमण 'अंकल' सुबह आये थे। कुछ देर में 'फ़्रेश' हो कर आने बोल गए हैं। दरसअल रमण 'अंकल' मामा जी के गाँव के ही, चार घर छोड़ कर, रहने वाले हैं। एक ही जाति के भी हैं। दोनों साथ ही गाँव के 'हाई स्कूल' से पास किये और शहर के एक ही 'कॉलेज' में पढ़ाई पूरी कर के एक ही साथ इस शहर की 'स्टील' की बड़ी 'फैक्ट्री' में नौकरी 'ज्वाइन' कर ली थी। दोनों साथ ही 'रिटायर' भी हुए हैं। लब्बोलुआब ये कि दोनों लँगोटिया यार रहे हैं। एक बार नौकरी करने आए इस शहर में तो फिर इसी शहर में दोनों ही बस गए हैं।
मामी जी से ये भी पता चला कि सरिता और "मेहमान" (सरिता के पति) पाँच-छः घंटे में आ जायेंगे। मनीषा और मेहमान 'हनीमून' के लिए मालदीव गए हुए हैं, इसलिए उनका समय पर आना सम्भव नहीं है। मुहल्ले में आस-पड़ोस से भी कोरोना के डर से कोई भी झाँकने नहीं आया। अभी किसी तरह भी, किसी की भी मृत्यु हो, तो लोग कोरोना के डर से नहीं आते हैं।
लगभग आधे घन्टे बाद रमण 'अंकल' अपने लगभग तीस वर्षीय इकलौते बेटे- पवन के साथ आ गए हैं। पंडित जी से फोन पर बात कर के एक 'लिस्ट' लिख ली गई है। बाद में अवनीश, रमण 'अंकल' और पवन, सभी आपस में सलाह-मशविरा कर के उस एक 'लिस्ट' से दो 'लिस्ट' बना लिए हैं और बाँस-कफ़न की जुगत में निकल पड़े हैं। पवन अपनी 'बाइक' से अलग और अवनीश रमण 'अंकल' के साथ अलग ओर, ताकि सारा काम समय से निपट जाए।
अब तक रमण 'अंकल', अवनीश और पवन बाज़ार से आ गए हैं। सरिता से समीरा की बात हुई है अभी-अभी। बस .. वह और मेहमान पहुँचने ही वाले हैं। तब तक घर में मामा जी को नहलाने, हल्दी लगाने जैसी रस्में सब लोग पूरी कर रहे हैं। अर्थी सजते-सजते मनीषा और उनके पति आ गए। एक बार फिर से समूह-रुदन की आवाज़ सीने को चीरने लगी है। अब मामा जी को श्मशान घाट ले जाने की भी बारी आ चुकी है।
इधर अवनीश के दिमाग में चल रहा है, कि आज मामा जी की अर्थी को मिलने वाले चार कन्धों में चौथा कंधा उनका होगा। एक- रमण 'अंकल', दूसरा सरिता के पति का, तीसरा रमण 'अंकल' के बेटे पवन का और .. चौथा .. स्वयं अवनीश का। बस ... चार दिन की ज़िन्दगी के पटाक्षेप के बाद मात्र चार कंधे ही तो चाहिए। बाक़ी तो सब .. कहते हैं ना .. कि बाक़ी सब तो मोह-माया है। चाहे समाज की भीड़ हो या समाज की रस्म-रिवाजें। अब आज ही कहाँ गई उन पचास लोगों की भीड़, जो इनकी मँझली बेटी की शादी में जुटी थी। आज कहाँ पालन हो पा रहा है, उस परम्परा की, जिसमें शादी करने के बाद एक साल तक अभिभावक या वे नवविवाहित जोड़ें किसी के मृत्यु होने वाले घर में नहीं आ-जा सकते हैं, वर्ना अपशकुन हो जाता है। मामा जी ने भी तो अपनी मनीषा की शादी लगभग ढाई महीने पहले ही तो की है और आज खुद ही, ख़ुद के घर में मृत पड़े हैं।
अब तक देखते-देखते मामा जी के जाने का समय भी आ ही गया है। मामी जी, सरिता और समीरा, तीनों दरवाजे को छेक कर खड़ी हो गई हैं, किसी शादी में होने वाली द्वार-छेकाई वाली रस्म की तरह-
"मत ले जाइए पापा को।"
"मत ले जाइए मेहमान इनको .. इनके बिना कैसे जी पाएंगे हम। सरिता ! .. समीरा ! .. रोक लो ना पापा को। सरिता ! तुम्हारी बातें तो पापा कभी नहीं टालते हैं ना ! समीरा ! जगाओ ना पापा को । "
मामी जी बेहोश होकर गिर गईं हैं। अवनि ग्लास में पानी अंदर से लाकर मामी जी के मुँह पर छींटा मारती है - "संभालिए मामी जी अपने आप को। अगर आप ऐसे करेंगी तो समीरा, सरिता का क्या होगा। ये सोची हैं अभी? 'प्लीज' संभालिए अपने आप को। समीरा चुप हो जाओ। अपने मन पर काबू रखो सरिता। तुम लोग ऐसे अगर देह छोड़ दोगी, तो घर कौन संभालेगा भला .. बोलो ?"
अब चारों लोगों के कंधे पर सवार होकर मामा जी अपनी अनन्त यात्रा पर निकल पड़े हैं- "राम नाम सत्य है।" ... पर अवनीश के मन में राम-नाम की जगह कुछ और ही चल रहा है- "काश ! समाज की उन तमाम बेबुनियाद रस्म-रिवाजों, दकियानूसी सोचों वाली परम्पराओं को भी वह इसी तरह अर्थी पर सजा कर किसी धधकती चिता पर जला पाता .. काश ! ... बस .. केवल तीन अन्य कंधों की तलाश है; क्योंकि  उसका तो है ही ना .. चौथा कंधा .. शायद ...

(आइये .. इस बोझिल माहौल के बोझ को कुछ हल्का करने के लिए सुनते हैं ... साहिर लुधियानवी जी के शब्दों-सोचों को .. गाने की शक़्ल में .. बस यूँ ही ... )