हम सभी को तो आज भी याद होनी ही चाहिए 2010 में आयी 'फ़िल्म' "पीपली लाइव" .. जो काला हास्य (Black Comedy) की श्रेणी में रखी गयी थी या आज है भी। जिसमें किसानों की आत्महत्या जैसी त्रासदी को हास्य-व्यंग्य की चटपटी चाशनी में सराबोर करके हम दर्शकों के समक्ष पेश की गयी थी। यूँ तो यह छत्तीसगढ़ के पीपली गाँव की पृष्ठभूमि की कहानी होते हुए भी .. लगभग समस्त त्रस्त किसानों की दुखती रगों का परत-दर-परत बख़िया उधेड़ती प्रतीत होती है, जिन किसानों को देश-समाज के लिए उनके किए गए मूलभूत योगदान का यथोचित प्रतिफल नहीं मिल पाता है। ऐसे में इसे मनोरंजक 'फ़िल्म' कम, बल्कि किसी घटनाचक्र का तेज रफ़्तार से गुजरता हुआ एक मार्मिक वृत्तचित्र ही ज्यादा महसूस किया जा सकता है .. शायद ...
वैसे भी इतिहास की मानें तो नाटकों के मंचन एवं उससे उपजी 'फ़िल्मों' के अस्तित्व का औचित्य समाज को आइना दिखाना और किसी प्रकाशस्तंभ की तरह राह दिखाना भी/ही रहा है .. मनोरंजन तो उसका उप-उत्पाद भर ही था, ताकी इन दोनों के माध्यम से कही गयी संदेशपरक बातें जनसाधारण के दिमाग़ में आसानी से धँस सके। परन्तु कालान्तर में आज .. समाज का एक वृहद् अनपढ़ कामगार वर्ग और कमोबेश बुद्धिजीवी वर्ग भी उसको मनोरंजन का एक साधन मात्र मान बैठा है ।
आम लोग तब भी उनमें संलिप्त लोगों को, ख़ास कर महिलाओं को, हेय दृष्टि से देखते थे और आज भी कई तथाकथित बुद्धिजीवी समाज भी उनसे जुड़े लोगों को अक़्सर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से "नचनिया-बजनिया" कह कर उन्हें सिरे से नकार देते हैं .. शायद ...
ख़ैर ! .. बात करते हैं, "पीपली लाइव" 'फ़िल्म' के उस लोकप्रिय गीत- "सखी, सैयाँ, तो खूबई कमात हैं, मँहगाई डायन खाए जात है" "की, जो हम जनसाधारण के मानसपटल पर गाहे-बगाहे बजती ही रहती है। जिस तरह तथाकथित तौर पर टूटे दिल वाले इंसानों को कोई दर्द भरा फ़िल्मी गीत या ग़ज़ल उनके अपने मन में उभरते हुए दर्द की ही अभिव्यक्ति लगती है और अक़्सर .. हम में से कई ऐसे दिलजलों को रुमानी दर्द भरे नग़में गाकर, गुनगुनाकर या सुनकर भी कुछ देर के लिए ही सही पर दिल को राहत मिलती है। ठीक उसी तरह यह गीत भी देश भर के आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लोगों को अपने-अपने मन में उभरती-उमड़ती टीस की ही अभिव्यक्ति लगती है। जिसको गाने, गुनगुनाने, सुनने या फिर बतियाने भर से भी/ही हमारे समाज के आर्थिक रूप से निम्न या निम्न-मध्यम वर्ग के लोगों को कुछ पलों के लिए तो मानसिक राहत का छद्म फाहा ही सही, पर मिल तो जाता है .. शायद ...
दरअसल यह एक पुराना लोकगीत है, जिसका इस्तेमाल "पीपली लाइव" 'फ़िल्म' में किया गया था। यूँ तो समालोचक वाली पैनी नज़रों से हम सभी ग़ौर करेंगे तो .. ज्ञात होगा कि अनेक पुराने लोकगीतों, शास्त्रीय संगीतों और सूफ़ी शैली का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सैकड़ों भारतीय सिनेमा में वर्षों से धड़ल्ले से प्रयुक्त किया जाता रहा है .. नहीं क्या ? ...
अब आज की मूल बतकही ... .. हमें तो ये भी याद होनी ही चाहिए कि .. इसी 'फ़िल्म' में एक अन्य "छत्तीसगढ़ी लोकगीत" का भी इस्तेमाल किया गया था - "चोला माटी के हे राम, एकर का भरोसा .." , जो जीवन-दर्शन से परिपूर्ण है। जिसके मुखड़ा एवं हरेक अंतराओं से हमारी अंतरात्मा को आध्यात्मिक स्पंदन व स्फुरण मिलता है। जितनी बार भी इसे सुना जाए, हर बार यह लोकगीत सूक्ष्म आध्यात्मिक आत्मा को स्थूल भौतिक देह-दुनिया से पृथक करता हुआ एक निस्पंदन जैसी प्रक्रिया की हमें अनुभूति करा जाता है .. शायद ...
दरअसल इस मूल छत्तीसगढ़ी लोकगीत में छत्तीसगढ़ी लेखक गंगाराम शिवारे जी से कुछेक बदलाव करवाने के बाद .. इस गीत को लोक वाद्ययंत्रों व लोक वादकों के सहयोग से अपने "नया थिएटर" नामक रंगशाला के नाटकों में प्रयोग कर-कर के इसे जनसुलभ करने का पुनीत प्रयोग किया था विश्व प्रसिद्ध नाट्यकर्मी हबीब तनवीर जी ने। इसीलिए आज भी इस गीत के रचनाकार के रूप में गंगाराम शिवारे जी को ही जाना जाता है।
हबीब तनवीर जी केवल एक नाट्यकर्मी ही नहीं, बल्कि प्रसिद्ध पटकथा लेखक, नाट्य निर्देशक, संगीतकार, कवि और फ़िल्मी अभिनेता भी रहे हैं। उन सबसे भी बढ़ कर वे एक महान प्रयोगधर्मी थे। तभी तो अपने रंगशाला- "नया थिएटर" में छत्तीसगढ़ के आदिवासियों को गढ़-गढ़ के .. तराश-तराश के रंगमंच के कलाकार के रूप में विश्वस्तरीय मंचों का हक़दार बनाने का काम किए, जो उनकी अनुपम उपलब्धि रही। यूँ तो हबीब तनवीर जी और उनके "नया थिएटर" के लिए श्रंद्धाजलि स्वरूप अगर कभी कुछ बतकही की जाए तो, वो एक-दो भागों में नहीं समेटा या लपेटा जा सकता है .. क्योंकि वे नाटक का एक सिमटा हुआ अध्याय भर नहीं थे, वरन् स्वयं में सम्पूर्ण विश्वविद्यालय समेटे हुए थे .. शायद ...
संदर्भवश बकता चलूँ कि .. "पीपली लाइव" में रघुवीर यादव व नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी जैसे नामचीन कलाकारों के साथ-साथ मुख्य पात्र "नत्था" का क़िरदार निभाने वाले छत्तीसगढ़ के रंगमंच कलाकार- "ओंकार दास मानिकपुरी" की भले ही यह पहली 'फ़िल्म' थी। पर इन्हें पहले से ही हबीब तनवीर जी के "नया थिएटर" के स्थापित कलाकारों में से एक होने का गौरव मिला हुआ था।
अब बारी आती है .. इस विशेष "छत्तीसगढ़ी लोकगीत"- "चोला माटी के हे राम, एकर का भरोसा .." की आवाज़ की, तो .. इस गीत को तब भी आवाज़ मिली थी हबीब तनवीर जी और उनकी प्रेमिका-सह-पत्नी रहीं अभिनेत्री व महिला-निर्देशक मोनिका मिश्रा जी की बेटी - "नगीन तनवीर" जी की और अब भी .. "पिपली लाइव" 'फिल्म' के लिए भी उन्होंने ही गाया था, जो अपने दिवंगत माता-पिता की अनुपस्थिति में आज भी "नया थिएटर" का कार्यभार बखूबी संभाल रही हैं। यूँ तो वह रंगकर्मी भी हैं, परन्तु मूलरूप से स्वयं को लोकगीत गायिका मानती हैं, विशेष रूप से छत्तीसगढ़ी लोकगीत की।
उन्हीं "नगीन तनवीर" जी को सामने से 'लाइव' सुनने का एक शाम मौक़ा मिलना मन चाही मुराद से बढ़कर था। दरअसल "दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र, देहरादून" के सौजन्य से "दून पुस्तकालय सभागार" में पाँच दिवसीय- 8 मई से 12 मई तक होने वाले "ग्रीष्म कला उत्सव" में गत रविवार 12 मई के दोनों सत्रों में जाने का सुअवसर मिला था। पहले सत्र में थोड़ा विलम्ब से जाने कारण केवल हबीब तनवीर जी और उनके लोकप्रिय व प्रसिद्ध नाटकों में से एक - "चरणदास चोर" पर आधारित एक दुर्लभ श्वेत-श्याम वृत्तचित्र देख पाया और दूसरे सत्र पर ही तो आज की ये बतकही आधारित है .. बस यूँ ही ...
जहाँ "नगीन तनवीर" जी को 'लाइव' सुनने के साथ-साथ लोकगीत, संगीत, ग़ज़ल या हबीब तनवीर जी व उनके नाटकों से जुड़े विषयों पर श्रोता श्रेणी में दो-चार गज की दूरी पर बैठकर गीतों के बीच-बीच में सार्वजनिक रूप से उनके साथ बतियाना .. एक अभूतपूर्व अनुभूतियों की त्रिवेणी बन गयी थी। तभी तो आज की बतकही को नाम दिया है- " "पीपली लाइव" सच्ची-मुच्ची 'लाइव' ..."। लगभग साठ वर्षीया नगीन तनवीर जी के आभामण्डल को लगभग डेढ़ घंटे तक पास से महसूस करना अपने-आप में एक रविवारीय उपलब्धि भर ही नहीं, बल्कि जीवन की एक अनुपम उपलब्धि रही .. बस यूँ ही ...
वैसे भी जो लोग मन से कलाकार होते हैं, उन विभूतियों के लिए जाति-धर्म या देश-परदेश की सीमाएँ बंधन नहीं बन पाते हैं। इनके कई सारे ज्वलंत उदाहरण मिलते भी हैं। उन्हीं में दिवंगत हबीब तनवीर जी के साथ-साथ उनकी जीवनसंगिनी दिवंगत मोनिका मिश्रा जी और उनकी सुपुत्री नगीन तनवीर जी का भी नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। तभी तो वह छत्तीसगढ़ी लोकगीत के साथ-साथ उत्तर प्रदेश के लोकगीतों को भी उतनी ही अपनापन से अपना स्वर देती हैं और वह अन्य राज्यों के लोकगीतों को भी सीखने के लिए भी प्रयासरत हैं।
जब वह छत्तीसगढ़ी के साथ-साथ उत्तरप्रदेश के लोकगीत और ग़ज़ल भी सुनायीं, तो उनसे कार्यक्रम के बीच-बीच में होने वाली बातचीत के दौरान हमने पूछा कि "आपकी आज की पोटली में "बिहार" (लोकगीत) भी है क्या ?" तो .. उनका मुस्कान भरा उत्तर था, कि "अभी सीखना है .. सीख रही हूँ।" फिर बीच में एक बार हमने "जरा हल्के गाड़ी हाँकों, राम गाड़ी वाले" गाने का अनुरोध किया, तो स्नेहिल भाव के साथ इस कबीर भजन को ना गा पाने की अपनी असमर्थता जताईं। पर यकीनन ये जीवन दर्शन भरा कबीर भजन भी उनके मन के काफ़ी क़रीब रहा होगा, तभी तो उस भजन के मुखड़े को सुनकर उनके मुखड़े पर एक आध्यात्मिक मुस्कान तैर गयी थी।
आइए सबसे पहले .. नगीन तनवीर जी की आवाज़ में हबीब तनवीर जी की लिखी एक रचना- "बताओ गुमनामी अच्छी है या अच्छी है नामवरी .." का एक अंश सुनते हैं, जिसे संगीतबद्ध भी उन्होंने ही किया था। जिसका अपने नाटक में अक़्सर प्रयोग भी करते थे। वह अपनी लिखी रचनाएँ स्वयं ही लोक वाद्य यंत्रों व लोक वादकों के सहयोग से संगीतबद्ध करके अपने नाटकों में प्रायः प्रयोग में लाया करते थे।
अब जीवन-दर्शन से सराबोर एक अन्य छत्तीसगढ़ी लोकगीत - "पापी चोला रे, अभिमान भरे तोरे तन में ..." का एक अंश उनकी आवाज़ में ...
एक अन्य लोकगीत, वह भी छत्तीसगढ़ से ही है। जिसे प्रत्यक्ष तो नहीं पर परोक्ष रूप से भारतीय सिनेमा के नामचीन लोगों ने चुराया है, जिसके मूल बोल का एक अंश है -" सास गारी देवे, ननद मुँह लेवे, देवर बाबू मोर, सैंया गारी देवे, परोसी गम लेवे, करार गोंदा फूल। अरे... केरा बारी म डेरा देबो चले के बेरा हो ~~~ आये ब्यापारी गाड़ी में चढ़ीके, तोला आरती उतारंव थारी में धरी के, हो ~~~ करार गोंदा फूल, सास गारी देवे...."; परन्तु आपको ज्ञात होगा कि इसी के बोल में कुछ परिवर्त्तन करके 'फ़िल्म' - "दिल्ली 6" में "सैंया छेड़ देवें, ननद चुटकी लेवे ससुराल गेंदा फूल, सास गारी देवे, देवरजी समझा लेवे, ससुराल गेंदा फूल, छोड़ा बाबुल का अँगना, भावे डेरा पिया का, हो ~~ सास गारी देवे, देवरजी समझा लेवे ससुराल गेंदा फूल ~~~ सैंया है व्यापारी, चले है परदेश, सुरतिया निहारूं जियरा भारी होवे, ससुराल गेंदा फूल ~~~" के रूप में इस्तेमाल किया गया था। जिससे उन लोगों को तो परोक्ष नक़ल के कारण बैठे-बिठाए ख्याति मिल गयी और दूसरी तरफ वर्षों से एक कोने में सिमटे उस लोकगीत को देश के कोने-कोने में वृहद् विस्तार मिलने से वह जनसुलभ बन गया .. भले ही बदले हुए रूप में।
मतलब .. किसी दूसरे की बहुरिया को अपनी तरफ से दूसरी अँगिया पहना के अपनी बहुरिया होने का दावा करने जैसा ही है ये सब .. शायद ... ख़ैर ! .. बड़े लोगों की बड़ी बातें, हम जनसाधारण को क्या करना भला। चलिए उस मूल लोकगीत का एक अंश 'लाइव' सुनते हैं नगीन तनवीर जी की खनक भरी आवाज़ में - "ससुराल गेंदा फूल ~~~"
आइए .. अब मिलकर "पीपली लाइव" को 'लाइव' सुनते हैं .. मने .. नगीन तनवीर जी की आवाज़ में - "चोला माटी के हे राम, एकर का भरोसा .." के एक अंश को सुनते हुए "पीपली लाइव" की याद ताजा करते हैं .. बस यूँ ही ...
चलते-चलते स्मरण कराता चलूँ कि इसी छत्तीसगढ़ी लोकगीत- "चोला माटी के हे राम, एकर का भरोसा .." को "सेंट जेवियर्स कॉलेज ऑफ मैनेजमेंट एंड टेक्नोलॉजी", पटना (बिहार) से 'मास कम्युनिकेशन' में कला स्नातक करने वाले युवा छात्र-छात्राओं ने अपने 'प्रोजेक्ट वर्क' के तहत "मुंशी प्रेमचंद" जी की मशहूर कहानी- "कफ़न" पर आधारित एक लघु 'फ़िल्म' बनाने के दौरान उस 'फ़िल्म' के अंत में भी बहुत ही कलात्मक ढंग से जीवन-दर्शन की गूढ़ता को दर्शाते हुए प्रयोग किया था। । जिसकी चर्चा आदतन विस्तारपूर्वक "ना 'सिरचन' मरा, ना मरी है 'बुधिया' " नामक बतकही को चार भागों ( भाग-१, भाग-२, भाग-३ व भाग-४ ) में यहाँ साझा करते हुए " ना 'सिरचन' मरा, ना मरी है 'बुधिया' .. (अंतिम भाग-४)" में उस 'फ़िल्म' को भी चिपकाया था।
आत्ममुग्धतावश या आत्म-प्रशंसावश तो नहीं, पर .. हम "घीसू" के पात्र को जीने के आत्म-गौरव की अनुभूति करते हुए पुनः एक बार "कफ़न" को यहाँ चिपकाने से स्वयं को संवरण नहीं कर पा रहे हैं .. .. बस यूँ ही ...
अगर हृदय स्पंदन आगे भी गतिमान रहा तो पुनः मिलते हैं .. बस यूँ ही ... 🙏🙏🙏