खींचे समाज ने
रीति-रिवाज के,
नियम-क़ानून के,
यूँ तो कई-कई
लक्ष्मण रेखाएँ
अक़्सर गिन-गिन।
फिर भी ..
ये मन की मीन,
है बहुत ही रंगीन ...
लाँघ-लाँघ के
सारी रेखाएँ ये तो,
पल-पल करे
कई-कई ज़ुर्म संगीन,
संग करे ताकधिनाधिन ,
ताक धिना धिन ..
क्योंकि ..
ये मन की मीन,
है बहुत ही रंगीन ...
ठहरा के सज़ायाफ़्ता,
बींधे समाज ने यदाकदा,
यूँ तो नुकीले संगीन।
हो तब ग़मगीन ..
बन जाता बेजान-सा,
हो मानो मन बेचारा संगीन ..
तब भी ..
ये मन की मीन,
है बहुत ही रंगीन ...