"सत्यमेव जयते" की तिलक अपने माथे पर लगाए अन्य भारतीय सरकारी संस्थानों या अदालतों की तरह बिहार की राजधानी पटना में भारत सरकार के विदेश मंत्रालय का क्षेत्रीय पासपोर्ट कार्यालय (Government of India, Ministry of External Affairrs, Regional Passport Office, Patna) यानि पासपोर्ट सेवा केन्द्र (Passport Seva , Service Excellence) एक बड़े से signboard के साथ Vaus Springs, Block-ll, Lower & Upper Ground Floor,Ashiana-Digha Road,Patna के पता पर स्थित है।
हमारा वहाँ जाने के कारण की चर्चा फिर कभी। फ़िलहाल वहाँ की झेली गई कुछ परेशानियों के बहाने कई बातें दिमाग में कौंध आती हैं।
अगर आप पटना में पासपोर्ट बनवाने कभी गए हैं तो इन परेशानियों से अवश्य रूबरू होना पड़ा होगा या भविष्य में पड़ सकता है। इसकी सभी परेशानीयाँ लगती तो केवल इसकी अपनी हैं, पर हैं सार्वभौमिक।
मसलन - यहाँ मुख्य गेट के अन्दर तो आप अपने वाहन ले ही नहीं जा सकते हैं और बाहर सड़क पर कहीं पार्किंग की सुविधा है ही नहीं। जैसा कि अमूमन कई शहरों में यह असुविधा आम है। नतीज़न - बस ... फुटपाथ पर किनारे आप अपनी वाहन चाहे वह दुपहिया हो या चारपहिये वाली - खड़ी कर सकते हैं। विशेषतौर से यहाँ कार्यालय के भवन के सामने की सड़क पूरी तरह खस्ताहाल में है, जहाँ बेमौसम भी जलजमाव आम दृश्य है।
खैर ! अब आते हैं .. एक और सार्वभौमिक मूलभूत समस्या पर। पटना के इस कार्यलय के पास ही नहीं, पूरे शहर में ही और कई अन्य शहरों में भी सार्वजनिक मूत्रालय का अभाव देखा जा सकता है। नतीज़न - पुरुष तो जैसे-तैसे पढ़ाई के दिनों वाले एक श्लोक के "श्वान निद्रा" को ध्यान में रखते हुए "श्वान मूत्रा" यानि मूत्र-त्यागने के लिए कुत्ते की तरह कहीं भी सड़क किनारे शुरू हो जाते हैं। पर सार्वजनिक स्थल पर तलब लगने पर महिलाओं के लिए तो जैसे आफ़त वाली ही बात होती है। यहाँ भी उनकी धैर्य-क्षमता नमनीय ही है। हाँ .. गाँव की बात अलग है।
शहर में तो कई जगह दीवारों पर इधर-उधर मूत्र नहीं त्यागने की हिदायत लिखी होती है। कई जगह तो मूत्र त्यागने वाले के लिए गालियाँ या गधा का सम्बोधन तक लिखा होता है।
इस केंद्र सरकार के कार्यालय के बाहर भी यही समस्या व्याप्त है। नियमानुसार यहाँ पूर्व में ही दिए गए निर्धारित समय-सीमा के अंदर ही भीतर जाने दिया जाता है। एक तरफ आप उस शहर के हैं, तब भी बुलाए गए समय से कुछ समय पहले तो आपको जाना ही होता है। दूसरी तरफ बाहर अन्य शहर से आए लोग तो अंजान शहर में नए पता के लिए भटकने के डर से समय से पहले पहुँच ही जाते हैं।
समस्या यहीं शुरू होती है। अगर आपको मूत्र त्यागने की तलब लगी है तो पास ही फोटो-कॉपी, चाय-नाश्ता, पान-सिगरेट के दुकानों में से एक दुकान वाले ने अंदर में अस्थायी व्यवस्था कर रखी है, जहाँ आप दस रूपये की सेवा-शुल्क देकर हल्का हो सकते हैं। कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है। कारण कि यह स्थान एक पॉश कॉलोनी है और आप वहाँ फूटपाथ पर खड़ा हो कर कहीं भी शुरू नहीं हो सकते हैं। सच-सच कहूँ तो इसकी कीमत सुनकर ही मेरी तो तलब गायब हो गई। और ... मैं अपना ध्यान बँटा कर अन्दर जाने वाले समय का इंतज़ार करने लगा।
ये अलग बात है कि अंदर की व्यवस्था तो काफी चुस्त-दुरुस्त और साफ़-सुथरी किसी पांचसितारा होटल या हवाई-अड्डे के वाशरूम की एहसास कराती है आपको।
कई जगह तो दीवारों पर ज्ञान लिखा होता है कि "यहाँ पेशाब नहीं करें। मूत्रालय में करें।" पर नगर-निगम का मूत्रालय नदारद रहता है। फलस्वरूप लोग वही शुरू हुए दिख जाते हैं, जहाँ इसकी मनाही लिखी होती है। अब आदमी करे भी तो क्या करे। कई दफ़ा तो दुर्लभ परिस्थिति में आपातकालीन विकट समय में सभ्य लोगों को भी अपनी सभ्यता त्याग कर सार्वजनिक मूत्रालय के अभाव में ऐसा करना पड़ता है। परन्तु आमरूप से प्रायः लोग लोकलज्जा त्याग कर ऐसा करते हुए दिख जाते हैं। कामकाजी या कभी-कभार घरेलु कामों से बाहर निकल कर रास्ते में चलने वाली सभ्य महिलाओं को शर्म से या सभ्यतावश ऐसे दृश्यों से रोज दो-चार होना पड़ता है और आँखें चुरानी पड़ती है।
इस बेशर्मी भरे कृत्य में जींसधारी से लेकर जनेऊधारी तक शामिल हैं। सवाल है - दोषी कौन ? नगर निगम या आमजन ?
फ़िलहाल ऐसे सभ्यजनों के साथ-साथ नगर निगम को भी नमन !!!
हमारा वहाँ जाने के कारण की चर्चा फिर कभी। फ़िलहाल वहाँ की झेली गई कुछ परेशानियों के बहाने कई बातें दिमाग में कौंध आती हैं।
अगर आप पटना में पासपोर्ट बनवाने कभी गए हैं तो इन परेशानियों से अवश्य रूबरू होना पड़ा होगा या भविष्य में पड़ सकता है। इसकी सभी परेशानीयाँ लगती तो केवल इसकी अपनी हैं, पर हैं सार्वभौमिक।
मसलन - यहाँ मुख्य गेट के अन्दर तो आप अपने वाहन ले ही नहीं जा सकते हैं और बाहर सड़क पर कहीं पार्किंग की सुविधा है ही नहीं। जैसा कि अमूमन कई शहरों में यह असुविधा आम है। नतीज़न - बस ... फुटपाथ पर किनारे आप अपनी वाहन चाहे वह दुपहिया हो या चारपहिये वाली - खड़ी कर सकते हैं। विशेषतौर से यहाँ कार्यालय के भवन के सामने की सड़क पूरी तरह खस्ताहाल में है, जहाँ बेमौसम भी जलजमाव आम दृश्य है।
खैर ! अब आते हैं .. एक और सार्वभौमिक मूलभूत समस्या पर। पटना के इस कार्यलय के पास ही नहीं, पूरे शहर में ही और कई अन्य शहरों में भी सार्वजनिक मूत्रालय का अभाव देखा जा सकता है। नतीज़न - पुरुष तो जैसे-तैसे पढ़ाई के दिनों वाले एक श्लोक के "श्वान निद्रा" को ध्यान में रखते हुए "श्वान मूत्रा" यानि मूत्र-त्यागने के लिए कुत्ते की तरह कहीं भी सड़क किनारे शुरू हो जाते हैं। पर सार्वजनिक स्थल पर तलब लगने पर महिलाओं के लिए तो जैसे आफ़त वाली ही बात होती है। यहाँ भी उनकी धैर्य-क्षमता नमनीय ही है। हाँ .. गाँव की बात अलग है।
शहर में तो कई जगह दीवारों पर इधर-उधर मूत्र नहीं त्यागने की हिदायत लिखी होती है। कई जगह तो मूत्र त्यागने वाले के लिए गालियाँ या गधा का सम्बोधन तक लिखा होता है।
इस केंद्र सरकार के कार्यालय के बाहर भी यही समस्या व्याप्त है। नियमानुसार यहाँ पूर्व में ही दिए गए निर्धारित समय-सीमा के अंदर ही भीतर जाने दिया जाता है। एक तरफ आप उस शहर के हैं, तब भी बुलाए गए समय से कुछ समय पहले तो आपको जाना ही होता है। दूसरी तरफ बाहर अन्य शहर से आए लोग तो अंजान शहर में नए पता के लिए भटकने के डर से समय से पहले पहुँच ही जाते हैं।
समस्या यहीं शुरू होती है। अगर आपको मूत्र त्यागने की तलब लगी है तो पास ही फोटो-कॉपी, चाय-नाश्ता, पान-सिगरेट के दुकानों में से एक दुकान वाले ने अंदर में अस्थायी व्यवस्था कर रखी है, जहाँ आप दस रूपये की सेवा-शुल्क देकर हल्का हो सकते हैं। कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है। कारण कि यह स्थान एक पॉश कॉलोनी है और आप वहाँ फूटपाथ पर खड़ा हो कर कहीं भी शुरू नहीं हो सकते हैं। सच-सच कहूँ तो इसकी कीमत सुनकर ही मेरी तो तलब गायब हो गई। और ... मैं अपना ध्यान बँटा कर अन्दर जाने वाले समय का इंतज़ार करने लगा।
ये अलग बात है कि अंदर की व्यवस्था तो काफी चुस्त-दुरुस्त और साफ़-सुथरी किसी पांचसितारा होटल या हवाई-अड्डे के वाशरूम की एहसास कराती है आपको।
कई जगह तो दीवारों पर ज्ञान लिखा होता है कि "यहाँ पेशाब नहीं करें। मूत्रालय में करें।" पर नगर-निगम का मूत्रालय नदारद रहता है। फलस्वरूप लोग वही शुरू हुए दिख जाते हैं, जहाँ इसकी मनाही लिखी होती है। अब आदमी करे भी तो क्या करे। कई दफ़ा तो दुर्लभ परिस्थिति में आपातकालीन विकट समय में सभ्य लोगों को भी अपनी सभ्यता त्याग कर सार्वजनिक मूत्रालय के अभाव में ऐसा करना पड़ता है। परन्तु आमरूप से प्रायः लोग लोकलज्जा त्याग कर ऐसा करते हुए दिख जाते हैं। कामकाजी या कभी-कभार घरेलु कामों से बाहर निकल कर रास्ते में चलने वाली सभ्य महिलाओं को शर्म से या सभ्यतावश ऐसे दृश्यों से रोज दो-चार होना पड़ता है और आँखें चुरानी पड़ती है।
इस बेशर्मी भरे कृत्य में जींसधारी से लेकर जनेऊधारी तक शामिल हैं। सवाल है - दोषी कौन ? नगर निगम या आमजन ?
फ़िलहाल ऐसे सभ्यजनों के साथ-साथ नगर निगम को भी नमन !!!