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Sunday, July 28, 2019

मज़दूर

गर्मी में तपती दुपहरी के
चिलचिलाते तीखे धूप से
कारिआए हुए तन के बर्त्तन में
कभी औंटते हो अपना खून
और बनाते हो समृद्धि की
गाढ़ी-गाढ़ी राबड़ी
किसी और के लिए
पर झुलस जाती है
तुम्हारी तो छोटी-छोटी ईच्छाएं
ठठरी तुम्हारी दोस्त !
चाहे कितने भी पसीने बहाएं।

सर्दी में ठिठुरती रातों की
हाड़ बेंधती ठंडक से
ठिठुरे हुए हृदय के आयतन में
कभी जमाते हो अपना ख़ून
बनाते हो चैन की
ठंडी-ठंडी कुल्फ़ी
किसी और के लिए
पर जम-सी जाती है
तुम्हारी छोटी-छोटी आशाएं
ठठरी तुम्हारी दोस्त !
चाहे क्यों ना ठिठुर जाए।

कितने मजबूर हो तुम
जीवन के 'मजे' से 'दूर' हो तुम
हाँ, हाँ, शायद एक 'मजदूर' हो तुम
हाँ ... एक मज़दूर हो तुम !!!

{ स्वयं के पुराने (जो तकनीकी कारण से नष्ट हो गया) ब्लॉग से }.