सुबह जागने पर प्रायः सुबह-सुबह हम अपनी पहली जम्हाई या अंगड़ाई या फिर दोनों से ही अपने दिन की शुरुआत करते तो हैं, परन्तु ... फ़ौरन ही हमारी दिनचर्या का सिलसिला विज्ञापनों के सरगम के साथ सुर मिलाने लग जाती है।
फ़ौरन हम हमारी दिनचर्या की तालिका को विज्ञापनों के रंगों से सजाने के लिए हम अपने आप को विवश-बेबस महसूस करने लग जाते हैं। हमारे हर एक क़दम विज्ञापनों के गिरफ़्त में बँधते या बिंधते चले जाते हैं।
तब ऐसे में हम आर्थिक रूप से ग़रीब ना भी हों तो विज्ञापनों के मायाजाल में हम अपने आप को ज़बरन भौतिक रूप से ग़रीब जरूर मान लेते हैं। फिर तो ऐसा मानकर एक प्रकार का कुढ़न होना भी लाज़िमी ही है .. शायद ...
खैर ! .. फिलहाल .. आज की रचना/विचारधारा ... बस यूँ ही ...
मुहल्ले की मुनिया
ना तुम कॉम्प्लान 'गर्ल'
ना हम कॉम्प्लान 'बॉय'
करते नहीं कभी
एक-दूसरे को
'टाटा' .. 'बाय-बाय',
पढ़ने-लिखने हम सब तो
बस ..सरकारी स्कूल ही जाएँ।
हमारे मुहल्ले भर की चाची
जब लाइफबॉय से नहाएँ
तो फिर पियर्स से नहायी
'लकी' चेहरा वाली 'आँटी'
किसी भी 'कम्पटीशन' के पहले
अब हम भला कहाँ से लाएँ ?
चेहरे पर अपने 'नेम', 'फेम'
और 'स्टार' वाली छवि
जन्मजात काली
मुहल्ले की मुनिया भला
फेयर एंड लवली वाली
निखार कहाँ से लाए ?
पसीना बहाती दिन भर खेतों में
गाँव की सुगिया भी भला
'सॉफ्ट-सॉफ्ट' 'चिक्स' वाली
मम्मी कैसे बन पाए ?
काश ! कभी 'कंपनी' कोई
मन के लिए भी तो एक प्यारा-सा
उजला-उजला डव बनाए !!! ...